गुरुवार, 31 मार्च 2016

३.३२ सर्वश्रेष्ठ पुरुष

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्या:।।३.३२.१।।

जो शांत हो गई शत्रुता की आग को दुबारा नहीं सुलगाता , घमंड नहीं करता है , अपनी हीनता का प्रदर्शन नहीं करता और मैं आपत्ति में हूँ , ऐसा विचार कर अनुचित काम नहीं करता , उस उत्तम आचरण वाले मनुष्य को आर्यजन सर्वश्रेष्ठ पुरुष की उपाधि देते हैं।

न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः।
दत्त्वा न पश्र्चात् कुरुतेऽनु तापं स कथ्यते सत्यपुरुषार्यशीलं।।३.३२.२।।

जो अपने सुखी होने पर अधिक प्रसन्न नहीं होता , दूसरों के दुःखी होने पर आनंदित नहीं होता , दान देने के बाद पछतावा नहीं करता। ऐसा पुरुष सज्जन और श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है।

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