बुधवार, 13 जुलाई 2016

६.३ दुःख का अनुभव

यतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते।
निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि।।६.३.१।।

मनुष्य स्वयं को जिन - जिन विषयों से दूर हटाता है , उन - उन विषयों से वह मुक्त्त हो जाता है।  इस तरह यदि मनुष्य सभी प्रकार के विषयों का त्याग कर दे अर्थात् निवृत्त हो जाए तो तनिक भी दुःख का उसे अनुभव नहीं होगा।

न जीयते चानुजिगीषतेन्यान्नवैरकृच्चाप्रतिघातकश्र्च।
निन्दाप्रशंसासु समस्वभावो न शोचते हृष्यति नैवचा यम्  ।।६.३.२।।

जो न तो किसी से जीता जा सकता है एवं जो न ही दूसरों को जीतने की इच्छा करता है , जो न किसी के साथ वैर करता है , न ही दूसरों को कष्ट पहुँचाता है , जो प्रशंसा और निन्दा को एक समान समझता है , वह  न  तो दुःख होने पर दुःखी होता है और न ही सुखी होने पर प्रसन्न होता है।  

६.२ मनुष्य का स्वभाव

यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशसभ्युपैति।।६.२.१।।

जिस तरह वस्त्र को जिस रंग में रंगा जाए , वह वैसे ही रंग का हो जाता है , उसी प्रकार जो मनुष्य सज्जन , दुर्जन , तपस्वी या चोर की शरण में रहता है , वह भी उन्ही के रंग में रंग जाता है अर्थात् वह भी उन्हीं के स्वभाव जैसा हो जाता है।

यादृशैः सन्निविशते यादुशांश्र्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्चव भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ।।६.२.२।।

यह मनुष्य पर निर्भर है कि कैसा बनना चाहता है ; क्योंकि मनुष्य जिन लोगों की संगति में रहता है , जिन लोगों की सेवा करता है तथा स्वयं वह अपनी इच्छानुसार जैसा बनना चाहता है , वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है।