एतत्कार्यममराः संसृतं मे घृतिः शमः सत्यधर्मानुवृत्तिः।
ग्रन्थि विनीय हृदयस्य सर्वं प्रियाप्रिये चात्मसमं नयीत।।६.१.१।।
परमहंस ने कहा - हे देवताओं ! मैंने तो सुना है कि मनुष्य का कर्त्तव्य धैर्य रखना , चित्त को वश में करना और सत्यधर्म का पालन करना है। अतः मनुष्यों को अपने हृदय की सभी गांठें खोलकर प्रिय और अप्रिय सभी को अपनी आत्मा के समान समझना चाहिये।
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।।६.१.२।।
किसी व्यक्त्ति से अप्रिय या गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दें ; क्योंकि अपमान को सहते हुए जो क्रोध रोका गया है , वही क्रोध गाली देने वाले को जला डालता है और उसका पुण्य भी सहने वाले को मिल जाता है।
मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून् रूक्षां वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्।
तस्माद्वाचमुषतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत ।।६.१.३।।
इस संसार में कटु शब्द पुरुषों के हृदय को , हड्डियों को , प्राणों को जला देते हैं। इसी कारण दूसरों को भस्म करने वाले कठोर शब्दों का धर्मानुरागियों को परित्याग कर देना चाहिये।
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वाचं रूषतीं वर्जयीत।।६.१.४।।
किसी अन्य व्यक्त्ति को अपशब्द न कहें अर्थात् गाली न दें तथा न ही उसे अपमानित करें। जो मित्र हैं उनसे वैर न करें , नीच पुरुषों की सेवा न करें , सदाचार का त्याग न करें और घमंडी न बनें , कटु वाणी और रूखी बातों का त्याग करना चाहिये।
अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान्।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वै वहन्तम् ।।६.१.५।।
जो मनुष्य अपनी रूखी बातों द्वारा दूसरों के हृदय को आघात पहुँचाता है , जिस मनुष्य का व्यवहार अति कठोर होता है तथा जो अपने ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को कष्ट पहुँचाता है। ऐसे मनुष्यों को अपने आपको अति दरिद्र समझना चाहिये। और ऐसा समझना चाहिये कि वह अपने मुख में दरिद्रता अथवा मृत्यु को बांध कर ढो रहे हैं।
परश्र्चेदेनमभिविध्येत् बाणैर्भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्कदीप्तैः।
स विध्यमानोऽप्यति दह्यमानो विद्यात्कविः सुकृतं मे दधाति ।।६.१.६।।
यदि कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को आग और सूर्य के सदृश जला देने वाले तेज वाणीरूपी बाणों से अत्यन्त चोट पहुंचावे तो उस विद्वान् मनुष्य को चोट खाकर पीड़ा सहन करते हुए भी यह समझना चाहिये कि कठोर वाणी का प्रयोग करने वाला मनुष्य उसके पुण्यों को ही पुष्ट कर रहा है।
अतिवादं न प्रवदेन्न वादयेद्योऽनाहतः प्रतिहन्यान्न घाटयेत्।
हन्तुं चयो नेच्छति पापकं वै तस्मै देवाः स्पृह्यन्त्यागताय ।।६.१.७।।
जो मनुष्य न स्वयं किसी के बारे में बुरी बात कहता है तथा न ही दूसरों को कहलवाता है। बिना मार खाये न ही स्वयं किसी को मारता है न ही दूसरों को मरवाता है। जो मनुष्य मार खाकर भी दूसरों को नहीं मारता ऐसे मनुष्यों का देवतागण भी आने की राह देखते हैं।
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तदिद्वतीयम्।
प्रियं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ।।६.१.८।।
न बोलना बोलने की अपेक्षा अच्छा बताया गया है ; परंतु न बोलने से अच्छा है कि सत्य बोलो। सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाए तो यह वाणी की तीसरी विशेषता है तथा यदि सत्य धर्म सम्मत हो तो वह वाणी की चौथी विशेषता है।
ग्रन्थि विनीय हृदयस्य सर्वं प्रियाप्रिये चात्मसमं नयीत।।६.१.१।।
परमहंस ने कहा - हे देवताओं ! मैंने तो सुना है कि मनुष्य का कर्त्तव्य धैर्य रखना , चित्त को वश में करना और सत्यधर्म का पालन करना है। अतः मनुष्यों को अपने हृदय की सभी गांठें खोलकर प्रिय और अप्रिय सभी को अपनी आत्मा के समान समझना चाहिये।
आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।।६.१.२।।
किसी व्यक्त्ति से अप्रिय या गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दें ; क्योंकि अपमान को सहते हुए जो क्रोध रोका गया है , वही क्रोध गाली देने वाले को जला डालता है और उसका पुण्य भी सहने वाले को मिल जाता है।
मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून् रूक्षां वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्।
तस्माद्वाचमुषतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत ।।६.१.३।।
इस संसार में कटु शब्द पुरुषों के हृदय को , हड्डियों को , प्राणों को जला देते हैं। इसी कारण दूसरों को भस्म करने वाले कठोर शब्दों का धर्मानुरागियों को परित्याग कर देना चाहिये।
नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वाचं रूषतीं वर्जयीत।।६.१.४।।
किसी अन्य व्यक्त्ति को अपशब्द न कहें अर्थात् गाली न दें तथा न ही उसे अपमानित करें। जो मित्र हैं उनसे वैर न करें , नीच पुरुषों की सेवा न करें , सदाचार का त्याग न करें और घमंडी न बनें , कटु वाणी और रूखी बातों का त्याग करना चाहिये।
अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान्।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वै वहन्तम् ।।६.१.५।।
जो मनुष्य अपनी रूखी बातों द्वारा दूसरों के हृदय को आघात पहुँचाता है , जिस मनुष्य का व्यवहार अति कठोर होता है तथा जो अपने ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को कष्ट पहुँचाता है। ऐसे मनुष्यों को अपने आपको अति दरिद्र समझना चाहिये। और ऐसा समझना चाहिये कि वह अपने मुख में दरिद्रता अथवा मृत्यु को बांध कर ढो रहे हैं।
परश्र्चेदेनमभिविध्येत् बाणैर्भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्कदीप्तैः।
स विध्यमानोऽप्यति दह्यमानो विद्यात्कविः सुकृतं मे दधाति ।।६.१.६।।
यदि कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को आग और सूर्य के सदृश जला देने वाले तेज वाणीरूपी बाणों से अत्यन्त चोट पहुंचावे तो उस विद्वान् मनुष्य को चोट खाकर पीड़ा सहन करते हुए भी यह समझना चाहिये कि कठोर वाणी का प्रयोग करने वाला मनुष्य उसके पुण्यों को ही पुष्ट कर रहा है।
अतिवादं न प्रवदेन्न वादयेद्योऽनाहतः प्रतिहन्यान्न घाटयेत्।
हन्तुं चयो नेच्छति पापकं वै तस्मै देवाः स्पृह्यन्त्यागताय ।।६.१.७।।
जो मनुष्य न स्वयं किसी के बारे में बुरी बात कहता है तथा न ही दूसरों को कहलवाता है। बिना मार खाये न ही स्वयं किसी को मारता है न ही दूसरों को मरवाता है। जो मनुष्य मार खाकर भी दूसरों को नहीं मारता ऐसे मनुष्यों का देवतागण भी आने की राह देखते हैं।
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तदिद्वतीयम्।
प्रियं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ।।६.१.८।।
न बोलना बोलने की अपेक्षा अच्छा बताया गया है ; परंतु न बोलने से अच्छा है कि सत्य बोलो। सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाए तो यह वाणी की तीसरी विशेषता है तथा यदि सत्य धर्म सम्मत हो तो वह वाणी की चौथी विशेषता है।