मितं भुक्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः।।३.३७।।
जो अपने आश्रित लोगों को बांटकर खुद थोड़ा ही भोजन ग्रहण करता है , अत्यधिक परिश्रम करके भी थोड़ा ही विश्राम करता है , यदि शत्रु मांगे तो उसे भी धन दे देता है , ऐसे पुरुषों का कभी अनर्थ नहीं होता है अर्थात् उसको सारे अनर्थ छोड़ देते हैं।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः।।३.३७।।
जो अपने आश्रित लोगों को बांटकर खुद थोड़ा ही भोजन ग्रहण करता है , अत्यधिक परिश्रम करके भी थोड़ा ही विश्राम करता है , यदि शत्रु मांगे तो उसे भी धन दे देता है , ऐसे पुरुषों का कभी अनर्थ नहीं होता है अर्थात् उसको सारे अनर्थ छोड़ देते हैं।
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