बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मात्मना जितः।
स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपुः।।४.२२।।
जिस व्यक्त्ति ने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो उसकी आत्मा ही उस व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र है ; क्योंकि आत्मा ही व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र और शत्रु है। अर्थात् जिसने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो वह आत्मा मित्र है। इसके विपरीत जिसने अपनी आत्मा को नहीं जीता , तो वही उसकी सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है।
स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपुः।।४.२२।।
जिस व्यक्त्ति ने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो उसकी आत्मा ही उस व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र है ; क्योंकि आत्मा ही व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र और शत्रु है। अर्थात् जिसने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो वह आत्मा मित्र है। इसके विपरीत जिसने अपनी आत्मा को नहीं जीता , तो वही उसकी सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है।
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