मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

३.३८ कार्य और बाधा

चिकीर्षितं विप्रकृत च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित्।
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्र्चिदर्थः।।३.३८।।

 जिसकी अपनी इच्छा के अनुकूल तथा दूसरों की इच्छा के विरूद्ध कार्य को दूसरे लोग नहीं जान पाते , अपनी बातों को गुप्त रखने और मनचाहे कार्य का सुचारू रूप से संपादन होने के कारण उनके कार्य में बाधा नहीं आ पाती है। 

३.३७ पुरुष और अनर्थ

मितं भुक्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः।।३.३७।।

जो अपने आश्रित लोगों को बांटकर खुद थोड़ा ही भोजन ग्रहण करता है , अत्यधिक परिश्रम करके भी थोड़ा ही विश्राम करता है ,  यदि शत्रु मांगे तो उसे भी धन दे देता है , ऐसे पुरुषों का कभी अनर्थ नहीं होता है अर्थात् उसको सारे अनर्थ छोड़ देते हैं।

३.३६ श्रेष्ठ तथा विद्वान पुरुष

समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथां च।
गुणैर्विशिष्टांश्र्च पुरो दधाति विपश्र्चितस्यस्य नयाः सुनीताः।।३.३६।।

जो अपने समान लोगों के साथ विवाह , मित्रता , व्यवहार और बातचीत करता है , अपने से हीन पुरुषों के साथ संबंध नहीं रखता और गुणों में सदा बढ़ - चढ़े पुरुषों को आगे रखता है , यह श्रेष्ठ तथा विद्वान पुरुषों का आचरण है।