सोमवार, 21 मार्च 2016

२.२४ शत्रु और साधु

यक्ष उवाच
कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्र्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्र्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः।।२.२४.१।।

सबसे बड़ा शत्रु मनुष्यों का कौंन है ?
सबसे बड़ा रोग कौन - सा  है ?
साधु  किसे कहते हैं ?
असाधु किसको कहा जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुर्लोभो व्याधिरनन्तकः।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः।।२.२४.२।।

पुरुषों का परम शत्रु उनका क्रोध होता है।
मनुष्यों का लालच ही सबसे बड़ा रोग अर्थात् व्याधि है।
साधु वह है , जो समस्त प्राणियों हेतु हितकारी हो।
असाधु वह है , जो निर्दयी हो।

२.२३ जरुरी गुण

यक्ष उवाच
किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्र्च प्रकीर्तितः।
दया च का परा प्रोक्त्ता किं चार्जुवमुदाहृतम्।।२.२३.१।।

हे राजन् ! श्रेष्ठ ज्ञान क्या है ?
शम क्या है ?
श्रेष्ठ दया क्या है ?
आर्जव क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोधः शमश्र्चित्तप्रशान्तता।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता।।२.२३.२।।

उत्तम ज्ञान तत्वों का ज्ञान है।
मन की शांति ही शम है।
सब लोगों का सुख चाहना ही दया है।
समचित्तता अर्थात् समदर्शीपन ही सरलता है।

२.२२ तपस्वी

यक्ष उवाच
तपः किं लक्षणं प्रोक्त्तं को दमश्र्च प्रकीर्तितः।
क्षमा च का परा प्रोक्त्ता का च ह्निः परिकीर्तिता।।२.२२.१।।

तप का लक्षण क्या है ?
दम किसको कहते हैं ?
क्षमा किसे कहते हैं ?
लज्जा किसे कहते हैं ?

युधिष्ठिर उवाच
तपः स्वधर्मवर्तित्वं मनसो दमनं दमः।
क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वं ह्रीरकार्यनिवर्तनम्।।२.२२.२।।

अपने धर्म में स्थित रहना ही तप है।
अपने चित्त को विषयों से रोकना ही दम है।
सर्दी - गर्मी अर्थात् तेजी तुर्षा इत्यादि को सहन करना ही क्षमा कहलाता है।
जो कार्य नहीं करने योग्य है , उन्हें न करना ही लज्जा है।
 

२.२१ श्रेष्ठ

यक्ष उवाच
का दिक्किमुदकं प्रोक्त्तं किमन्नं किं च वै विषम्।
श्राद्धस्य कालमाख्याहि ततः पिब हरस्व च।।२.२१.१।।

दिशाओं में कौन - सी दिशा श्रेष्ठ है ?
जलों में श्रेष्ठ जल कौन - सा  है ?
विषों में प्रभावशाली विष कौन - सा है ?
अन्नों में श्रेष्ठ अन्न कौन - सा है ?
श्राद्ध करने का श्रेष्ठ फल कौन - सा  है ?
हे राजन् ! तुम मेरे इन प्रश्नों का उत्तर देकर जल ग्रहण करो तथा ले भी जाओ।

युधिष्ठिर उवाच
सन्तो दिग्जलमाकाशं गौरन्नं प्रार्थना विषम्।
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः कथं वा यक्ष मन्यसे।।२.२१.२।।

संत लोग उत्तम दिशा अर्थात् शुभमार्ग बताने वाले हैं।
बादल का जल सर्वश्रेष्ठ जल है।
उत्तम अन्न जीवन रूप गौ है।
याचना अर्थात् किसी से कुछ मांगना सबसे प्रभावशाली विष है।
श्राद्ध का उत्तम फल वह है , जब श्रेष्ठ ब्राह्मण मिले।
हे यक्ष! मैं तो ऐसा ही मानता हूँ , आप किस तरह मानते हैं , बताइये ?
 

२.२० मृत समान

यक्ष उवाच
मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत्।
श्राद्धं मृतं कथं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत्।।२.२०.१।।

कौन - सा पुरुष मरे हुए के समान होता है ?
कौन - सा देश मरे हुए की भांति होता है ?
नहीं किया हुआ इस तरह का श्राद्ध कौन - सा होता है ?
मृतक अर्थात् नहीं किया जैसा यज्ञ कौन - सा  है ?

युधिष्ठिर उवाच
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः।।२.२०.२।।

दरिद्र पुरुष मरे हुए की भांति होता है।
बिना राजा वाला देश मरे हुए की भांति होता है।
वेद पढ़ने वाले ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मरे हुए  की भांति होता  है।
दक्षिणा दिये  बिना किया गया यज्ञ मरे  हुए की भांति होता है।

२.१९ मनुष्य गुण

यक्ष उवाच
केनस्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति।।२.१९.१।।

क्या है जिससे व्यक्त्ति आच्छादित अर्थात् ढका रहता है ?
वह क्या है ,जिससे व्यक्त्ति प्रकाशित नहीं होता ?
मनुष्य अपने मित्रों को किस कारणवश छोड़ देता है ?
मनुष्य स्वर्ग में किस कारण नहीं जा पाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
अज्ञानेनावृत्तो लोकस्तमसा न प्रकाशते।
लोभात्त्यजति मित्राणि संगात्स्वर्गं न गच्छति।।२.१९.२।।

मनुष्य अज्ञान से ढका  रहता  है।
तमोगुण से मनुष्य प्रकाशमान् नहीं होता है।
मनुष्य अपने लालच के कारण मित्रों को छोड़ देता है।
कुसंगति के कारण मनुष्य स्वर्ग नहीं जा पाता है।

२.१८ दान

यक्ष उवाच
किमर्थं ब्राह्मणे दानं किमर्थं नटनर्तके।
किमर्थं चैव भृत्येषु किमर्थं चैव राजसु।।२.१८.१।।

ब्राह्मण को दान क्यों दिया जाता है ?
नट नर्तकों हेतु दान क्यों दिया जाता है ?
सेवकों को दान क्यों दिया जाता है ?
राजाओं को दान क्यों दिया जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
धर्मार्थं ब्राह्मणे दानं यशोऽर्थं नटनर्तके।
भृत्येषु भरणार्थं वै भवार्थं चैव राजसु।।२.१८.२।।

धर्म हेतु ब्राह्मणों को दान दिया जाता है।
नट नर्तकों को यश प्राप्त करने हेतु दान दिया जाता है।
सेवकों को दान उन्हें अपने पोषण करने हेतु दिया जाता है।
राजाओं को अपने प्रताप में वृद्धि करने हेतु दान दिया जाता है।

२.१७ त्याग

यक्ष उवाच
किं नु हित्वा न प्रियो भवित किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वार्थवान् भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत्।।२.१७.१।।

ऐसी क्या चीज़ है जिसे त्यागने से मनुष्य सब लोगों का प्रिय होता है ?
किसका त्याग करने से व्यक्त्ति दुःखी नहीं होता ?
किसका त्याग करने सेव्यक्त्ति अर्थवान् होता है ?
किसका त्याग करने से  व्यक्त्ति सुखपूर्वक रहता है ?

युधिष्ठिर उवाच
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति।
कामं हित्वार्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।२.१७.२।।

मनुष्य अपने गर्व (अहंकार) का त्याग करने से सब लोगों का प्रिय होता है।
मनुष्य को क्रोध का त्याग करने से शोक नहीं करना पड़ता है।
मनुष्य अपनी अभिलाषाओं का त्याग कर अर्थवान् हो जाता है।
लालच का त्याग कर मनुष्य सुखी हो जाता है।

२.१६ धर्म और व्यक्त्ति

यक्ष उवाच
कश्र्च धर्मः परो लोके कश्र्च धर्मः सदाफलः।
किं नियम्य न शोचन्ति कैश्र्च सन्धिर्न जीर्यते।।२.१६.१।।

लोक में उत्तम धर्म क्या है ?
सदैव फलदात्री धर्म क्या है ?
किस पर संयम रखकर व्यक्त्ति दुःख का अनुभव नहीं करता ?
किसके संग की गई मित्रता नहीं छूटती ?

युधिष्ठिर उवाच
आनृशंस्यं परो धर्मस्त्रयीधर्मः सदाफलः।
मनो यम्य न शोचन्ति सन्धिः सदिभर्न जीर्यते।।२.१६.२।।

लोकों में उत्तम धर्म सन्यास लेना है।
हमेशा फलदात्री धर्म यज्ञ है।
अपने मन पर संयम रखके व्यक्त्ति चिन्ता नहीं करता है।
सज्जन व्यक्त्तियों के साथ की गयी मित्रता कभी नहीं छूटती।

२.१५ श्रेष्ठ

यक्ष  उवाच
धन्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यात्किमुत्तमम्।
लाभानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्यात्किमुत्तमम्।।२.१५.१।।

धन्य लोगों में अत्यधिक श्रेष्ठ धन्य कौन होता है ?
धनों में श्रेष्ठ धन क्या है ?
लाभ में श्रेष्ठ लाभ क्या है ?
सुखों में श्रेष्ठ सुख  क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
धन्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।
लाभानां श्रेय आरोग्य सुखानां तुष्टिरुत्तमा।।२.१५.२।।

धन्य लोगों में वह मनुष्य श्रेष्ठ धन्य है , जिसमें दूसरों के उपकार करने की चतुराई है।
धनों में विद्या श्रेष्ठ धन होती है।
लाभों में रोग मुक्त्त रहना ही श्रेष्ठ लाभ है।
संतुष्ट रहना ही सुखों में सबसे बड़ा सुख है।