सोमवार, 28 मार्च 2016

३.१५ गृहस्थ और सन्यासी

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्र्च निरारम्भः कार्यवांश्र्चैव भिक्षुकः।।३.१५।।

दो ही लोग ऐसे हैं , जो अपने विपरीत कर्मों के कारण शोभा नहीं पाते हैं। उनमें से एक अकर्मण्य गृहस्थ तथा दूसरा कार्यों में लगा सन्यासी।  गृहस्थ यदि आलसी रहेगा तो वह गरीब रह जायेगा और दूसरा सन्यासी यदि कर्मों में लगा रहेगा तो सन्यासी बनने से क्या लाभ।  वह सब कुछ त्यागकर ही तो सन्यासी हुआ है।

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