सोमवार, 23 मई 2016

५.८ नष्ट होना

जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः।।५.८।।

बुढ़ापा सुन्दरता को, आशा धैर्यता को , मृत्यु प्राणों को , निन्दा करने की आदत धर्म आचरण को , क्रोध लक्ष्मी अर्थात् धन को, अधर्म पुरुषों की सेवा अच्छे स्वभाव को, काम भावना लज्जा को नष्ट कर देती है ; लेकिन व्यक्त्ति का घमंड उसका सब कुछ नष्ट कर देता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें