एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः।।३.१०.१।।
जो लोग क्षमाशील होते हैं , उनमें एक ही दोष होता है , दूसरा कोई दोष नहीं होता है। वह दोष यह है कि ऐसे व्यक्त्ति को लोग असमर्थ और कमजोर समझने लगते हैं।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।
क्षमगुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।।३.१०.२।।
किन्तु क्षमा को उनका दोष नहीं मानना चाहिये ; क्योंकि क्षमा तो सबसे बड़ा बल है। यह असमर्थ मनुष्यों का गुण है और शक्तिशाली मनुष्यों का आभूषण है।
क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शन्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः।।३.१०.३।।
इस संसार में क्षमा द्वारा सभी लोग वश में हो जाते हैं। जिस व्यक्त्ति के पास क्षमारूपी शक्त्ति होती है , वह व्यक्त्ति सब कुछ प्राप्त कर सकता है। दुष्ट व्यक्त्ति भी उसका अहित नहीं कर सकते हैं।
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान्परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत्।।३.१०.४।।
जिस प्रकार आग किसी ऐसे जगह पर गिरे जहां पर एकमात्र तिनका न हो तो वह अपने आप बुझ जाती है। उसी प्रकार दुष्ट व्यक्त्ति भी किसी क्षमा भाव वाले मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है अर्थात् उनके सामने आने पर अपने आप शान्त हो जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य क्षमाशील नहीं है उनकी आत्मा दोषयुक्त्त हो जाती है।
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा।।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।।३.१०.५।।
केवल धर्म ही महाकल्याणकारी होता है। एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। एक विद्या ही संतोष देने वाली और एकमात्र अहिंसा अर्थात् किसी से झगड़ा न करना ही सुख प्रदान करने वाली होती है।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः।।३.१०.१।।
जो लोग क्षमाशील होते हैं , उनमें एक ही दोष होता है , दूसरा कोई दोष नहीं होता है। वह दोष यह है कि ऐसे व्यक्त्ति को लोग असमर्थ और कमजोर समझने लगते हैं।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।
क्षमगुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।।३.१०.२।।
किन्तु क्षमा को उनका दोष नहीं मानना चाहिये ; क्योंकि क्षमा तो सबसे बड़ा बल है। यह असमर्थ मनुष्यों का गुण है और शक्तिशाली मनुष्यों का आभूषण है।
क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शन्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः।।३.१०.३।।
इस संसार में क्षमा द्वारा सभी लोग वश में हो जाते हैं। जिस व्यक्त्ति के पास क्षमारूपी शक्त्ति होती है , वह व्यक्त्ति सब कुछ प्राप्त कर सकता है। दुष्ट व्यक्त्ति भी उसका अहित नहीं कर सकते हैं।
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान्परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत्।।३.१०.४।।
जिस प्रकार आग किसी ऐसे जगह पर गिरे जहां पर एकमात्र तिनका न हो तो वह अपने आप बुझ जाती है। उसी प्रकार दुष्ट व्यक्त्ति भी किसी क्षमा भाव वाले मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है अर्थात् उनके सामने आने पर अपने आप शान्त हो जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य क्षमाशील नहीं है उनकी आत्मा दोषयुक्त्त हो जाती है।
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा।।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।।३.१०.५।।
केवल धर्म ही महाकल्याणकारी होता है। एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है। एक विद्या ही संतोष देने वाली और एकमात्र अहिंसा अर्थात् किसी से झगड़ा न करना ही सुख प्रदान करने वाली होती है।
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