मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

३.३७ पुरुष और अनर्थ

मितं भुक्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः।।३.३७।।

जो अपने आश्रित लोगों को बांटकर खुद थोड़ा ही भोजन ग्रहण करता है , अत्यधिक परिश्रम करके भी थोड़ा ही विश्राम करता है ,  यदि शत्रु मांगे तो उसे भी धन दे देता है , ऐसे पुरुषों का कभी अनर्थ नहीं होता है अर्थात् उसको सारे अनर्थ छोड़ देते हैं।

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