मंगलवार, 2 अगस्त 2016

६.७ मित्र

न तन्मित्रं यस्य कोपाद्विभेति यद्वा मित्रं शंकितेनोपचर्यम्।
यस्मिन्मित्रे पितरीवाश्र्वसीत तद्वै मित्रं संगतानीतराणि।।६.७.१।।

वह मित्र नहीं है जिसके क्रोध से भयभीत होना पड़े तथा संक्षिप्त होकर जिसकी सेवा की जाए। सच्चा मित्र वही है जिसके ऊपर पिता के सदृश विश्र्वास की जा सके , दूसरे मित्र तो सङ्गिमात्र होते हैं , सच्चे मित्र नहीं।

यः कश्र्चिदप्यसम्बद्धो मित्रभावेन वर्तते।
स एव बन्धुस्तन्मित्रं सा गतिस्तत्परायणम्।।६.७.२।।

जिस मित्र के साथ पहले से कोई संबंध न हो फिर भी वह मित्रता का आचरण करता है , वही बन्धु एवं मित्र है।  वही मित्र सहारा और आश्रय होता है। अर्थात् वही मित्र हमारा भला चाहने वाला है।

चलचित्तस्य वै पुंसो वृद्धाननुपसेवतः।
पारिप्लवमतेर्नित्यम ध्रुवो मित्रसंग्रहः।।६.७.३।।

जिस व्यक्त्ति का मन चंचल है , वृद्धों के प्रति सेवा भाव न रखता हो तथा बुद्धि स्थिर न रहती हो , ऐसा व्यक्त्ति मित्रों का संग्रह नहीं कर सकता अर्थात् उसे मित्र प्राप्त नहीं होते।

सत्कृताश्र्च कृतार्थाश्र्च मित्राणां न भवन्ति ये।
तान्मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान्नोपभुञ्जते।।६.७.४।।

जो व्यक्त्ति अपने मित्रों से सत्कार पाकर उनके द्वारा कार्य सिद्ध हो जाने पर भी उनके हिट के विषय में नहीं सोचते अर्थात् जो सदैव दूसरों का अहित ही चाहते हैं ऐसे कृतघ्न के मरने पर उनका मांस मांसाहारी पक्षी भी नहीं खाते हैं।

अर्चयेदेव मित्राणि सति वाऽसति वा धने।
नानर्थयन्प्रजानाति मित्राणां सारफल्गुताम् ।।६.७.५।।

किसी व्यक्त्ति के पास चाहे धन हो या धन न हो , लेकिन मित्रों का सत्कार तो उनको करना ही चाहिये एवं मित्रों से कभी भी कुछ मांगकर उनके सार -असार की परीक्षा नहीं लेनी चाहिये।

६.६ चार चीज़े और अतिथ्य

तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन्।।६.६.१।।

सज्जन मनुष्यों के गृह में चटाई या तृण का आसन , धरती , पानी प्रिय एवं सत्य वाणी -इन चार वस्तुओं की कभी कमी नहीं होती।

श्रद्धया परया राजन्नुपनीतानि सत्कृतिम्।
प्रवृत्तानि महाप्राज्ञ धर्मिणां पुण्यकर्मिणाम्।।६.६.२।।

हे महाबुद्धिमान् राजन् ! पुण्य कार्य करने वाले धर्मात्माओं के यहाँ ये चारों वस्तुऐं श्रद्धापूर्वक सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं।