विदुर उवाच
"
"
"
"
अश्रुतश्र्च समुन्नद्धौ दरिद्रश्र्च महामनाः।
अर्थाश्र्चकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।।३.३.१।।
जो व्यक्त्ति विद्वान न होते हुए अभिमान करता , निर्धन होते हुए भी बड़े -बड़े स्वप्न देखता है तथा बिना कर्म किये ही धन की अभिलाषा रखता है। ऐसे मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।
स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्र्च मूढः स उच्चते।।३.३.२।।
जो अपने कार्यों को छोड़कर दूसरों के कार्यों को पूर्ण करने में लगा रहता है , जो मित्रों के साथ असत्य आचरण करता है , वही मूर्ख कहलाता है।
अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.३।।
जो बुरे व्यक्त्तियों और बुरे वस्तुओं को चाहता है और अच्छी वस्तुओं और अच्छे लोगों को छोड़ देता है और जो अपने से बलशाली के साथ शत्रुता रखता है , उसे पंडित लोग मुर्ख कहते है।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्रेष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.४ ।।
जो मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र बना लेता है और मित्रों को हानि पहुँचाता है। जो सदैव दुष्कर्म ही करता है ; ऐसा व्यक्त्ति मूर्ख कहलाते हैं।
संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ।।३.३.५।।
हे भरतश्रेष्ठ ! जो व्यक्त्ति अपने कर्मों को व्यर्थ ही फैलाता है , सब जगह संदेह करता है , संशय से घिरा रहता है और शीघ्र होने वाले कामों को भी टाले रहता है और देर लगाता है ; ऐसे लोग मूर्ख कहलाते हैं।
श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि च चर्चति।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.६।।
जो अपने माता -पिता का आदर नहीं करता , उनका श्राद्ध नहीं करता है , देवताओं की अराधना नहीं करता है , जिसका अच्छा मित्र नहीं होता है , वह मूर्ख है।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्र्वस्ते विश्र्वसिति मूढचेता नराधमः।।३.३.७।।
जो मूर्ख व्यक्त्ति होता है , वह बिना बुलाए ही पहुँच जाता है , बिना पूछे ही स्वयं बोल देता है और जो विश्र्वासपात्र नहीं है , उन पर भी विश्र्वास कर लेता है।
परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा।
यश्र्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः।।३.३.८।।
जो स्वयं दोषी होकर भी दूसरों पर दोष लगाता है और जो असमर्थ होते हुए भी समर्थ व्यक्त्ति पर व्यर्थ का क्रोध करता है , वह मनुष्य अत्यन्त मूर्ख कहलाता है।
आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।३.३.९।।
जो व्यक्त्ति अपने सामर्थ्य का अनुमान नहीं लगा पाता है और ऐसे कार्यों को पूर्ण करने की चाह रखता है , जो धार्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से कर पाना असंभव होता है। ऐसे व्यक्तियों को पण्डित लोगों ने मूर्खों की उपाधि दी है।
अशिष्यं शस्ति यो राजन्यश्र्च शून्यमुपासते।
कदर्यं भजते यश्र्च तमाहुर्मुढचेतसम्।।३.३.१०।।
जो व्यक्त्ति अनाधिकारी को शिक्षा अर्थात् उपदेश देता है और ऐसे कार्यों को करता है जिसको करने से कोई लाभ अथवा उपयोग नहीं होता है और जो कृपण व्यक्त्ति का सहारा लेता है , उसे मूढ़ चित्त वाला कहा जाता है।