धनेनाधर्मलब्धेन यच्छ्रिद्रमपिधीयते।
असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते।।५.१८।।
जो मनुष्य अधर्म करके प्राप्त किये हुए धन से दोष को छिपाने का प्रयास करते हैं। वह दोष छिपता नहीं ; अपितु छिपने की जगह नया दोष प्रकट हो जाता है।
असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते।।५.१८।।
जो मनुष्य अधर्म करके प्राप्त किये हुए धन से दोष को छिपाने का प्रयास करते हैं। वह दोष छिपता नहीं ; अपितु छिपने की जगह नया दोष प्रकट हो जाता है।
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