शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

६.१० धैर्यवान् पुरुष

पुनर्नरो म्रियते जायते च पुनर्नरो हीयते वर्धते च।
पुनर्नरो याचति याच्यते च पुनर्नरः शोचति शोच्यते च।।६.१०.१।।

मनुष्य बार - बार  मरता है  और बार - बार जन्म लेता है , कभी धन - सम्पत्ति बढ़ती है कभी खत्म हो जाती है। कभी वह स्वयं दूसरों से दीनता का प्रदर्शन करता है , तो कभी दूसरे लोग उसके समान दीन बन जाते हैं।  कभी वह दूसरों के लिये दुःखी होता है तथा कभी दूसरे लोग उसके लिये शोक करते हैं।

सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च। 
पर्यायशः सर्वमेते स्पृशन्ति तस्माध्दीरो न च हृष्येन्न शोचेत् ।।६.१०.२।।

सुख - दुःख , उत्पत्ति - विनाश , लाभ - हानि  एवं जीवन - मरण , हर व्यक्त्ति को बारी - बारी से इन स्थितियों से अवगत होना पड़ता है , अतः धैर्यवान् पुरुषों को इन सबके लिये प्रसन्नता एवं दुःख नहीं करना चाहिये।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें