गुरुवार, 24 मार्च 2016

३.६ बुद्धि

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्त्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राराष्टं सराजकम्।।३.६.१।।

किसी धनुषधारी के द्वारा छोड़ा गया बाण संभव है कि वह उसके शत्रु को मार भी सकता है या नहीं भी मार सकता है।  लेकिन कोई बुद्धिमान व्यक्त्ति जब अपनी बुद्धि का प्रयोग किसी को नष्ट करने के लिये करता है , तो वह अवश्य ही उसका विनाश कर देता है।  फिर चाहे वह राजा या उसका राज्य ही क्यों न हो अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकता है।

एकया द्वे विनिश्र्चित्य त्रींश्र्चतुर्भिर्वशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव।।३.६.२।।     

हे राजन ! अपनी बुद्धि से क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका निश्र्चय करके साम , दाम , दण्ड और भेद से मित्र , शत्रु और उदासीन तीनों को वश में कर लीजिये। पाँचों इन्द्रियों को जीतकर छः गुणों ( संधि , विग्रह , यान , आसन , द्वैधीभाव और आश्रय ) को जानकर सात दुर्गुणों ( स्त्री , जुआ , शिकार , मद्यपान , कठोर वचन , कठोर दण्ड और अन्याय से धन का उपार्जन ) को त्यागकर सुखी हो जाईये। 

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