गुरुवार, 31 मार्च 2016

३.३० प्रशंसनीय मनुष्य

न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारतिः शंसति तत्त्वमेव।
न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः।।३.३०.१।।
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादुग्लभते प्रशंसाम्।।३.३०.२।। 

जो क्रोध या उत्तेजित होकर धर्म , अर्थ  तथा  काम  का  प्रारंभ नहीं करता है , जो पूछे जाने पर सदा सत्य ही बतलाता है , मित्र के लिये लड़ाई पसन्द नहीं करता है , आदर - सत्कार न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता , बुद्धि से काम लेता है , दूसरों के अवगुणों पर ध्यान नहीं देता , सब पर दया करता है , दुर्बल होते हुए किसी की जमानत नहीं देता , आवश्यकता से अधिक नहीं बोलता और झगड़ा सहन कर लेता है। ऐसा मनुष्य सभी का प्रशंसनीय होता है अर्थात् जहां जाता है , वहाँ उसकी प्रशंसा होती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें