गुरुवार, 31 मार्च 2016

३.२७ धीर

सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चिद्युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम्।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः।।३.२७।।

जो किसी कमजोर असहाय का अपमान नहीं करता , हमेशा सावधानी और बुद्धि से शत्रु के साथ व्यवहार करता है , अपने से अधिक शक्त्तिशाली के संग युद्ध नहीं करना चाहता और वक्त्त आने पर अपना पराक्रम प्रदर्शित करता है , वही पुरुष धीर होता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें