गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.२१ इन्द्रियाँ

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव।।४.२१.१।।

वशीभूत न होने के कारण सांसारिक विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी तरह कष्ट पाता है , जिस प्रकार सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत होते हैं।

यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्षिणा।
आपदस्तस्य वर्धन्ते शुल्कपक्ष इवोडुराट् ।।४.२१.२।।

जो व्यक्त्ति स्वभाव से अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है उसकी आपत्तियाँ अर्थात् संकट उसी तरह बढ़ता रहता है , जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती रहती हैं।

अविजित्य यथात्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।४.२१.३।।

जो मनुष्य अपने आप पर विजय न  प्राप्त करके अपने मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रिगण को अपने वशीभूत किये बिना ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सभी लोग त्याग देते हैं।

आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्र्च न मोघं विजिगीषते ।।४.२१.४।।

सर्वप्रथम मनुष्य को अपने मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये।  तत्पश्र्चात् यदि वह मनुष्य अपने मंत्रियों एवं शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखता है , तो उसकी इच्छा व्यर्थ नहीं होती , अतः उसे सफलता मिलती है।

वश्येन्द्रियं जितात्मानं घृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ।।४.२१.५।।

जो राजा इन्द्रियों एवं मन को जीतने वाला होता है। अपराधियों के लिए दण्ड निश्र्चित करता है और जो जाँच - परखकर काम करता है , ऐसे धैर्यवान् राजा की लक्ष्मी सदैव सेवा करती है।

रथः शरीरं पुरुषस्य राजन्नात्मा नियतेन्द्रियाण्यस्य चाश्र्वाः।
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्र्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः।।४.२१.६।।

जिस मनुष्य का शरीर रथ के सदृश है , आत्मा सारथी है , एवं इन्द्रियां इस रथ के घोड़े के सदृश है।  इस प्रकार इनको वश  करके धैर्यवान् व्यक्त्ति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है , जिस प्रकार रथ में बैठा हुआ व्यक्त्ति अपने घोड़ों को नियंत्रण में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।

एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ।।४.२१.७।।

जिन पुरुषों की इन्द्रियां वश में नहीं रहतीं , वे पुरुष को उसी प्रकार नष्ट कर देती हैं , जिस प्रकार वश में न किये हुए घोड़े मार्ग में सारथी और रथ को नष्ट कर देते हैं।

अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ।।४.२१.८।।

जो व्यक्त्ति अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रखता है। वह अनर्थ को अर्थ और अर्थ को अनर्थ समझता है। वह अज्ञानी व्यक्त्ति बड़े दुःख को भी सुख मानता है।

धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः ।
श्री प्राणधनादारेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते ।।४.२१.९।।

जो व्यक्त्ति धर्म तथा अर्थ दोनों का परित्याग कर अपनी इन्द्रियों के वश में रहता है।  उस व्यक्त्ति का जल्दी ही धन , वैभव , प्राण , स्त्री सब नष्ट हो जाता है।

अर्धानामीश्र्वरो यः स्यादिन्द्रियणामनीश्र्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्र्वर्यादैश्र्वर्याद् भ्रश्यते हि सः ।।४.२१.१०।।

जिस व्यक्त्ति के पास अपार  धन है लेकिन उसकी इन्द्रियां उसके वश में नहीं हैं , तो उसका ऐश्र्वर्य नष्ट हो जाता है।  अर्थात् जो व्यक्त्ति धन सम्पत्ति पाकर अपने ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं रखता , वह  अपने सभी ऐश्र्वर्यों से हाथ धो बैठता है।

आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः।
आत्मा ह्येवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।४.२१.११।।

प्रत्येक व्यक्त्ति को चाहिये कि वह अपने चित्त , बुद्धि  तथा ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखकर आत्मज्ञान का प्रयास करे ; क्योंकि व्यक्त्ति की आत्मा ही उसके लिये सबसे बड़ी मित्र है और सबसे बड़ी शत्रु भी आत्मा ही है।

यः पञ्चाभ्यन्तरांशत्रूनविजित्य मनोमयान्।
जिगीषति रिपूनन्यान् रिपवोऽभिभवन्ति तम् ।।४.२१.१२।।

जो राजा अपनी इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीते बिना ही अपने दूसरे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है ,  तो शत्रु उसे पराजित कर देते हैं।

दृश्यन्ते हि महात्मानो बध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राजयविभ्रमैः।।४.२१.१३।।

अपनी इन्द्रियों को वश में न करने के कारण बड़े -बड़े साधू भी अपने कर्मों से तथा राजा भोग - विलास के बंधन में फंसे रहते हैं।

निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्चप्रयोजनान्
यो मोहान्न विगृह्णाति तमापद् ग्रसते नरम्।।४.२१.१४।।

शब्द , स्पर्श , रूप , रस  और गंध इन पाँच इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जो व्यक्त्ति मोह के कारण अपने वश में नहीं रखता , वह व्यक्त्ति सदा आपत्तियों से ग्रस्त रहता है।

४.२० ऐश्र्वर्य

ऐश्र्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः।
ऐश्र्वर्यमदमत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।४.२०।। 

वैसे तो शराब पीने का नशा भी नशा ही है।  लेकिन ऐश्र्वर्य अर्थात् धन - सम्पत्ति का जो मद होता है , वह सबसे बुरा होता है ; क्योंकि ऐश्र्वर्य के नशे में चूर व्यक्त्ति का जब तक अहित नहीं होता तब तक वह होश में नहीं आता है।

४.१९ अधम मध्यम उत्तम

अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद्भयम्।
उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात्परं भयम्।।४.१९।। 

अधम श्रेणी के मनुष्यों को अपनी जीविका अर्थात् पेट भरने का साधन न होने का डर रहता है , मध्यम वर्ग के मनुष्यों  को मर जाने का डर रहता है ; लेकिन उत्तम श्रेणी के जो लोग होते हैं , उन्हें अपमानित होने का बहुत डर रहता है ; क्योंकि उन्हें अपना सम्मान सबसे अधिक प्रिय होता है।

४.१८ धनवान और निर्धन

आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम्।
तैलोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ्।।४.१८.१।।

हे भारत श्रेष्ठ ! धनवान लोग का जो भोजन होता है उसमें मांस की अधिकता होती है। मध्यम वर्ग के लोगों के भोजन में गोरस यानि दूध , दही आदि की मात्रा अधिक होती है तथा निम्न वर्ग अर्थात् निर्धन लोगों के भोजन में तेल की अधिकता होती है अर्थात् उनका भोजन अत्यधिक तेल द्वारा बना होता है।

सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा।
क्षुत्स्वादुतां जनयति या चाढ्येषु सुदुर्लभा।।४.१८.२।।

निर्धन लोग हमेशा स्वादिष्ट भोजन खाते हैं ; क्योंकि उनकी भूख भोजन के स्वाद को बढ़ा देती है।  धनवानों के भोजन में उस स्वाद का अभाव होता है। अर्थात् भूख रहने पर भोजन जैसा भी खाया जाएगा , वह स्वादिष्ट ही लगेगा।  भूख न रहने पर अच्छा भोजन भी बिना स्वाद वाला होता है।

प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।
जीर्यत्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणां महीपते।।४.१८.३।।  

संसार में धनवान लोगों को भोजन करने की शक्त्ति नहीं होती , लेकिन निर्धन लोग पेट भरने के लिये काठ अर्थात् लकड़ी भी पचा जाते हैं। तात्पर्य यह है कि गरीब भूख मिटाने के लिये रूखा -सूखा भी खा लेता है।

४.१७ शील

जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जीतम्।।४.१७.१।।

अच्छे वस्त्र धारण करने वाला अपने आकर्षण से सभा पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है।  जिसके पास गाय होती  है , वह मीठे स्वाद को जीत लेता है। सवारी से आने - जाने वाला रास्ते को जीत लेता है लेकिन शीलगुण वाला व्यक्त्ति इन सब पर अपना प्रभुत्व जमा लेता है।

शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ।।४.१७.२।।

मनुष्यों में शील गुण प्रधान है।  जिस व्यक्त्ति का यही गुण खत्म हो जाता है , तो उसका जीवन , लक्ष्मी और भाई - बन्धुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। अर्थात् शीलरहित मनुष्य का अपने परिवार वालों से भी कोई कार्य नहीं बनता है।

४.१६ सज्जन और दुर्जन

असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः क्वचित्कार्ये कदाचन्।
मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।।४.१६.१।।

कभी किसी कार्य में सज्जन लोग दुर्जनों की प्रार्थना करते हैं। सज्जनों द्वारा प्रार्थना कर देने पर वे दुष्ट लोग अपने आप को अवगुणों से युक्त्त होते हुए भी सज्जन समझने लगते हैं।

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः।
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।४.१६.२।।

ज्ञान प्राप्त करने वाले का सहारा सज्जन होते हैं और सज्जनों के भी सहारे गुणवान लोग ही हैं। दुर्जनों का भी कल्याण सज्जनों द्वारा ही होता है लेकिन दुर्जनों द्वारा सज्जनों का कल्याण कभी नहीं हो सकता है।

४.१५ मद

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः।।४.१५।।

एक मद (नशा ) विद्या है , दूसरा मद धन है , तीसरा मद ऊँचा कुल में जन्मा होने का  है।  घमंडी व्यक्त्तियों के लिये यह सब एक मद है लेकिन सज्जनों के लिये ये तीनों दम हैं अर्थात् सज्जन विद्वान् व्यक्त्ति इन सबका अभिमान नहीं करते।

४.१४ कार्य का सिद्ध होना

अकार्यकरणाद् भीतः कर्याणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन मद्येन्न तत्पिबेत्।।४.१४।।

ऐसा कार्य जो न करने योग्य है , उसे करने से तथा जो करने योग्य कार्य है , उसे त्यागने से कार्य सिद्ध होने से पूर्व ही अन्त अर्थात् सलाह के प्रकट हो जाने से डरते रहना चाहिये एवं जिस पेय पदार्थ को पीने से नशा चढ़े ऐसा पेय पदार्थ नहीं पीना चाहिये।

४.१३ ईर्ष्या

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः।।४.१३।।

जो मनुष्य दूसरों के धन , रंग -रूप , बल , कुल , सुख , सौभाग्य एवं सम्मान इत्यादि के कारण उनसे ईर्ष्या का भाव रखता है।  उसके लिये यह ईर्ष्यारूपी रोग है , जो कभी समाप्त नहीं होता।

४.१२ सदाचार

न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणामिति मे मतिः।
अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।४.१२।।

मेरा विचार ऐसा है कि सदाचारहीन मनुष्य का उच्च कुल का होने पर भी मान्य नहीं होता ; क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य आचाररहित हैं लेकिन उसका जन्म ऊँचे कुल में हुआ है तब भी वह सम्मानित नहीं होता तथा जो मनुष्य सदाचारी हैं , उनका जन्म यदि नीच कुल में भी हुआ तब भी वह सम्मानित किया जाता है।

४.११ आप और बलवान

भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।
अथ या सुदुहा राजन्नैव तां वितुदन्त्यपि।।४.११.१।।

जो गाय कठिनाई से दुहने देती है अर्थात् जिससे दूध निकालना कठिन होता है , वह बहुत कष्ट पाती है।  उसे दुहने के दूसरे रास्ते अपनाये जाते  हैं। लेकिन जो आसानी से दूध देती है , उसे कोई भी कष्ट नहीं पहुँचाता है।

यदतप्तं प्रणमति न तत्सन्तापयन्त्यपि।
यच्च स्वयं नतं दारु न तत्सन्नमयन्त्यपि ।।४.११.२।।

जो धातु बिना आग में तपाये ही मुड़ जाती है , उसे कोई भी नहीं तपाता है।  जो लकड़ी स्वयं झुकी हुई होती है।  उसे कोई भी झुकाने का प्रयास नहीं करता है।

एतयोपमया धीरः सन्नमेत बलीयसे।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ।।४.११.३।।

उपरोक्त्त कथन के अनुसार बुद्धिमान पुरुष को अपने से अधिक बलशाली के समक्ष झुक जाना चाहिये।  जो मनुष्य ऐसा करता है , समझो वह देवराज इंद्र को नमस्कार करता है।

४.१० लोगों के गुण

गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः।
चारैः पश्यन्ति राजानश्र्चक्षुभ्र्यामितरे जनाः।।४.१०।।

गौ आदि पशु गंध से , ब्राह्मण लोग अपने ज्ञान से , राजा अपने जासूसों द्वारा तथा दूसरे साधारण मनुष्य अपने नेत्रों से देखा करते हैं।

४.१२ रक्षा

पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मणा वेदबान्धवाः।।४.१२.१।।

पशुओं की रक्षा बादल करते हैं अर्थात् वह बरसकर उनके लिये भोजन पैदा करते हैं।  राजाओं की रक्षा उनके मंत्री करते हैं , स्त्रियों के रक्षक उनके पति होते हैं , और ब्राह्मणों के बांधव वेद हैं ; क्योंकि वेदों का ज्ञान उनका रक्षक होता है। उसी के सहारे वह जीवित रहते हैं।

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।४.१२.२।।

सत्य वचन से धर्म की रक्षा होती है। अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है। नहीं तो व्यक्त्ति सब कुछ भूल जाता है।  साफ - सफाई से सुन्दर रूप की रक्षा होती है तथा सदाचार से कुल की रक्षा होती है।

मानेन रक्ष्यते धान्यमश्र्वान् रक्षत्यनुक्रमः।
अभीक्ष्णदर्शनं गाश्र्च स्त्रियो रक्ष्याः कुचैलतः ।।४.१२.३।।

तौल से खर्च करने से धान्य की रक्षा होती है।  फेरने से घोड़ों की रक्षा होती है।  बार -बार देख -रेख करते रहने से गायों की रक्षा होती है और मैले कपड़ों से स्त्रियों की रक्षा होती है ; क्योंकि कपड़े मैले रहने से उन पर कोई बुरी दृष्टि नहीं डालता है।

४.९ मतलब की बात

अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिजल्पतः।
सर्वतः सारमादद्यादश्मभ्य इव काञ्चनम्।।४.९.१।।

निरर्थक बोलने वाले पागल और बच्चे की बात में यदि कोई मतलब की बात पता चले तो उसे उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिये , जिस प्रकार पत्थरों में से सोना ग्रहण किया जाता है।

सुव्याहृतानि सूक्तानि सुकृतानि ततस्ततः।
सञ्चिन्वनधीर आसीत् शिलाहारी शीलं यथा ।।४.९.२।। 

जिस तरह खेत के कट जाने पर अन्न बीनने वाला एक-एक दाना चुन लेता है , उसी तरह मनुष्यों को अच्छी बातों , सूक्त्तियों तथा सत्कर्मों को संग्रह करना चाहिये।

४.८ राजा और उसका विनाश

यस्मात्त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव।
सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते।।४.८.१।।

जिस तरह शिकारी से हिरन भयभीत रहता है , उसी तरह जिस राजा से उसकी प्रजा डरी हुई रहती है।  वह समुद्र की भांति फैला हुआ राज्य पाकर भी प्रजाजनों द्वारा त्याग दिया जाता है।

पितृ पैतामहं राज्यं प्राप्तवान्स्वेन कर्मणा।
वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ।।४.८.२।।

अन्याय से युक्त्त कार्यों को करने वाले राजा अपने बाप - दादाओं से प्राप्त राज्य को उसी प्रकार नष्ट कर देता है।  जिस प्रकार हवा बादलों को उड़ाकर नष्ट कर देती है।

अथ सन्त्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः।
प्रतिसंवेष्टते भूमिरग्नौ चर्माहित यथा ।।४.८.३।।

जो राजा धर्म का त्यागकर अधर्म का अनुस्ठान करता है , तो उसका राज्य उसी प्रकार नष्ट हो जाता है , जिस प्रकार आग में डाले हुए चमड़े का नाश हो जाता है।

य एव यत्नः क्रियते परराष्ट्रविमर्दने।
स एव यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने।।४.८.४।।

जो प्रयत्न राजा अपने शत्रु का विनाश करने के लिये करता  है।  उसे वही प्रयत्न अपने राज्य की रक्षा करने के लिये भी करना चाहिये।

४.७ प्रजा की प्रसन्नता और राजा का ऐश्र्वर्य

चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुविर्धम् ।
प्रसादयति यो लोकं तं लोकोऽनुप्रसीदति।।४.७.१।।

जो राजा अपनी नेत्र , मन , बोली तथा कर्म इन सबसे प्रजा को प्रसन्न रखता है।  प्रजा ऐसे राजा से ही प्रसन्न रहती है।

धर्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्र्चरितमादितः।
वसुधा वसुसम्पूर्णां वर्धते भूतिवर्धनी।।४.७.२।।

परंपरापूर्वक सज्जनों द्वारा किये गये धर्म के अनुसार कार्य करने वाले राजा का राज्य धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति प्राप्त करता है तथा उसके ऐश्र्वर्य में भी वृद्धि होती है।

धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत्।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ।।४.७.३।।

राजा को धर्म से ही राज्य प्राप्ति करना चाहिये तथा धर्म से ही उस राज्य की सुरक्षा भी करनी चाहिये ; क्योंकि धर्म से जो लक्ष्मी राजा को प्राप्त होती है , उसे न राजा छोड़ती है और न वह लक्ष्मी राजा को छोड़ती है।

४.६ राजा का विनाश

सुपुष्पितः स्यादफलः फलितः स्याददुरारुहः।
अपक्वः पक्वसंकाशो न तु शिर्येत कर्हिचित्।।४.६।।

जिस तरह एक वृक्ष भली प्रकार फूलने पर भी फल से खाली हो , फल युक्त्त रहने पर भी उस पर चढ़ा न जा सके , कच्चा फल होने पर भी पके फल की तरह लगे।  उसी तरह राजा को भी अधिक प्रसन्न होने पर भी लुटाने वाला नहीं होना चाहिये।  यदि अधिक देने वाला हो तो भी पहुंच से बाहर होना चाहिये और कम बलशाली होने पर भी शक्त्तिसम्पन्न की तरह अपने को प्रकट करना चाहिये।  ऐसा करने से उस राजा का विनाश कभी नहीं होता है।

४.५ किसी से कुछ लेना

यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।।४.५.१।।

जिस तरह भौंरा पुष्पों को बिना कष्ट पहुँचाये उनकी रक्षा करते हुए ही उन पुष्पों के शहद को ग्रहण करता है।  उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा को बिना हानि पहुँचाये उनसे धन ले।

पुष्पंपुष्पं चिचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्।
मालाकार इवारामं न यथांगारकारकः ।।४.५.२।।

जैसे बगीचे का माली एक - एक पुष्प तोड़ता है , वृक्षों की जड़ों को नहीं काटता।  उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ग्रहण करना चाहिये।  कोयला बनाने वाले की भांति जड़ नहीं काटनी चाहिये अर्थात् प्रजा को नष्ट नहीं करना चाहिये।

४.४ फल

वनस्पतेरपक्वानि  फलानि प्रचिनोति यः।
स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति।।४.४.१।।

जो मनुष्य वृक्षों से कच्चे फलों को तोड़ लेता है , उसे उन फलों से वास्तविक रस तो मिलता नहीं , बल्कि उन वृक्षों का बीज अवश्य नष्ट हो जाता है।

यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलम्।
फलाद्रसं स लभते बीजाच्चैव फलं पुनः ।।४.४.२।।

जो व्यक्त्ति पेड़ से फल को पकने के बाद तोड़ता है , उसे उस फल का वास्तविक रस भी प्राप्त होता है और बीज से पुनः फल की प्राप्ति भी करता है।

४.३ लोभ और परिणाम

भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो बडिशमायसम्।
लोभभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।४.३.१।।

मछली अच्छी चारे से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभवश पकड़कर खा जाती है।  उससे मिलने वाले परिणामों के बारे में नहीं सोचती है।

यक्ष्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत्तदाद्यं भूमिमिच्छता ।।४.३.२।।

अतः अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुषों को वही वस्तु ग्रहण करनी चाहिये जो उसके योग्य हो।  जो उससे ग्रहण की जा सके , जो ग्रहण करने के बाद पच सके तथा पचने के बाद जो हितकारी भी हो।

४.२ राजा और राज्य

यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये।
कोशे जनपदे दण्डे न स राज्येऽवतिष्ठते।।४.२.१।।

जो राजा अपनी स्थिति , हानि - लाभ , विनाश , धनागार देश और दण्ड आदि के संबंध में नहीं जानता।  ऐसा राजा अपने राज्य पर स्थिर नहीं रह सकता है।

यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति।
युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ।।४.२.२।।

जो राजा उपरोक्त्त कहे गये प्रमाणों को ठीक -ठाक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है।  वही राजा राज्य प्राप्त करता है।

न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम्।
श्रिय ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम्।।४.२.३।।

राजा को चाहिये कि वह राज्य मिल जाने पर किसी से अनुचित व्यवहार न करे।  नहीं तो जिस प्रकार व्यक्त्ति की सुन्दरता को बुढ़ापा नष्ट कर देती है।  उसी प्रकार राजा की उद्दण्डता उसकी सम्पूर्ण लक्ष्मी का विनाश कर देती है।

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्र्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः।।४.२.४।।

जिसके प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं और जिसका क्रोध करना भी व्यर्थ हो ऐसे मनुष्य को प्रजा राजा बनाना उसी प्रकार नहीं चाहती है , जिस प्रकार एक स्त्री किसी नपुंसक को अपनाना नहीं चाहती है।

ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्तितं प्रजाः।।४.२.५।।

जो राजा अपनी प्रजा को सदैव प्रेमपूर्वक दृष्टि  से देखता है।  वह राजा यदि चुपचाप बैठा रहे कुछ न करे तो भी उसकी प्रजा उससे अनुराग रखती है।

४.१ कार्य और कर्म

तथैव योगविहितं यत्तु कर्म न सिध्यति।
उपाययुक्तं मेघावी न तत्र ग्लपयेन्मनः।।४.१.१।।

अच्छे उपायों का प्रयोग करके और सावधानीपूर्वक कार्य करने से भी जिस कार्य में सफलता न मिले उसके लिये मन में ग्लानि नहीं रखनी चाहिये।

अनुबन्धानपेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वति न वेगेन समाचरेत् ।।४.१.२।।

किसी उद्देश्य से करने वाले कर्मों में पहले उद्देश्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। अच्छी प्रकार सोच - विचारकर कार्य का आरंभ करना चाहिये।  जल्दबाजी में कोई कार्य आरंभ नहीं करना चाहिये।

अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकं चैव कर्मणाम्।
उत्थानमात्मनश्र्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ।।४.१.३।।

धैर्यवान पुरुषों को चाहिये कि वह कार्य आरंभ करने से पहले अपने प्रायोजन उसके परिणाम तथा उससे मिलने वाली उन्नति पर विचार कर लें फिर कार्य आरंभ करे अथवा न करें।

किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ।।४.१.४।।

मनुष्य को कर्मों को करने से पहले उसके परिणामों पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि उस कार्य से उसे हानि होगी या लाभ होगा। ऐसा विचार कर तब कार्य आरंभ करना चाहिये।

अनारभ्या भवनत्यर्थाः केचिन्नित्यं तथाऽगताः।
कुतः पुरुषकारो हि भवेद्येषु निरर्थकः।।४.१.५।।

कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य होते हैं , जो प्रतिदिन न मिलने के कारण आरंभ करने योग्य नहीं होते हैं। ऐसे कार्यों के लिये किया गया परिश्रम व्यर्थ चला जाता है।  अतः ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिये।

कांश्र्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्।
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ।।४.१.६।।

जिन कार्यों को करने में प्रयत्न कम करना पड़ता है और फल अधिक प्राप्त होता है।  बुद्धिमान व्यक्त्ति ऐसे कार्यों में बाधा नहीं आने देते और शीघ्र ही उन्हें प्रारंभ कर देते हैं।