मंगलवार, 24 मई 2016

५.१८ दोष

धनेनाधर्मलब्धेन यच्छ्रिद्रमपिधीयते।
असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते।।५.१८।।

जो मनुष्य अधर्म करके प्राप्त किये हुए धन से दोष को छिपाने का प्रयास करते हैं।  वह दोष छिपता नहीं ; अपितु छिपने की जगह नया दोष प्रकट हो जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें