शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

४.२९ कटु वचन

वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम्।।४.२९.१।।

वाणी पर पूरा संयम रखना अत्यन्त कठिन माना गया है।  लेकिन विशेष अर्थयुक्त्त तथा चमत्कारिक वाणी भी अधिक प्रयोग नहीं की जा सकती है।

अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते ।।४.२९.२।।

मीठे वचनों में कही गई बात कई प्रकार से कल्याणकारी होती है। लेकिन वही बात यदि कठोर वचनों में बोली जाए तो बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है।

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।।४.२९.३।।

जिस प्रकार कुल्हाड़ी से काटा गया पेड़ फिर हरा -भरा हो जाता है और बाणों से छेदा गया शरीर का घाव भी ठीक हो जाता है।  लेकिन कटु वचन बोलने से जो घाव होता है , वह कभी भी नहीं भरता है।

कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति  शरीरतः।
वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।।४.२९.४।।

बहुत कर्णि , नालीक तथा नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं लेकिन कटुवचनरूपी बाण को निकाला नहीं जा सकता ; क्योंकि वह हृदय के अन्दर धंस जाता है।

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेभ्यः ।।४.२९.५।।

कठोर वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के हृदय पर घात करते हैं , उनसे घायल व्यक्त्ति दिन -रात में फुलता रहता है।  अतः बुद्धिमान व्यक्त्ति को वाणीरूपी कठोर बाणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। 

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