शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

४.२५ संगत

असंत्यागात्पापकृतामपापांस्तुल्यो  दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात्तस्मात्पापैः सह सन्धिं न कुर्यात्।।४.२५।।

पाप वाले कर्मों में लगे व्यक्त्ति को छोड़ देना चाहिये अर्थात् उनकी संगत नहीं करना चाहिये ; क्योंकि पापियों के संग रहने से अच्छा व्यक्त्ति भी उसी प्रकार दंड का भागी बनता है , जिस प्रकार गीली लकड़ियों के साथ सूखी लकड़ियां मिलकर जल जाती हैं।

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