गुरुवार, 24 मार्च 2016

३.८ अकेले

एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्र्चार्थान्न चिन्तयेत्।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात्।।३.८।।

व्यक्त्ति को अकेले स्वादिष्ट पदार्थ नहीं खाना चाहिये। हो सकता है किसी ने उस व्यक्त्ति का अहित करने के उद्देश्य से उस खाने में विष मिला दिया हो।  अकेले ही किसी बात पर निर्णय नहीं लेना चाहिये अर्थात् सामूहिक रूप से निर्णय लेना चाहिये।  कभी भी अकेले रास्ते में नहीं जाना चाहिये और बहुत से लोग सो गये हों तो उनके बीच अकेले नहीं जागना चाहिये।  इससे व्यक्त्ति के अनिष्ट होने की संभावना रहती है।

३.७ योजनायें

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्र्च वध्यते।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः।।३.७।।

जहर और हथियार का प्रभाव सीमित है।  जहर केवल एक को ही मारता है और शस्त्र से भी केवल एक का ही विनाश होता है ; लेकिन राजा की गुप्त योजनाओं और विचारों का समय से पहले पता चलने से उस राजा , प्रजा और पूरे राष्ट्र का विनाश हो जाता है। अतः राजा को अपनी योजनायें छिपाकर रखनी चाहिये।

३.६ बुद्धि

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्त्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राराष्टं सराजकम्।।३.६.१।।

किसी धनुषधारी के द्वारा छोड़ा गया बाण संभव है कि वह उसके शत्रु को मार भी सकता है या नहीं भी मार सकता है।  लेकिन कोई बुद्धिमान व्यक्त्ति जब अपनी बुद्धि का प्रयोग किसी को नष्ट करने के लिये करता है , तो वह अवश्य ही उसका विनाश कर देता है।  फिर चाहे वह राजा या उसका राज्य ही क्यों न हो अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकता है।

एकया द्वे विनिश्र्चित्य त्रींश्र्चतुर्भिर्वशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव।।३.६.२।।     

हे राजन ! अपनी बुद्धि से क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका निश्र्चय करके साम , दाम , दण्ड और भेद से मित्र , शत्रु और उदासीन तीनों को वश में कर लीजिये। पाँचों इन्द्रियों को जीतकर छः गुणों ( संधि , विग्रह , यान , आसन , द्वैधीभाव और आश्रय ) को जानकर सात दुर्गुणों ( स्त्री , जुआ , शिकार , मद्यपान , कठोर वचन , कठोर दण्ड और अन्याय से धन का उपार्जन ) को त्यागकर सुखी हो जाईये। 

३.५ पाप और पापी

एकः पापानि कुरुते फलं भुक्त्ते महाजनः।
भोक्त्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।।३.५।।

पाप तो एक व्यक्त्ति अकेले ही करता है ; परन्तु उसके पाप का मौज बहुत से लोग उड़ाते हैं। जो लोग पाप की कमाई का मौज उड़ाते हैं , वे बच जाते हैं ; क्योंकि पाप करने वाला व्यक्त्ति ही सजा का भागी होता है।

३.४ निर्दयी और क्रूर

एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्र्च शोभनम्।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्य को नृशंसतरस्ततः।।३.४।।

जो व्यक्त्ति उत्तम भोजन को अकेले ही ग्रहण करता है।  अच्छे वस्त्रों को अकेले ही पहनता है।  इन वस्तुओं का प्रयोग अपने लोगों को भी नहीं करने देता है अर्थात् अपनी कोई वस्तु किसी के साथ नहीं बांटता है , उससे अधिक निर्दयी और क्रूर कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है।  

३.३ मुर्ख कौन होता है ?

विदुर उवाच
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अश्रुतश्र्च समुन्नद्धौ दरिद्रश्र्च महामनाः।
अर्थाश्र्चकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।।३.३.१।।

जो व्यक्त्ति विद्वान न होते हुए अभिमान करता ,  निर्धन होते हुए भी बड़े -बड़े स्वप्न देखता है तथा बिना कर्म किये ही धन की अभिलाषा रखता है।  ऐसे मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।

स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्र्च मूढः स उच्चते।।३.३.२।।

जो अपने कार्यों को छोड़कर दूसरों के कार्यों को पूर्ण करने में लगा रहता है , जो मित्रों के साथ असत्य आचरण करता है , वही मूर्ख कहलाता है।

अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.३।।

जो बुरे व्यक्त्तियों और बुरे वस्तुओं को चाहता है और अच्छी वस्तुओं और अच्छे लोगों को छोड़ देता है और जो अपने से बलशाली के साथ शत्रुता रखता है , उसे पंडित लोग मुर्ख कहते है।

अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्रेष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.४ ।।

 जो मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र बना लेता है और मित्रों को हानि पहुँचाता है।  जो सदैव दुष्कर्म ही करता है ; ऐसा व्यक्त्ति मूर्ख कहलाते हैं।

संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ।।३.३.५।।

हे भरतश्रेष्ठ ! जो व्यक्त्ति अपने कर्मों को व्यर्थ ही फैलाता है , सब जगह संदेह करता है , संशय से घिरा रहता है और शीघ्र होने वाले कामों को भी टाले रहता है और देर लगाता है ; ऐसे लोग मूर्ख कहलाते हैं।

श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि च चर्चति।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.६।।

जो अपने माता -पिता का आदर नहीं करता , उनका श्राद्ध नहीं करता है , देवताओं की अराधना नहीं करता है , जिसका अच्छा मित्र नहीं होता है , वह मूर्ख है।

अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्र्वस्ते विश्र्वसिति  मूढचेता नराधमः।।३.३.७।।

जो मूर्ख व्यक्त्ति होता है , वह बिना बुलाए ही पहुँच जाता है , बिना पूछे ही स्वयं बोल देता है और जो विश्र्वासपात्र नहीं है , उन पर भी विश्र्वास कर लेता है।

परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा।
यश्र्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः।।३.३.८।।

जो स्वयं दोषी होकर भी दूसरों पर दोष लगाता है और जो असमर्थ होते हुए भी समर्थ व्यक्त्ति पर व्यर्थ का क्रोध करता है , वह मनुष्य अत्यन्त मूर्ख कहलाता है।

आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।३.३.९।।

जो व्यक्त्ति अपने सामर्थ्य का अनुमान नहीं लगा पाता है और ऐसे कार्यों को पूर्ण करने की चाह रखता है , जो धार्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से कर पाना असंभव होता है।  ऐसे व्यक्तियों को पण्डित लोगों ने मूर्खों की उपाधि दी है।

अशिष्यं शस्ति यो राजन्यश्र्च शून्यमुपासते।
कदर्यं भजते यश्र्च तमाहुर्मुढचेतसम्।।३.३.१०।।

जो व्यक्त्ति अनाधिकारी को शिक्षा अर्थात् उपदेश देता है और ऐसे कार्यों को करता है जिसको करने से कोई लाभ अथवा उपयोग नहीं होता है और जो कृपण व्यक्त्ति का सहारा लेता है , उसे मूढ़ चित्त वाला कहा जाता है।