सोमवार, 28 मार्च 2016

३.१६ दो

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्र्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्र्च प्रदानवान् ।।३.१६.१।।

दो प्रकार के मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त करते हैं।  पहला सामर्थ्य होते हुए भी क्षमाशील व्यक्त्ति और दूसरा धन न होते हुए भी दानी स्वभाव वाला।

न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे  प्रतिपत्तिश्र्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।३.१६.२।।

न्याय से प्राप्त किये गये धन के दो ही दुरुपयोग माने जाते हैं। एक तो अपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता नहीं है उसको देना और सुपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता है , उसे धन न देना।

द्वावम्भसि निवेष्टब्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।।३.१६.३।।

जो धनवान होते हुए भी दान न करे और जो निर्धन होते हुए भी कठोर परिश्रम न करे जिससे उसकी गरीबी दूर हो जाए।  इन दो प्रकार के पुरुषों के गले में भारी पत्थर बांधकर जल में डुबा देना चाहिये।

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिवाड्योगयुक्तश्र्च रणे चाभिमुखो हतः।।३.१६.४।।

ये दो प्रकार के मनुष्य सूर्यमण्डल को भेदकर मोक्ष प्राप्त करते हैं - पहला योगयुक्त्त सन्यासी तथा दूसरा संग्राम में लोहा लेने वाला वीर।  अर्थात् सन्यासी का कार्य योग साधना में लगे रहना है और वीर पुरुष को युद्ध में घबराना नहीं चाहिये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें