शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

५.३ गलत रास्ते

मद्यापनं कलहं पूगवैरं भार्यापत्योरन्तरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रिपुंसयोर्विवादं वर्ज्यान्याहुर्यश्र्च पन्थाः प्रदुष्टः।।५.३।।

मदिरापान करना , कलह करना , समूह के साथ शत्रुता , पति - पत्नी में विरोध उत्पन्न करना , कुटुम्बजनों में भेद उत्पन्न करना , राजा से ईर्ष्या रखना , स्त्री और पुरुष में आपसी मतभेद करना आदि ये सब गलत रास्ते हैं।  मनुष्यों को इन सबका त्याग कर देना चाहिये।

५.२ गलत निर्णय और असत्य भाषण

या रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्षपराजितः।
यां च भाराभितप्तांगोदुर्विवक्ता स्म तां वसेत्।।५.२.१।।

सौतन के साथ पति के घर में रहने वाली स्त्री , जुए में हारे हुए जुआरी की और बोझा ढोने से थके हुए शरीर वाले व्यक्त्ति की रात्रि में जो दशा होती है , वही दशा गलत न्याय करने वाले को भी होती है।

नगरे प्रतिरुद्धः सन् बहिद्वारे बुभुक्षितः।
अमित्रान्भूयसः पश्येद्यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ।।५.२.२।।

जो गलत निर्णय देता है , वह नगर में बंद होकर भूख से व्याकुल होता हुआ , द्वार के बाहर बहुत से शत्रुओं को देखता है।

पञ्च पश्र्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते।
शतमश्र्वानृते हन्ति सहस्त्रं पृरुषानृते ।।५.२.३।।

पशु के लिये असत्य बोलने वाले पाँच पीढ़ियों को , गौ के लिये असत्य बोलने वाले दस पीढ़ियों की , घोड़े के लिए असत्य बोलने वाले सौ पीढ़ियों को और मनुष्य के लिये असत्य भाषण करने वाले मनुष्य एक हजार पीढ़ियों को नरक में धकेल देते हैं।

हन्ति जातानजातांश्र्च हिण्यार्थेऽनृतं वदन्।
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदेः ।।५.२.४।।  

सोने के लिये असत्य भाषण करने वाला , भूत और भविष्य सभी पीढ़ियों को नरक में धकेल देता है। धरती और नारी के लिये असत्य कहने वाला व्यक्त्ति तो अपना ही विनाश कर डालता है।  इसलिये आप पृथ्वी अथवा नारी के लिये कभी भी असत्य मत बोलना।

५.१ कोमलतपूर्वक व्यवहार

सर्वतीर्थोषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम्।
उभे त्वेते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते।।५.१।।

सब तीर्थों में स्नान तथा सभी प्राणियों के संग कोमलतापूर्वक व्यवहार करना - ये दोनों बातें एक समान है।  लेकिन कोमलतापूर्वक व्यवहार करने का महत्त्व तीर्थों में स्नान से अधिक श्रेष्ठ है।

४.३० बुद्धि और विनाश

यस्मैः देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्।
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति।।४.३०.१।।

देवतागण जिन व्यक्त्तियों को पराजय देते हैं , तो पराजय देने से पहले वह उसकी बुद्धि ही हर लेते हैं। बुद्धि चले जाने के कारण वह व्यक्त्ति नीच कर्मों पर ही अपनी दृष्टि रखता है।

बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते।
अनयो नयसंकाशो हृदयान्नापसर्पति।।४.३०.२।।

जब व्यक्त्ति का विनाश होने वाला होता है , तो उस व्यक्त्ति की बुद्धि मलिन हो जाती है।  फिर उस व्यक्त्ति के हृदय से न्याय की तरह लगने वाली अन्यायपूर्ण बातें भी उसके हृदय से बाहर नहीं निकलती हैं।


४.२९ कटु वचन

वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम्।।४.२९.१।।

वाणी पर पूरा संयम रखना अत्यन्त कठिन माना गया है।  लेकिन विशेष अर्थयुक्त्त तथा चमत्कारिक वाणी भी अधिक प्रयोग नहीं की जा सकती है।

अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते ।।४.२९.२।।

मीठे वचनों में कही गई बात कई प्रकार से कल्याणकारी होती है। लेकिन वही बात यदि कठोर वचनों में बोली जाए तो बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है।

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।।४.२९.३।।

जिस प्रकार कुल्हाड़ी से काटा गया पेड़ फिर हरा -भरा हो जाता है और बाणों से छेदा गया शरीर का घाव भी ठीक हो जाता है।  लेकिन कटु वचन बोलने से जो घाव होता है , वह कभी भी नहीं भरता है।

कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति  शरीरतः।
वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।।४.२९.४।।

बहुत कर्णि , नालीक तथा नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं लेकिन कटुवचनरूपी बाण को निकाला नहीं जा सकता ; क्योंकि वह हृदय के अन्दर धंस जाता है।

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेभ्यः ।।४.२९.५।।

कठोर वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के हृदय पर घात करते हैं , उनसे घायल व्यक्त्ति दिन -रात में फुलता रहता है।  अतः बुद्धिमान व्यक्त्ति को वाणीरूपी कठोर बाणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। 

४.२८ शक्ति

हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम्।
शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमा गुणवतां बलम्।।४.२८।।

दुर्जनों की शक्त्ति हिंसा अर्थात् झगड़ा है।  राजाओं की शक्त्ति उनकी दण्ड देने की प्रवृत्ति है स्त्रियों की शक्त्ति उनकी सेवा भाव है तथा गुणवान लोगों की शक्त्ति क्षमा है।

४.२७ कटु वचन और निन्दा

आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान्।
वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्चते।।४.२७।।

मुर्ख लोग विद्वानों को कठोर बातें बोलकर और उनकी बुराई कर उन्हें दुःख देते हैं। अतः कटु वचन और निन्दा करने वाला व्यक्त्ति सदा पाप का भागी होता है। जो इनको सहकर क्षमा कर देता है , वह पाप से मुक्त्त हो जाता है।

४.२६ दुर्जन और अधम पुरुष

अनसूयार्जवं शौचं सन्तोषं प्रियवादिता।
दमः सत्यमनायांसो न भवन्ति दुरात्मनाम्।।४.२६.१।।

दूसरों के गुणों में दोष न खोजना , कोमल हृदय , पवित्रता , संतोष , मधुर वाणी , इन्द्रियदमन , सत्य बोलना तथा स्थिरता , ये सभी गुण दुर्जनों में कभी नहीं होते हैं।

आत्मज्ञानमनायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
वाक् चैव गुप्ता दानं च नैतान्यन्त्येषु भारत।।४.२६.२।।

हे राजन् ! आत्मज्ञान, स्थिरता , धर्म - परायणता , सहनशीलता , वचन की रक्षा तथा दान आदि ये सभी गुण अधम पुरुषों में नहीं होते हैं।

४.२५ संगत

असंत्यागात्पापकृतामपापांस्तुल्यो  दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात्तस्मात्पापैः सह सन्धिं न कुर्यात्।।४.२५।।

पाप वाले कर्मों में लगे व्यक्त्ति को छोड़ देना चाहिये अर्थात् उनकी संगत नहीं करना चाहिये ; क्योंकि पापियों के संग रहने से अच्छा व्यक्त्ति भी उसी प्रकार दंड का भागी बनता है , जिस प्रकार गीली लकड़ियों के साथ सूखी लकड़ियां मिलकर जल जाती हैं।

४.२४ धर्म तथा अर्थ

समवेक्ष्येह धर्मार्थौ सम्भारान् योऽधिगच्छति ।
स वै सम्भृतसम्भारः सततं सुखमेधते।।४.२४।।

जो व्यक्त्ति इस संसार में धर्म तथा अर्थ दोनों पर भली -भांति विचार कर अपने साधनों को संग्रह करता है , तो वह साधन सामग्री से युक्त्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक रहता है।

४.२३ काम तथा क्रोध

क्षुदाक्षेणैव जालेन झषावपिहितावुरू।
कामश्र्च राजन् क्रोधश्र्च तौ प्रज्ञानं विलुम्पतः।।४.२३।।

हे राजन् ! जिस तरह छोटे - बड़े छिद्रों वाले जल में फँसी दो बड़ी -बड़ी मछलियां उस जाल को काटकर नष्ट कर डालती हैं।  ठीक उसी तरह व्यक्त्ति का काम तथा क्रोध उसके ज्ञान को लुप्त कर देते हैं।

४.२२ व्यक्ति और उसकी आत्मा

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मात्मना जितः।
स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपुः।।४.२२।।

जिस व्यक्त्ति ने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो उसकी आत्मा ही उस व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र है ; क्योंकि आत्मा ही व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र और शत्रु है। अर्थात् जिसने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो वह आत्मा मित्र है। इसके विपरीत जिसने अपनी आत्मा को नहीं जीता , तो वही उसकी सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है।