त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ्।
कनीयान्मध्यम् श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः।।३.१७.१।।
हे भरत श्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि होने के लिये उत्तम , मध्यम तथा अधम ये तीन प्रकार के उपाय वेदवेत्ताओं द्वारा कहे गये हैं। इनमे साम को उत्तम , दाम तथा भेद को मध्यम तथा युद्ध को अधम बताया गया है।
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रीविधेष्वेव कर्मसु।।३.१७.२।।
हे राजन् ! तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं - उत्तम , मध्यम और अधम। अतः ये जिस काम के योग्य हों , उन्हें वही काम देना चाहिये। इससे विदुरजी यह समझाना चाहते हैं कि हे राजन् ! आप उपाय नहीं जानते ; क्योंकि आपने अधम अर्थात् शकुनि आदि मंत्रियों को उत्तम कर्म में लगा दिया है।
त्रय एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।।३.१७.३।।
हे राजन् ! स्वामी के रहने पर ये तीन व्यक्त्ति धन के अधिकारी नहीं माने जाते , स्त्री , पुत्र और दास। इनके पास जो कुछ भी होता है , वह उस स्वामी के ही तो होते हैं। वह उस स्वामी के आज्ञा से ही उस धन के मालिक बन सकते हैं , अपनी इच्छा से नहीं।
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्र्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।३.१७.४।।
दूसरे के धन को छीनना , दूसरों की स्त्री के साथ दुष्कर्म करना तथा अच्छे मित्र को छोड़ना , ये तीनों ही दोष विनाश का कारण होते हैं।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।३.१७.५।।
मनुष्य की आत्मा को नष्ट करने वाले नरक के तीन द्वार होते हैं - काम , क्रोध और लालच। अतः मनुष्य को नरक के द्वार पर ले जाने वाले इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत।
शत्रोश्र्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम्।।३.१७.६।।
वरदान पाना , राज्य प्राप्त करना तथा पुत्र का जन्म होना - ये तीन बातें आनन्ददायी होती है। शत्रु के कष्ट से मुक्त्त हो जाने की खुशी इन तीनों के समतुल्य होती है। अर्थात् शत्रु जितना कष्ट देते हैं। इनसे मुक्त्ति पाने पर तीनों के बराबर आनन्द प्राप्त होता है।
भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम्।
त्रिनेतांछरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत्।।३.१७.७।।
भक्त्त , सेवक और मैं आपका ही हूँ , ऐसा कहने वाले इन - तीन प्रकार के शरणागत व्यक्त्तियों को श्रेष्ठ पुरुषों को विपत्ति आने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये।
कनीयान्मध्यम् श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः।।३.१७.१।।
हे भरत श्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि होने के लिये उत्तम , मध्यम तथा अधम ये तीन प्रकार के उपाय वेदवेत्ताओं द्वारा कहे गये हैं। इनमे साम को उत्तम , दाम तथा भेद को मध्यम तथा युद्ध को अधम बताया गया है।
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रीविधेष्वेव कर्मसु।।३.१७.२।।
हे राजन् ! तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं - उत्तम , मध्यम और अधम। अतः ये जिस काम के योग्य हों , उन्हें वही काम देना चाहिये। इससे विदुरजी यह समझाना चाहते हैं कि हे राजन् ! आप उपाय नहीं जानते ; क्योंकि आपने अधम अर्थात् शकुनि आदि मंत्रियों को उत्तम कर्म में लगा दिया है।
त्रय एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।।३.१७.३।।
हे राजन् ! स्वामी के रहने पर ये तीन व्यक्त्ति धन के अधिकारी नहीं माने जाते , स्त्री , पुत्र और दास। इनके पास जो कुछ भी होता है , वह उस स्वामी के ही तो होते हैं। वह उस स्वामी के आज्ञा से ही उस धन के मालिक बन सकते हैं , अपनी इच्छा से नहीं।
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्र्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।३.१७.४।।
दूसरे के धन को छीनना , दूसरों की स्त्री के साथ दुष्कर्म करना तथा अच्छे मित्र को छोड़ना , ये तीनों ही दोष विनाश का कारण होते हैं।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।३.१७.५।।
मनुष्य की आत्मा को नष्ट करने वाले नरक के तीन द्वार होते हैं - काम , क्रोध और लालच। अतः मनुष्य को नरक के द्वार पर ले जाने वाले इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत।
शत्रोश्र्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम्।।३.१७.६।।
वरदान पाना , राज्य प्राप्त करना तथा पुत्र का जन्म होना - ये तीन बातें आनन्ददायी होती है। शत्रु के कष्ट से मुक्त्त हो जाने की खुशी इन तीनों के समतुल्य होती है। अर्थात् शत्रु जितना कष्ट देते हैं। इनसे मुक्त्ति पाने पर तीनों के बराबर आनन्द प्राप्त होता है।
भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम्।
त्रिनेतांछरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत्।।३.१७.७।।
भक्त्त , सेवक और मैं आपका ही हूँ , ऐसा कहने वाले इन - तीन प्रकार के शरणागत व्यक्त्तियों को श्रेष्ठ पुरुषों को विपत्ति आने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये।