द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ।
यश्र्चाधनः कामयाते यश्र्च कुप्यत्यनीश्र्वरह।।३.१४।।
जो गरीब होकर भी बहुमूल्य वस्तु की कामना करता है और जो कमजोर होते हुए भी क्रोध करता है। ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान हैं अर्थात् ये अपने आप को बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।
यश्र्चाधनः कामयाते यश्र्च कुप्यत्यनीश्र्वरह।।३.१४।।
जो गरीब होकर भी बहुमूल्य वस्तु की कामना करता है और जो कमजोर होते हुए भी क्रोध करता है। ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान हैं अर्थात् ये अपने आप को बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें