मंगलवार, 24 मई 2016

५.१६ सुख

अनसूयुः कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन्सदा।
न कृच्छ्रं महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।५.१६.१।।

जो मनुष्य दूसरों की बुराई नहीं करता , सभी कार्यों को शुद्ध बुद्धि का प्रयोग करके करता है।  ऐसा मनुष्य सदैव शुभ कर्मों को करते हुए महान् सुख प्राप्त करता है तथा सर्वत्र यश की प्राप्ति करता है।

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यः स पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवाप्य धर्मार्थौ शक्रोति सुखमेधितुम्।।५.१६.२।।  

जो मनुष्य विद्वान् लोगों के संग रहता है , उसकी बुद्धि विकसित होती है तथा वही मनुष्य पण्डित कहलाता है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं वह धर्म एवं अर्थ द्वारा अपने सुखों की वृद्धि करते हैं।

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