शुक्रवार, 9 जून 2017

६.१८ धर्म

ब्राह्मणेषु च ये शूराः स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च।
वृन्तादिव फलं पक्वं धृतराष्ट्र पतन्ति ते।।६.१८।।

जो व्यक्त्ति ब्राह्मणों , स्त्रियों एवं गायों पर अपनी शक्त्ति का प्रदर्शन कर उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं तो वे अपने धर्म से उसी प्रकार नीचे गिर जाते हैं जिस तरह पेड़ की डाल पर से पका हुआ फल नीचे गिर जाता है। 

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

६.१७ इकठ्ठा

तन्तवोऽप्यायिता नित्यं तनवो बहुलाः समाः।
बहून्बहुत्वादायासान्सहन्तीत्युपमा सताम्।।६.१७.१।।

जिस प्रकार कोमल लतायें जब एक साथ मिल जाती हैं तो बहुत समय तक कई प्रकार के झोंके सहती रहती है, उसी प्रकार सज्जन पुरुष भी कम बलशाली होकर जब कई लोगों के साथ मिल जाते हैं तो वे अधिक बलशाली हो जाते हैं और वे कठिनाइयों को सहने की अधिक क्षमता रखते हैं।

धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च।
धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भारतर्षभ् ।।६.१७.२।। 

हे भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! जिस प्रकार जलती हुई लकड़ियाँ जब अलग - अलग हो जाती हैं तो वे धुआं देने लगती हैं और जब एक साथ मिल जाती हैं तो पुनः जलने लगती हैं।  इसी प्रकार जातिबन्धु भी फूट होने पर कष्ट सहते हैं और जब एक साथ मिल जाते हैं तो सुखपूर्वक रहते हैं।

६.१६ भय

सम्पन्नं गोषु सम्भाव्यं सम्भाव्यं ब्राह्मणे तपः।
सम्भाव्यं चापलं स्त्रीषु सम्भाव्यं ज्ञातितो भयम्।।६.१६।।

जिस प्रकार दूध गायों की सम्पत्ति होती है और उसमें दूध होना चाहिये। ब्राह्मणों में तप होना चाहिये ; क्योंकि तपस्या ब्राह्मणों की सम्पत्ति है। स्त्रियों में चंचलता होनी चाहिये। इसी प्रकार मनुष्यों को अपने जाति -बन्धुओं से भय होना चाहिये।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

६.१५ भेद - भाव

स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना न वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते।
न स्त्रीषु राजन् रतिमाप्नुवन्ति न मागधैः स्तूयमाना न सूतैः।।६.१५.१।।

जिन मनुष्यों में आपस में फूट रहती है ,उन्हें गद्देदार बिछौने  पर सोते हुए भी सुख की नींद नहीं आ सकती। उन्हें नारियों के पास रहकर और सूतमागधों द्वारा हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती।

न वै भिन्ना जातु चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्नुवन्तीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरव प्राप्नुवन्ति न वै भिन्नाः प्रशमं रोचयन्ति।।६.१५.२।।

जो मनुष्य आपस में भेद - भाव रखते हैं , वह कभी - भी धर्म का आचरण नहीं करते।  इतना ही नहीं उन्हें न कभी सुख प्राप्त होता है और न ही गौरव की प्राप्ति होती है।  शांतिपूर्वक बोले हुए वचन भी ऐसे मनुष्यों को अच्छे नहीं लगते।

न वै तेषां स्वदते पथ्यमुक्त्तं योगक्षेमं कल्पते नैव तेषाम्।
भिन्नानां वै मनुजेन्द्र परायणं न विद्यते किञ्चिदन्यद्विनाशात्।।६.१५.३।।

ऐसे मनुष्यों को उनके हिट सम्बन्धी वचन भी बोले जाए तो अच्छे नहीं लगते।  इसी प्रकार उनका कल्याण भी नहीं हो पाता। इसलिये जो मनुष्य आपस में भेद - भाव रखते हैं और उनका विनाश के अतिरिक्त्त और कोई गति नहीं है।

६.१४ सुख की वृद्धि

स्वधीतस्य सुयुद्धस्य सुकृतस्य च कर्मणः।
तपसश्र्च सुतप्तस्य तस्यान्ते सुखमेधते।।६.१४।।

जो मनुष्य अच्छे तरह से अध्ययन अर्थात् ज्ञान प्राप्त करता है। न्याय के अनुसार युद्ध पुण्यकर्म तथा अच्छी तरह से तपस्या करता है , तो उसके जीवन में अन्त में सुख की वृद्धि होती है।

बुधवार, 11 जनवरी 2017

६.१३ मोक्ष

अनाश्रिता दानपुण्यं वेदपुण्यमनाश्रिताः।
रागद्वेषविनिर्मुक्त्ता विचरन्तीह मोक्षिणः।।६.१३।।

जो मनुष्य मोक्ष प्राप्त करने की कामना करता है , वह दान तो करता है लेकिन दान के द्वारा जो पुण्य की प्राप्ति होती है , उससे मिलने वाले स्वर्ग की कामना नहीं करता।  वेदों के ज्ञान और अध्ययन द्वारा प्राप्त होने वाले पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते। इस प्रकार के मनुष्य ही निष्काम भाव से रोग - द्वेष से रहित होकर मनुष्यों का कल्याण करते हैं तथा इस जगत में अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

६.१२ बुद्धि तपस्या सेवा योग

बुद्धया भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्।
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति।।६.१२।।

इस जगत् में मनुष्य बुद्धि से डर को दूर कर सकता है , तपस्या के द्वारा महत्त्व को प्राप्त कर सकता है , गुरुजनों की सेवा से ज्ञान तथा योग के द्वारा शक्त्ति प्राप्त कर सकता है।