शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

६.१२ बुद्धि तपस्या सेवा योग

बुद्धया भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्।
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति।।६.१२।।

इस जगत् में मनुष्य बुद्धि से डर को दूर कर सकता है , तपस्या के द्वारा महत्त्व को प्राप्त कर सकता है , गुरुजनों की सेवा से ज्ञान तथा योग के द्वारा शक्त्ति प्राप्त कर सकता है।

६.११ इन्द्रियां

चलानि हीमानि षडिन्द्रियाणि तेषां यद्यद्वर्धते यत्र यत्र।
ततस्ततः स्रवते बुद्धिरस्य चिद्रोदकुम्भादिव नित्यमम्भः।।६.११।।  

मनुष्य की पाँचों इन्द्रियां एवं छठा मन बहुत ही चंचल होता है।  इनमें से जो इन्द्रियां जिस -जिस विषय की ओर बढ़ती है , उस - उस  जगह पर मनुष्य की बुद्धि उसी तरह नष्ट हो जाती है , जिस तरह फूटे घड़े से जल टपकता रहता है।   

६.१० धैर्यवान् पुरुष

पुनर्नरो म्रियते जायते च पुनर्नरो हीयते वर्धते च।
पुनर्नरो याचति याच्यते च पुनर्नरः शोचति शोच्यते च।।६.१०.१।।

मनुष्य बार - बार  मरता है  और बार - बार जन्म लेता है , कभी धन - सम्पत्ति बढ़ती है कभी खत्म हो जाती है। कभी वह स्वयं दूसरों से दीनता का प्रदर्शन करता है , तो कभी दूसरे लोग उसके समान दीन बन जाते हैं।  कभी वह दूसरों के लिये दुःखी होता है तथा कभी दूसरे लोग उसके लिये शोक करते हैं।

सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च। 
पर्यायशः सर्वमेते स्पृशन्ति तस्माध्दीरो न च हृष्येन्न शोचेत् ।।६.१०.२।।

सुख - दुःख , उत्पत्ति - विनाश , लाभ - हानि  एवं जीवन - मरण , हर व्यक्त्ति को बारी - बारी से इन स्थितियों से अवगत होना पड़ता है , अतः धैर्यवान् पुरुषों को इन सबके लिये प्रसन्नता एवं दुःख नहीं करना चाहिये।  

६.९ चिन्ता

सन्तापाद्भ्रश्यते रूपं सन्तापाद्भ्रश्यते बलम्।
सन्तापाद्भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद्व्याधिमृच्छति।।६.९.१।।

कष्ट सहने से रूप नष्ट हो जाता है , दुःखी रहने या चिन्ता करने से सामर्थ्य नष्ट हो जाता है , संताप से ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है तथा संताप या चिन्ता करने से पुरुष अनेक रोगों से घिर जाता है।

अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते।
अमित्राश्र्च प्रहृष्यन्ति मा स्म शोके मनः कृथाः।।६.९.२।।

यदि व्यक्त्ति चिन्ता में लगा रहता है , तो उसे मनचाही वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती , बल्कि चिन्ता करने से मनुष्य का शरीर खत्म हो जाता है।  ऐसा होने से उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है , इसलिये शोक नहीं करना चाहिये।

६.८ दुष्ट मनुष्य

चलचित्तमनात्मानमिन्द्रियाणां वशानुगम्।
अर्थाः समभिवर्तन्ते हन्साः शुष्कं सरो यथा।।६.८.१।।

अचानक क्रोध करना एवं बिना कारण प्रसन्न होना , दुष्ट लोगों का स्वभाव होता है।  ऐसे लोग सदैव बादल के समान अस्थिर रहते हैं , जो वायु के जरा से झोंके से इधर से उधर उड़ते रहते हैं।

अकस्मादेव कुप्यन्ति प्रसीदन्त्यनिमित्ततः।
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिपल्वं यथा ।।६.८.२।। 

दुष्ट मनुष्य बादल की तरह अस्थिर होते हैं , वे बिना बात अचानक ही क्रोध करने लगते हैं और बिना कारण ही प्रसन्न हो जाते हैं , जिस प्रकार बादल हवा के जरा सा झोंका से इधर -उधर उड़ते रहते हैं।