सोमवार, 28 मार्च 2016

३.१७ तीन

त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ्।
कनीयान्मध्यम् श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः।।३.१७.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि होने के लिये उत्तम , मध्यम  तथा अधम ये तीन प्रकार के उपाय वेदवेत्ताओं द्वारा कहे गये हैं। इनमे साम को उत्तम , दाम तथा भेद को मध्यम तथा युद्ध को अधम बताया गया है।

त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रीविधेष्वेव कर्मसु।।३.१७.२।।

हे राजन् ! तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं - उत्तम , मध्यम और अधम।  अतः ये जिस काम के योग्य हों , उन्हें वही काम देना चाहिये।  इससे विदुरजी यह समझाना चाहते हैं कि हे राजन् ! आप उपाय नहीं जानते ; क्योंकि आपने अधम अर्थात् शकुनि आदि मंत्रियों को उत्तम कर्म में लगा दिया है।

त्रय  एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा  सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।।३.१७.३।।

हे राजन् ! स्वामी के रहने पर ये तीन व्यक्त्ति धन के अधिकारी नहीं माने जाते , स्त्री , पुत्र  और दास। इनके पास जो कुछ भी होता है , वह उस स्वामी के ही तो होते हैं। वह उस स्वामी के आज्ञा से ही उस धन के मालिक बन सकते हैं , अपनी इच्छा से नहीं।

हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्र्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।३.१७.४।।

दूसरे के धन को छीनना , दूसरों की स्त्री के साथ दुष्कर्म करना तथा अच्छे मित्र को छोड़ना , ये तीनों ही दोष विनाश का कारण होते हैं।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।३.१७.५।।

मनुष्य की आत्मा को नष्ट करने वाले नरक के तीन द्वार होते हैं - काम , क्रोध  और लालच।  अतः मनुष्य को नरक के द्वार पर ले जाने वाले इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत।
शत्रोश्र्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम्।।३.१७.६।।

वरदान पाना , राज्य प्राप्त करना तथा पुत्र का जन्म होना - ये तीन बातें आनन्ददायी होती है।  शत्रु के कष्ट से  मुक्त्त हो जाने की खुशी इन तीनों के समतुल्य होती है।  अर्थात् शत्रु जितना कष्ट देते हैं।  इनसे मुक्त्ति पाने पर तीनों के बराबर आनन्द प्राप्त होता है।

भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम्।
त्रिनेतांछरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत्।।३.१७.७।।

भक्त्त , सेवक  और मैं आपका ही हूँ , ऐसा कहने वाले इन - तीन  प्रकार के शरणागत व्यक्त्तियों को श्रेष्ठ पुरुषों को विपत्ति आने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये।  

३.१६ दो

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्र्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्र्च प्रदानवान् ।।३.१६.१।।

दो प्रकार के मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त करते हैं।  पहला सामर्थ्य होते हुए भी क्षमाशील व्यक्त्ति और दूसरा धन न होते हुए भी दानी स्वभाव वाला।

न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे  प्रतिपत्तिश्र्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।३.१६.२।।

न्याय से प्राप्त किये गये धन के दो ही दुरुपयोग माने जाते हैं। एक तो अपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता नहीं है उसको देना और सुपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता है , उसे धन न देना।

द्वावम्भसि निवेष्टब्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।।३.१६.३।।

जो धनवान होते हुए भी दान न करे और जो निर्धन होते हुए भी कठोर परिश्रम न करे जिससे उसकी गरीबी दूर हो जाए।  इन दो प्रकार के पुरुषों के गले में भारी पत्थर बांधकर जल में डुबा देना चाहिये।

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिवाड्योगयुक्तश्र्च रणे चाभिमुखो हतः।।३.१६.४।।

ये दो प्रकार के मनुष्य सूर्यमण्डल को भेदकर मोक्ष प्राप्त करते हैं - पहला योगयुक्त्त सन्यासी तथा दूसरा संग्राम में लोहा लेने वाला वीर।  अर्थात् सन्यासी का कार्य योग साधना में लगे रहना है और वीर पुरुष को युद्ध में घबराना नहीं चाहिये।

३.१५ गृहस्थ और सन्यासी

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्र्च निरारम्भः कार्यवांश्र्चैव भिक्षुकः।।३.१५।।

दो ही लोग ऐसे हैं , जो अपने विपरीत कर्मों के कारण शोभा नहीं पाते हैं। उनमें से एक अकर्मण्य गृहस्थ तथा दूसरा कार्यों में लगा सन्यासी।  गृहस्थ यदि आलसी रहेगा तो वह गरीब रह जायेगा और दूसरा सन्यासी यदि कर्मों में लगा रहेगा तो सन्यासी बनने से क्या लाभ।  वह सब कुछ त्यागकर ही तो सन्यासी हुआ है।

३.१४ कांटों के समान

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ।
यश्र्चाधनः कामयाते यश्र्च कुप्यत्यनीश्र्वरह।।३.१४।। 

जो गरीब होकर भी बहुमूल्य वस्तु की कामना करता है और जो कमजोर होते हुए भी क्रोध करता है। ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान हैं अर्थात् ये अपने आप को बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।

३.१३ विश्र्वास

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणौ।
स्त्रियः कामितकामिन्यो लोकः पूजितपूजकः।।३.१३।।

जिस पुरुष को कोई स्त्री चाहती थी उस पुरुष को चाहने वाली स्त्रियां और दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरुष , ये दोनों पर विश्र्वास करने वाले होते हैं।  इनके पास अपनी बुद्धि नहीं होती है।

३.१२ आदर और सम्मान

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते।
अब्रुवन पुरुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयस्तथा।।३.१२।।   

जो पुरुष कठोर वचन नहीं बोलता है दुष्ट पुरुषों का आदर -सत्कार या संगति नहीं करता है।  इन दो कर्मों को करने वाले मनुष्य को ही आदर और सम्मान प्राप्त होता है।

३.११ धरती

द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो विलश्यानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।३.११।।

बिल में सोने वाले जन्तुओं को जिस प्रकार सांप खा जाता है , उसी प्रकार यह धरती भी शत्रु का विरोध न करने वाले राजा तथा अन्य देश में रहने वाले ब्राह्मण इन दोनों को खा जाती है अर्थात् वे दोनों नष्ट हो जाते हैं।