मंगलवार, 24 मई 2016

५.२१ चार प्रकार के कर्म

बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत।
तानि जंघाजघन्यानि भारतप्रत्यवराणि च ।।५.२१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! संसार में कर्म चार प्रकार के होते हैं।  बुद्धि का प्रयोग कर जो काम किये जाते हैं वे उत्तम होते हैं , शक्त्ति का प्रयोग कर किये जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के होते हैं , कपटपूर्वक किये जाने वाले कर्म अधम श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं  और जो कर्म बोझ समझकर यानि जबरदस्ती किये जाते हैं वे महान् अधम श्रेणी के माने जाते हैं।

५.२० संचय

सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।
शूरश्र्च कृतविद्यश्र्च यश्र्च जानाति सेवितुम्।।५.२०।।

शूरवीर , विद्वान् और सेवा धर्म के मर्म को जानने वाला , ये तीन तरह का मनुष्य धरती से सोने के समान सुन्दर पुष्पों का संचय करते हैं।

५.१९ शिक्षा

गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्।
अथ प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः।।५.१९।।

जो मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है , उसको ऐसा करने की शिक्षा देने वाले गुरु कहलाते हैं।  दुष्टता करने वाले शिक्षा देने वाले राजा होते हैं तथा गुप्त पाप करने की शिक्षा देने वाले सूर्य का पुत्र यमराज होता है।

५.१८ दोष

धनेनाधर्मलब्धेन यच्छ्रिद्रमपिधीयते।
असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते।।५.१८।।

जो मनुष्य अधर्म करके प्राप्त किये हुए धन से दोष को छिपाने का प्रयास करते हैं।  वह दोष छिपता नहीं ; अपितु छिपने की जगह नया दोष प्रकट हो जाता है।

५.१७ प्रशंसा

जीर्णमन्नं प्रशंससन्ति भार्यां च गतयौवनाम्।
शूरं विजितसंग्रामं गतपारं तपस्विनम्।।५.१७।।

जो सज्जन पुरुष होते हैं , वह भोजन के पच जाने पर अन्न की , निष्कलंक यौवन बीत जाने पर स्त्री की , युद्ध में विजय प्राप्त कर लेने के बाद वीर की तथा तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर तपस्वी की प्रशंसा करते हैं।

५.१६ सुख

अनसूयुः कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन्सदा।
न कृच्छ्रं महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।५.१६.१।।

जो मनुष्य दूसरों की बुराई नहीं करता , सभी कार्यों को शुद्ध बुद्धि का प्रयोग करके करता है।  ऐसा मनुष्य सदैव शुभ कर्मों को करते हुए महान् सुख प्राप्त करता है तथा सर्वत्र यश की प्राप्ति करता है।

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यः स पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवाप्य धर्मार्थौ शक्रोति सुखमेधितुम्।।५.१६.२।।  

जो मनुष्य विद्वान् लोगों के संग रहता है , उसकी बुद्धि विकसित होती है तथा वही मनुष्य पण्डित कहलाता है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं वह धर्म एवं अर्थ द्वारा अपने सुखों की वृद्धि करते हैं।

५.१५ पाप कर्म और पुण्य कर्म

पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम्।
पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमत्यन्तश्नुते।।५.१५.१।।

पाप कीर्ति वाला (गलत कार्य करने वाला ) मनुष्य पाप करते हुए पापरूप फल को ही प्राप्त करता है तथा पुण्य - कर्म (अच्छा कार्य करने वाला ) मनुष्य पुण्य करते हुए पुण्य रूप फल को ही प्राप्त करता है।  इसलिये मनुष्य को गलत कार्य छोड़कर सदैव अच्छे कार्य करना चाहिये ताकि उसे अच्छे कार्य का फल भी मीठा प्राप्त हो।

तस्मात्पापं न कुर्वीत पुरुषः शंसितव्रतः।
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.२।।

इसलिये प्रशंसा प्राप्त यशवान् मनुष्य को पाप कभी नहीं करना चाहिये ; क्योंकि बार-बार पाप करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः।
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.३।।

जिस मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है , वह निरन्तर पाप कर्म ही करता रहता है।  इसी प्रकार बार - बार  पुण्य कर्म करने से बुद्धि का विकास होता है।

वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः।
पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यस्थानं स्म गच्छति।
तस्मात्पुण्यं निषेवेत पुरुषः सुसमाहितः।।५.१५.४।।

जिस मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है अर्थात् बुद्धि बढ़ती है , वह मनुष्य सदैव पुण्य कर्म करता है।  जिसके कारण वह यश प्राप्त करता है और पुण्य लोक की प्राप्ति करता है। इसलिये मनुष्य को सदैव सावधान होकर पुण्य कर्म करना चाहिये तथा पाप कर्म नहीं करना चाहिये।

५.१४ स्वर्ग प्राप्ति

सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलबलं धनम्।
शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः।।५.१४।।

सच बोलना , विनयशील होना , शास्त्रों का ज्ञान , विद्या , कुलीनता , शालीनता , बल , धन , शूरता - वीरता  तथा चमत्कारपूर्ण तरीके से बातें करना - यह दस स्वर्ग प्राप्ति के साधन हैं अर्थात् व्यक्त्ति को इनका अनुसरण करना चाहिये तभी वह स्वर्ग प्राप्त करेगा।