मंगलवार, 22 मार्च 2016

२.३३ प्रसन्नता , आश्र्चर्य ,मार्ग , वर्तमान

यक्ष उवाच
को मोदते किमाश्र्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका।
वद मे चतुरः प्रश्नान्मृता जीवन्तु बान्धवाः।।२.३३.१।।

कौंन है , जो प्रसन्न रहता है ?
आश्र्चर्य क्या है ?
मार्ग कौंन है ?
वर्तमान कौंन है ?
हे राजन् ! यदि आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो आपके चारों भ्राता पुनः जीवित हो जायेंगें।

युधिष्ठिर उवाच
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे।
अनुणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते।।२.३३.२।।

हे वारिचर (जलचर )।जो व्यक्त्ति अपने गृह में पाँचवें अथवा छठें दिन शाकपात खाकर जीवन चलाता है किन्तु किसी से उधार नहीं लेता एवं प्रवासी अर्थात् परदेस में रहने वाला नहीं है , वही व्यक्त्ति प्रसन्न रहता है। 

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थवरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।।२.३३.३।।

नित्य प्राणी धर्मराज के पास जाते हैं अर्थात् मृत्यु प्राप्त करते हैं जो शेष प्राणी जीवित हैं इनको देखकर भी अपने को स्थिर रहने की अभिलाषा रखते हैं अर्थात् वो सोचते हैं कि वे मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे तो फिर इससे अधिक एवं आश्र्चर्य कौन - सा हो सकता है ? यानि कोई नहीं है।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।।२.३३.४।।

तर्क निर्णय शून्य है यानि तर्क से कोई निर्णय नहीं होता एवं श्रुति परस्पर विरोधी तर्क अर्थवाद वाली है , उसमें भी अंतर है एवं ऋषि भी उनका विश्लेषण अपने ढंग से करते हैं , जो एक -दूसरे के विरूद्ध हैं। अतः धर्म का तत्त्व गुप्तभाव में स्थित है यानि उसे समझ पाना सरल नहीं है।  अतः अपने से बड़े वृद्ध लोग जिस धर्म के रास्ते से चलते आ रहे हैं वही सही रास्ता है।

अस्मिन्महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन।
मासर्तुदर्विपरिघट्टने भूतानि कालः पचतीति वार्ता।।२.३३.५।।

इस विशाल मोहरूपी कड़ाहे को सूर्य एवं आग से रात तथा दिन रूपी लकड़ी से कालरूप ईश्र्वर प्राणियों को इस कड़ाही में पकाता है तथा मोह और ऋतुरूपी कलछी से हिलाता रहता है यही वास्तविकता है।  

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