बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

६.१५ भेद - भाव

स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना न वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते।
न स्त्रीषु राजन् रतिमाप्नुवन्ति न मागधैः स्तूयमाना न सूतैः।।६.१५.१।।

जिन मनुष्यों में आपस में फूट रहती है ,उन्हें गद्देदार बिछौने  पर सोते हुए भी सुख की नींद नहीं आ सकती। उन्हें नारियों के पास रहकर और सूतमागधों द्वारा हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती।

न वै भिन्ना जातु चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्नुवन्तीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरव प्राप्नुवन्ति न वै भिन्नाः प्रशमं रोचयन्ति।।६.१५.२।।

जो मनुष्य आपस में भेद - भाव रखते हैं , वह कभी - भी धर्म का आचरण नहीं करते।  इतना ही नहीं उन्हें न कभी सुख प्राप्त होता है और न ही गौरव की प्राप्ति होती है।  शांतिपूर्वक बोले हुए वचन भी ऐसे मनुष्यों को अच्छे नहीं लगते।

न वै तेषां स्वदते पथ्यमुक्त्तं योगक्षेमं कल्पते नैव तेषाम्।
भिन्नानां वै मनुजेन्द्र परायणं न विद्यते किञ्चिदन्यद्विनाशात्।।६.१५.३।।

ऐसे मनुष्यों को उनके हिट सम्बन्धी वचन भी बोले जाए तो अच्छे नहीं लगते।  इसी प्रकार उनका कल्याण भी नहीं हो पाता। इसलिये जो मनुष्य आपस में भेद - भाव रखते हैं और उनका विनाश के अतिरिक्त्त और कोई गति नहीं है।

६.१४ सुख की वृद्धि

स्वधीतस्य सुयुद्धस्य सुकृतस्य च कर्मणः।
तपसश्र्च सुतप्तस्य तस्यान्ते सुखमेधते।।६.१४।।

जो मनुष्य अच्छे तरह से अध्ययन अर्थात् ज्ञान प्राप्त करता है। न्याय के अनुसार युद्ध पुण्यकर्म तथा अच्छी तरह से तपस्या करता है , तो उसके जीवन में अन्त में सुख की वृद्धि होती है।