सोमवार, 23 मई 2016

५.१३ जरूरी बातें

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।५.१३।।

जिस सभा में बड़े - बूढ़े  न हों , वह सभा सभा नहीं।  जो वृद्ध व्यक्त्ति धर्म सम्बन्धी बातें न करें , वह वृद्ध नहीं।  वह धर्म नहीं जिसमें सत्य न हो तथा वह सत्य नहीं जिसमें छल - कपट  हो।

५.१२ धर्म के मार्ग

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः।।५.१२.१।।

यज्ञ करना , वेदाध्ययन , दान , तपस्या , सत्य , क्षमाशीलता , दयालुता और लोभ न होना अर्थात् संतोष - ये आठ धर्म के मार्ग कहे गये हैं।

तत्र पुर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।
उत्तरश्र्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।५.१२.२।।

आठ प्रकार के धर्म के मार्ग होते हैं।  इनमें से पहले चार कर्म - यज्ञ करना , अध्ययन करना , ज्ञान और तप , इन चारों गुणों का पाखण्ड के लिये सेवन किया जा सकता है। लेकिन अंतिम चार कर्मा - सत्य , क्षमा , दया एवं लोभरहित होना , ये चारों गुण महात्माओं के पास ही होते हैं।  अतः जो सज्जन नहीं है उनमें नहीं रह सकते।

५.११ सज्जन के गुण

यज्ञो दानमध्ययनं तपश्र्च चत्वार्येतान्यन्ववेतानि सदिभः।
दमः सत्यमार्जवमानृशंस्य चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः।।५.११।। 

यज्ञ , दान , अध्ययन और तप , ये चार गुण सदैव सज्जनों से सम्बन्ध रखते हैं।  इन्द्रियों का दमन , सत्य , नम्र स्वभाव बनाये रखना और कोमलता , ये चार गुण ऐसे हैं जिनका अनुसरण सज्जन लोग करते हैं।

५.१० व्यक्त्ति की शोभा

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्र्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्त्ति कृतज्ञता च।।५.१०.१।।

बुद्धि , कुलीनता , इन्द्रियों को वश में रखना , शास्त्रों का अध्ययन , पराक्रम , कम बोलना , सामर्थ्य के अनुसार दान करना तथा दूसरों द्वारा किये गये उपकारों को मानना ये आठ गुण व्यक्त्ति की शोभा में वृद्धि करते हैं।

एतान्गुणांस्तात महानुभावानेको गुणः संश्रयते प्रसह्य।
राजा यदा सत्कुरुते मनुष्यं सर्वान् गुणानेष गुणो विभाति।।५.१०.२।।

हे तात् ! एक गुण ऐसा है , जो इन आठों गुणों से भी महत्त्वपूर्ण है।  वह बलपूर्वक इन सब गुणों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है।  वह गुण है - राज सम्मान।  जिस समय राजा किसी व्यक्त्ति का सत्कार करता है , तो राजा का यह एक ही गुण सभी गुणों से बढ़कर शोभायमान होता है।

५.९ लक्ष्मी

श्रीर्मंगलात्प्रभवति प्राग्ल्भ्यात्सम्प्रवर्धते।
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात्प्रतितिष्ठिति।।५.९।।

लक्ष्मी शुभ कर्मों से ही प्राप्त होती है , प्रगल्भता से उसमें वृद्धि होती है , चतुराई से वह अपनी जड़े जमा लेती हैं तथा धैर्य रखने से लक्ष्मी सुरक्षित रहती है।

५.८ नष्ट होना

जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः।।५.८।।

बुढ़ापा सुन्दरता को, आशा धैर्यता को , मृत्यु प्राणों को , निन्दा करने की आदत धर्म आचरण को , क्रोध लक्ष्मी अर्थात् धन को, अधर्म पुरुषों की सेवा अच्छे स्वभाव को, काम भावना लज्जा को नष्ट कर देती है ; लेकिन व्यक्त्ति का घमंड उसका सब कुछ नष्ट कर देता है।