यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशसभ्युपैति।।६.२.१।।
जिस तरह वस्त्र को जिस रंग में रंगा जाए , वह वैसे ही रंग का हो जाता है , उसी प्रकार जो मनुष्य सज्जन , दुर्जन , तपस्वी या चोर की शरण में रहता है , वह भी उन्ही के रंग में रंग जाता है अर्थात् वह भी उन्हीं के स्वभाव जैसा हो जाता है।
यादृशैः सन्निविशते यादुशांश्र्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्चव भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ।।६.२.२।।
यह मनुष्य पर निर्भर है कि कैसा बनना चाहता है ; क्योंकि मनुष्य जिन लोगों की संगति में रहता है , जिन लोगों की सेवा करता है तथा स्वयं वह अपनी इच्छानुसार जैसा बनना चाहता है , वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशसभ्युपैति।।६.२.१।।
जिस तरह वस्त्र को जिस रंग में रंगा जाए , वह वैसे ही रंग का हो जाता है , उसी प्रकार जो मनुष्य सज्जन , दुर्जन , तपस्वी या चोर की शरण में रहता है , वह भी उन्ही के रंग में रंग जाता है अर्थात् वह भी उन्हीं के स्वभाव जैसा हो जाता है।
यादृशैः सन्निविशते यादुशांश्र्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्चव भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ।।६.२.२।।
यह मनुष्य पर निर्भर है कि कैसा बनना चाहता है ; क्योंकि मनुष्य जिन लोगों की संगति में रहता है , जिन लोगों की सेवा करता है तथा स्वयं वह अपनी इच्छानुसार जैसा बनना चाहता है , वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है।
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