रविवार, 20 मार्च 2016

२.१४ मनुष्य

यक्ष उवाच
किंस्विदात्मा मनुष्यस्य किंस्विद्दैवकृतः सखा ।
उपज्जीवनं किंस्विदस्य किंस्विदस्य परायणम् ।।२.१४.१।।

मनुष्य की आत्मा कौन होता है ?
दैव का किया हुआ व्यक्त्ति का मित्र कौन होता है ?
व्यक्त्ति का उपजीवन कौन है ?
मनुष्य का पालनकर्त्ता कौन है ?

 युधिष्ठिर उवाच
पुत्र आत्मा मनुष्यस्य भार्या दैवकृतः सखा।
उपजीवनं च पर्जन्यो दानमस्य परायणम्।।२.१४.१।।

पुत्र ही मनुष्य की आत्मा होता है।
दैव का किया हुआ मनुष्य का मित्र नारी है।
मनुष्य का उपजीवन बादल होता है।
दान ही व्यक्त्ति का पालनकर्त्ता होता है।

२.१३ प्रमुख स्थान

यक्ष उवाच
किंस्विदेकपदं धर्म्यं किंस्विदेकपदं यशः।
किंस्विदेकपदं  स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम्।।२.१३.१।।

धर्म का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
यश का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
स्वर्ग का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
सुख प्राप्त करने का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
दाक्ष्यमेकपदं धर्म्यं दानमेकपदं यशः।
सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम्।।२.१३.२।।

धर्म का मुख्य स्थान दक्षता अर्थात् चतुरता है।
यश प्राप्ति का मुख्य द्वार दान है।
स्वर्ग प्राप्ति का मुख्य द्वार सत्य है।
सुख पाने का मुख्य स्थान शील है।

२.१२ संसार

यक्ष उवाच
किंस्विदेको विचरते जातः को जायते पुनः।
किंस्विद्धिमस्य भैषज्यं किंस्विदावपनं महत्।।२.१२.१।।

इस जगत में अकेला कौन विचरण करता है ?
जन्म लेने के बाद पुनः जन्म कौन लेता है ?
सर्दी की औषधि क्या है ?
सबसे बड़ा क्षेत्र कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
सूर्य एको विचरते चन्द्रमा जायते पुनः।
अग्निर्हिमस्य भैषज्यं भूमिरापवनं महत्।।२.१२.२।।

इस सम्पूर्ण जगत् में सूर्य ही अकेला विचरण करता है।
जन्म लेने के पश्र्चात् चन्द्रमा ही बढ़ता है अर्थात् घटता - बढ़ता है।
सर्दी की औषधि आग है।
बीजारोपण हेतु सबसे विशाल क्षेत्र धरती है।

२.११ धर्म और संसार

यक्ष उवाच
कोऽतिथिः सर्वभूतानां किंस्विद्धर्मं सनातनम्।
अमृतं किंस्विद्राजेन्द्र किंस्वित्सर्वमिदं जगत्।।२.११.१।।

सभी जीवों का मेहमान कौन है ?
प्राचीन काल का सनातन धर्म क्या है ?
अमृत क्या है ?
सम्पूर्ण संसार में कौन फैला हुआ है ?

युधिष्ठिर उवाच
अतिथिः सर्वभूतानामग्निः सोमो गवामृतम्।
सनातनोऽमृतो धर्मो वायुः सर्वमिदं जगत्।।२.११.२।।

सभी जीवों की अतिथि या पूजनीय अग्नि है।
गौ की रक्षा ही सनातन धर्म है।
गौ का दुग्ध ही अमृत है।
सम्पूर्ण संसार में हवा फैली हुई है।

२.१० गृहस्थ

यक्ष उवाच
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः।।१०.१।।

प्रवास में रहने वाले का मित्र कौन होता है ?
गृहस्थ व्यक्त्ति का मित्र कौन है ?
रोगी का मित्र कौन है ?
मृत्यु को प्राप्त होने वाले का मित्र कौन है ?

सार्थं: प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषं मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।।१०.२।।

प्रवास में संग रहने वाला ही मित्र है।
गृहस्थ व्यक्त्ति की मित्र स्त्री है।
रोगी का मित्र औषधि (दवा) है।
मरने वाले का मित्र दान है।

२.९ अनोखा

यक्ष उवाच
किंस्वित्सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति।
कस्यस्विद्धदयं नास्ति किंस्विद्वेगेन वर्धते।।९.१।।

ऐसा कौन है , जो सोए हुए भी नेत्रों को बंद नहीं करता है ?
उत्पन्न होने वाला ऐसा कौन है , जो चलता नहीं ?
किसके हृदय नहीं होता है ?
अत्यधिक तेज गति से वृद्धि करने वाला कौन है ?

युधिष्ठिर उवाच
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति।
अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते।।९.२।।

सोया हुआ मत्स्य अपने नेत्रों को बंद नहीं करता।
जन्म लेने वाला यह ब्रह्माण्ड स्थिर है।
पत्थर का हृदय नहीं होता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि योगी के हृदय में मोह , शोक आदि नहीं होता।
तेज़ गति से बढ़ने वाली नदी होती है। अर्थात् सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त योगी का चित्त नदी के सदृश है।

२.८ सबसे उत्तम

यक्ष उवाच
किं स्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद्वहुतरं तृणात् ।।८.१।।

पृथ्वी से विशाल कौन होता है ?
आकाश से ऊँचा कौन होता है ?
पवन से अधिक तेज गति वाला कौन है ?
तृण से भी अधिक तुच्छ क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।।८.२।।

माता धरती से भी अत्यधिक विशाल है।
पिता आकाश से भी अधिक उच्च है।
चित्त पवन से भी अधिक तेज गति वाला है।
चिन्ता तृण से भी अधिक तुच्छ एवं निकृष्ट है।
  

२.७ समान प्राणि

यक्ष उवाच
इन्द्रियार्थाननुभवन्बुद्धिमांल्लोकपूजितः।
सम्मतः सर्वभूतानमुच्छ्वसन् को जीवति।।७.१।।

विषयों का उपभोग करने वाला बुद्धिमान कौन होता है ?
लोक द्वारा कौन है , जो पूजा करता है ?
संसार के सभी प्राणियों का प्रिय कौन होता है ?
 श्र्वास न रुकने पर भी मृत समान कौन होता है ?

युधिष्ठिर उवाच
देवतातिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्र्च यः।
न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्वसन्न स जीवति।।७.२।।

ईश्र्वर , घर आये मेहमान तथा सेवक , इन लोगों को तृप्त करने के उपरांत जो विषयों का उपभोग करता है , वही बुद्धिमान कहा जाता है।
जो पितरों को संतुष्ट करता है , लोकों द्वारा वही पूजित होता है अर्थात् उसी का आदर होता है।
जो संसार में समस्त प्राणियों को अपने सदृश देखता है , वही सम्पूर्ण लोगों का प्रिय होता है।
जो मनुष्य , ईश्र्वर , अतिथिगण , भृत्य , पितर , तथा आत्मा - इन पाँचों को संतुष्ट नहीं कर पाता , वह जीवित रहने पर भी मृतक के सदृश होता है।

२.६ श्रेष्ठफल

यक्ष उवाच
किंस्विदावपतां श्रेष्ठं किंस्विन्निर्वपतां वरम्।
किंस्वित्प्रतिष्ठमानानां किंस्वित्प्रसवतां वरम्।।६.१।।

देवताओं को संतुष्ट करने वाले के श्रेष्ठफल क्या है ?
पितरों को संतुष्ट करने वालों का फल क्या है ?
प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों का उत्तम फल क्या है ?
उत्तम संतान की इच्छा रखने वालों का उत्तम फल क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
वर्षाभावपतां श्रेष्ठं बीजं निर्वपतां वरम्।
गावः प्रतिष्ठमानानां पुत्रः प्रसवतां वरः।।६.२।।

देवताओं को संतुष्ट करने वालों हेतु श्रेष्ठ फल वृष्टि है।
पितरों को संतुष्ट करने वालों को बीज अर्थात् क्षेत्र , आरामदायक जीवन , संतति इत्यादि श्रेष्ठ फल है।
प्रतिष्ठा की कामना रखने वालों का श्रेष्ठ फल गाय है।
संतान चाहने वालों का श्रेष्ठ फल पुत्र है।

२.५ यज्ञ

यक्ष उवाच
किमेकं यज्ञियं साम किमेकं यज्ञियं यजुः।
का चैषां वृणुते यज्ञं कां यज्ञो नातिवर्तते।।५.१।।

यज्ञ सम्बन्धी सामवेद क्या है ?
यज्ञ सम्बन्धी यजुर्वेद क्या है ?
वेदों में यज्ञ को कौन स्वीकार करता है ?
यज्ञ का उल्लंघन करने से किसको प्रयोग में नहीं लाते ?

युधिष्ठिर उवाच
प्राणो वै यज्ञियं साम मनो वै यज्ञियं यजुः।
ऋगेका वृणुते यज्ञं यज्ञो नतिवर्तते।।५.२।।

एक प्राण है , जो यज्ञ संबंधी साम है।
मन ही यज्ञ संबंधी यजुर्वेद है।
एक ऋक् ही यज्ञ को स्वीकारता है।
यज्ञ ही उसको उल्लंघन करके प्रयोग में नहीं लाते हैं।



२.४ क्षत्रिय

यक्ष उवाच
किं क्षत्रियाणां देवत्वं कश्र्च धर्मः सतामिव।
कश्र्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव।।४.१।।

क्षत्रियों में देवत्व क्या है ?
उनका श्रेष्ठ धर्म कौन - सा है ?
उनका मानुष भाव क्या है ?
उनका असत् आचरण कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
इष्वणस्तेषां   देवत्वं यज्ञ एषां सतामिव।
भयं वै मानुषो भावः परित्यागोऽसतामिव।।४.२।।

क्षत्रियों का परम धर्म धनुर्विद्या ही है।
यज्ञ करना ही इनका श्रेष्ठ आचरण है।
भय ही उनका मानुष भाव है।
शरण में आए हुए को छोड़ देना ही इनका असत् आचरण है।


 

२.३ ब्राह्मण

यक्ष उवाच
किं ब्राह्मणानां देवत्वं कश्र्च धर्मः सतामिव।
कश्र्चैषां मानुषो भावः किमषामसतामिव।।३.१।।

ब्राह्मणों में देवत्व क्या है ?
उनका श्रेष्ठ धर्म कौन - सा है ?
उनका मानुष भाव क्या है ?
उनका असत् आचरण कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
स्वाध्याय एषां देवत्वं तप एषां सतामिव।
मरणं मानुषो भावः परिवादोऽसतामिव।।३.२।।

वेदों का अध्ययन ब्राह्मणों का देवत्व है।
तप करना ही इनका सच्चा धर्म माना गया है।
मृत्यु को प्राप्त होना ही इनका मानुष भाव है।
बुराई निकालना ही इनका बुरा अर्थात् असत् आचरण है।

२.२ ब्राह्मण

यक्ष उवाच
केनस्विच्छ्रोत्रियो भवति केनस्विद्विन्दते महत्।
केनस्विद्विद्वतीयवान्भवति राजन्केनचबुद्धिमान् ।।२.१।।

क्या करने से ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है?
यह ब्रह्म को किस तरह प्राप्त होता है ?
वह वृत्ति में अन्य लोगों  सदृश किस प्रकार होता है ?
हे राजन् ! मनुष्य बुद्धिमान किस तरह होता है ?

युधिष्ठिर उवाच
श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत्।
वृत्या द्वितीयवान्भवति बुद्धिमान्वृद्धसेवया ।।२.२।।

वेद का अध्ययन करने से ब्राह्म्ण श्रोत्रिय कहा जाता है।
तप करने से ब्रह्म अर्थात्  परम परमात्मा को प्राप्त होता है।
धैर्य धारण करके दूसरों के सदृश होता है।
वृद्धों की सेवा करने से मनुष्य बुद्धिमान होता है।

२.१ सूर्य

यक्ष उवाच
किंस्विदादित्यमुन्नयति के च तस्याभितश्र्चराः।
कश्र्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्र्च प्रतितिष्ठति।।१.१।।

सूर्य को कौन उदय करता है?
इसके चारों ओर कौन है?
इसको अस्त कौन करता है?
यह सूर्य किसमें स्थित है ?

युधिष्ठिर उवाच
ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवस्तस्याभितश्र्चराः।
धर्मश्र्चस्तं नयति च सत्ये च प्रतिष्ठिति।।१.२।। 

राजा युधिष्ठिर ने कहा -

सूर्य के सदृश तेजस्वरूप वाले जीव को वेद उदय करता है। अर्थात् शरीर को अभिमान रूपी अज्ञान से छुड़ाकर वह उसे ब्रह्म स्वरूप करता है।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहते हैं ; क्योंकि शम तथा दम आदि के बिना वेदवेत्ता को भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।

इसको अस्त करने वाला धर्म है। अर्थात् इस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म से प्राप्त किया जा सकता है।

यह सत्य में स्थित है। अर्थात् जो धर्म आत्मा में विद्यमान है , उस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म ही प्राप्त कर सकता है , अर्थात सब में स्थिर जो ब्रह्म है , उसी के कारण आत्मा में प्रकाश विद्यमान रहता है।

सत्य 
यहाँ पर सूर्य सत्य को कहा गया है। मैं चाहता था कि लोग सत्य को सूर्य के रूप में देखे। सत्य ही जीवन देता है।  यह पूरा ब्रह्माण्ड एक माया है जिसको सत्य रूप देता है। सत्य वह है जिसपर मैंने विचार किया क्योंकि उसी का रूप है। आत्मा का कोई रूप नहीं होता। जब उसमे सत्य मिलता है तब उसे रूप प्राप्त होता है। सत्य ही ब्रह्माण्ड है चाहे वह सूक्ष्म हो या विराट।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहता है। सत्य से शम और दम की उत्पत्ति होती है जो सत्य के मूल जीव को चारों ओर से ढके रहते हैं। सत्य से शम और दम को रूप मिलता है। शम और दम ब्रह्माण्ड को चलायमान रखते हैं। अगर सत्य वक्त्ता है तो जीव श्रोता। शम और दम इन दोनों के बीच सेतु का काम करते हैं।

जिसकी उत्पत्ति हुई उसका अंत भी होता है। जब कोई ब्रह्माण्ड धर्म के अनुरूप नहीं चलता तब उसके विनाश का समय समीप आ जाता है। धर्म नियम है। लेकिन नियम धर्म नहीं होता। जब ब्रह्माण्ड नहीं रहेगा तब सत्य का भी अंत हो जाएगा। सत्य धर्म का पुत्र है। धर्म तब भी रहता है जब कुछ नहीं है और तब भी जब सब कुछ है। जो धर्म को नहीं मानता  विनाश निश्र्चित है। जो धर्म के अनुरूप चलता है उसे सत्य प्राप्त होता है , ब्रह्माण्ड मिलता है और एक रूप प्राप्त होता है।  क्योंकि आत्मा का कोई रूप नहीं होता वह अमर है।

सत्य सत्य में स्थित है। जैसे एक कमरा होता है पर एक घर में  बहुत से और कमरे होते हैं उसी प्रकार धर्म भी सत्य का रूप है वह परम सत्य है।  सत्य के चारों ओर सत्य ही स्थित है। पर यह ब्रह्माण्ड रुपी सत्य से भी शूक्ष्म है।

यक्ष और युधिष्ठिर

आने वाले कुछ पोस्ट में मैं धर्मराज युधिष्ठिर और धर्म के बीच हुए वार्तालाप जो प्रश्नो के रूप में हैं उपस्तिथ करुँगा।

एतेन व्यवसायेन तत्तोयं व्यवगाढ़वान्।
गहमानश्र्च तत्तोयमन्तरिक्षात्सशुश्रुवे।।१।।

यक्ष उवाच
अहं बकः शैवालमत्स्यभक्षो नीता मया प्रेतवशं तवानुजाः।
त्वं पञ्चमो भविता राजपुत्र न चेत्प्रश्नान्पृच्छतो व्याकरोषि।।२।।

मा तात साहसं कार्षिर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वातु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च।।३।।

युधिष्ठिर उवाच
रुद्राणां वा वसूनां वा मरुतां वा प्रधानभाक्।
पृच्छामि को भवान्देवो नैतच्छकुनिना कृतम्।।४।।

हिमवान्परियात्रश्र्च विन्ध्यो मलय एव च।
चत्वारः पर्वताः के पातिता भूरितेजसः।।५।।

अतीव ते महत्कर्म कृतं च बलिनां वर।
यान्न देवा न गन्धर्वा नासुराश्र्च न राक्षसाः।।६।।

विषहेरन्महायुद्धे कृतं ते तन्माहाद्भुतम्।
न ते जानामि यत्कार्यं नाभिजानामि कांक्षितम्।।७।।

कौतूहलं महज्जातं साध्वसं चागतं मम्।
येनाऽस्मयुद्विग्नहृदयः समुत्पन्निशिरोज्वरः।।८।।

 यक्ष उवाच
पृच्छामि भगवंस्तस्मात्को भवानिह तिष्ठति।
यक्षोऽहमस्मि भद्रं ते नास्मि पक्षी जलेचरः।।९।।

मयैते निहताः सर्वे भ्रातरस्ते महौजसः। 
ततस्तामशिवा श्रुत्वा वाचं स परुषाक्षराम्।।१०

यक्षस्य ब्रुवतो राजन्नुपक्रम्य तदा स्थितः। 
विरूपाक्षं महाकायं यक्षं तालसमुच्छ्रयम्।।११।।

ज्वलनार्कप्रतीकाशमधृष्यं पर्वतोपमम्। 
वृक्षमाश्रित्य तिष्ठन्तं ददर्श भरतर्षभः।।१२।।