मंगलवार, 29 मार्च 2016

३.२० छः

षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता।।३.२०.१।।

जो पुरुष उन्नति करना चाहते हैं उन्हें इन छः दुर्गुणों (अधिक नींद , तन्द्रा , भय , क्रोध , आलस्य और जल्दी हो जाने वाले कार्यों में देर लगाने की आदत ) का त्याग कर देना चाहिये ; क्योंकि आलस को छोड़कर जो कठिन परिश्रम करता है ,  सफल हो पाता है।

षडिमानपुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अपवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।३.२०.२.१।।


अरक्षितारं राजानं भार्या चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।।३.२०.२.२।।

उपदेश न देने वाले आचार्य को , मन्त्रोच्चारण न करके हवन करने वाले को , रक्षा करने में असमर्थ राजा को , कठोर वचन बोलने वाली स्त्री , गाँव की इच्छा करने वाले ग्वाले और वन में रहने की इच्छा रखने वाले नाई ; इन छः का उसी  प्रकार त्याग कर देना चाहिये , जिस प्रकार समुद्र की सैर करने वाला व्यक्त्ति फटी हुई अर्थात् रिसने वाली नाव का त्याग कर देता है।

षडेव तु गुणाः पुसां न हातव्याः कदाचन्।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा घृतिः।।३.२०.३।।

व्यक्त्ति को कभी भी सत्य , दान , कर्मण्यता , दूसरों में दोष न निकालना , क्षमा और धैर्य , इन छः गुणों का परित्याग नहीं करना चाहिये ; क्योंकि वे गुण उनके रक्षक होते हैं।

अर्धागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्र्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.४।।

धन की प्राप्ति होते रहना , स्वस्थ रहना , मधुर वचन बोलने वाली और अपने अनुकूल रहने वाली स्त्री , पुत्र का आज्ञावादी होना और विद्या जिससे धन प्राप्त हो , ये छः बातें संसार में सुख प्रदान करने वाले बताये गये हैं।


षण्णामात्मानि नित्यानामैश्र्वर्य योऽधिगच्छति।
न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः।।३.२०.५।।

काम , क्रोध , लालच , मोह , मान  और घमण्ड , इन छः शत्रुओं को जो व्यक्त्ति जीत लेता है , वह जितेन्द्रिय पुरुष कहलाता है।  वह पापों में लिप्त नहीं होता है।  वह अनर्थ कैसे कर सकता है अर्थात् उनसे असमर्थ नहीं होता है।

षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः।।३.२०.६.१।।
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः।।३.२०.६.२।।

यह छः प्रकार के मनुष्य इन छः लोगों के सहारे अपनी आजीविका चलाते हैं।  वे इस प्रकार हैं - चोर आलसी लोगों के सहारे , चिकित्सक रोगियों के सहारे , वेश्या कामी पुरुषों से , पुरोहित यजमानों से , राजा आपस में झगड़ने वालों से तथा पंडित मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं।  सातवां कोई नहीं होता है।

षडिमानी विनश्यन्ति मुहूर्त्तमनवेक्षणात ।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्यावृषलसङ्गतिः।।३.२०.७।।

क्षण भर भी देख -रेख न करने से इन छः वस्तुओं का विनाश हो जाता है। पशु आदि गोधन , सेवा , खेती , पत्नी , विद्या और शूद्रों की संगती।

षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम्।
आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्र्च मातरम्।।३.२०.८.१।।
नारी विगतकामास्तु कृतार्थाश्र्च प्रयोजकम्।
नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्र्च चिकित्सकम्।।३.२०.८.२।।

ये छः व्यक्त्ति सदैव अपने ऊपर उपकार करने वाले का अनादर करते हैं - विद्या ग्रहण करने वाले अपने को पढ़ाने वाले आचार्य का , विवाह करने के बाद पुत्र अपनी माता का , कामवासना शांत हो जाने के बाद मनुष्य स्त्री का , काम निकल जाने के बाद अपने सहायक का , नदी पार करने के बाद व्यक्त्ति नाव का और रोगी व्यक्त्ति रोगमुक्त्त हो जाने पर अपने वैद्य का अनादर करते हैं।

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सभ्दिर्मनुष्यैः सह सम्प्रयोगः।
स्वप्रत्ययावृत्तिरभीतवासः षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.९।।

रोगमुक्त्त रहना , किसी से उधार न लेना , दूसरे देश में निवास करना , सज्जनों की संगती , अपने द्वारा कमाये गये धन से अपनी जीविका चलाना तथा भयभीत होकर रहना , ये इस संसार में मनुष्यों के छः सुख हैं , जिसे पाकर वह सुखपूर्वक रहता है।

ईर्षुर्घृणी न सन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी न षडेते नित्यदुःखिताः।।३.२०.१०।।   

ईर्ष्या करने वाले , घृणा करने वाला , संतुष्ट न रहने वाला , क्रोध से भरा हुआ , सदा शंका की दृष्टि रखने वाला तथा दूसरे के सहारे जीने वाला , ये छः प्रकार के मनुष्य इस संसार में सदैव दुःखी रहते हैं।

३.१९ पाँच

पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्या प्रयत्नतः।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्र्च भरतर्षभ।।३.१९.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! पिता , माता , अग्नि , आत्मा  तथा  गुरु - व्यक्त्ति को इन पाँचों अग्नियों की यत्नपूर्वक सेवा करनी चाहिये।

पञ्चैव पूजयल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्पितृन्मनुष्याश्र्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ।।३.१९.२।।

देवता , पितर , मनुष्य , सन्यासी तथा अतिथि इन पाँचों की पूजा करने वाला व्यक्त्ति संसार में शुद्ध यश प्राप्त करता है।

पञ्चत्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।
मित्राण्यमित्रा  मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः।।३.१९.३।।

हे राजन्।  आप जहां - जहां जायेंगे , वहाँ - वहाँ मित्र - शत्रु , उदासीन , आश्रय देने वाले और आश्रय पाने वाले व्यक्त्ति आपके पीछे लगे रहेंगे ; क्योंकि ये सदैव व्यक्त्ति के साथ रहते हैं।

पञ्चन्द्रियस्य मर्त्यस्यच्छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य सवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्।।३.१९.४।।

जिस प्रकार मशक में छेद हो जाने से पानी निकलता है और मशक खाली हो जाता है उसी प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले व्यक्त्ति की यदि एक भी इंद्रिय में दोष हो जाये तो उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।

३.१८ चार

चत्वारि राजा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात्।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कूर्यान्न दीर्घसूत्रैरभसैश्र्चारणैश्र्च।।३.१८.१।।

अल्प बुद्धि वाले , कार्य में देर लगाने वाले , विचार शून्य और स्तुति करने वाले लोगों के साथ राजा को बैठकर कभी सलाह नहीं लेना चाहिये , अपितु राजा को इन चारों महाबली का त्यागकर देना चाहिये।  विद्वान् पुरुष ऐसे व्यक्त्तियों को पहचान लें।

चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रीयाभिजुष्टस्य गृहस्थ धर्मे।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या।।३.१८.२।।

हे तात् ! जिस घर में अपने कुटुम्ब का वृद्ध मुसीबत में पड़ा हुआ , उच्च कुल का व्यक्त्ति , निर्धन मित्र तथा संतानहीन बहिन ये चारों रहते हैं।  उस  घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है ; क्योंकि बूढ़ा व्यक्त्ति बालकों को आचार -व्यवहार सिखाता है। निर्धन मित्र सदा हित की बात करता है और सन्तानहीन बहिन गृहस्थी के कार्यों को अच्छी प्रकार करती है।

चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पतिः।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे।।३.१८.३.१।।

हे महाराज ! इन्द्र के पूछने पर बृहस्पतिजी ने उनसे जिन चार बातों का शीघ्र फल देने वाला बताया है , उन्हें आप मुझसे सुनिये।

देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च श्रीमताम्।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम्।।३.१८.३.२।।

देवताओं का संकल्प , बुद्धिमानों का प्रभाव , विद्वानों की नम्रता तथा पाप करने वालों का विनाश।

चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुतमानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः।।३.१८.४।।  

चार कर्म मनुष्य को निर्भय  बनाता है और जब यह कार्य ठीक से सम्पन्न नहीं होते तो वह भयभीत हो जाता है। वे  कर्म हैं - आदरपूर्वक अग्निहोत्र , आदर के साथ मौन धारण का पालन , आदर के साथ विद्या ग्रहण तथा आदरपूर्वक किया गया यज्ञ का अनुष्ठान।