मंगलवार, 22 मार्च 2016

२.३१ ब्राह्मणत्व

यक्ष उवाच
राजन्कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मण्यं केन भवति प्रबूह्येतत्सुनिश्र्चितम्।।२.३१.१।।

हे राजन् ! ब्राह्मणत्व किससे होता है - कुल से या आचरण से अथवा वेदों का अध्ययन करने से होता है या फिर वेदों का श्रवण करने से ब्राह्मणत्व होता है।  यह निश्र्चित रूप से मुझे बताइये।

युधिष्ठिर उवाच
श्रृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
करणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः।।२.३१.२।।

हे यक्ष ! हे तात ! तो सुनिये , न ही कुल के कारण ब्राह्मणत्व होता है और न ही वेदाध्ययन एवं वेदों को सुनने से ; परन्तु ब्राह्मणत्व का एक कारण स्वधर्माचरण ही है , इसमें कोई संशय नहीं है।

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।२.३१.३।।

मनुष्य को ही स्वधर्माचरण की रक्षा करनी चाहिये एवं ब्राह्मण को तो वशेषतया रक्षा करनी चाहिये ; क्योंकि जिसका चरित्र क्षीण नहीं है एवं जिसका आचरण क्षीण हो गया है , वह क्षीण है।

पठकाः पाठकाश्र्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान्स पण्डितः।।२.३१.४।।

हे यक्ष ! जो ब्राह्मण शास्त्र का अध्ययन कराने और करने वाले होते है एवं जो शास्त्र के शुभचिंतक हैं वे क्रिया से रहित होने से समस्त बुराईयों से युक्त्त एवं मूख्र कहे जाते हैं एवं जो ब्राह्मण क्रियान्वित हैं , वे पंडित कहे जाते हैं।

चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शुद्रादतिरिच्यते।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः।।२.३१.५।।

चारों वेदों का अध्ययन करने वाला ब्राह्मण यदि दुराचरण वाला है , तो वह शुद्र से भी अधिक गिरा हुआ है ; क्योंकि जो अग्निहोत्र करता है एवं इन्द्रियों को वश में रखता है , वह ब्राह्मण माना जाता है।  

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