इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव।।४.२१.१।।
वशीभूत न होने के कारण सांसारिक विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी तरह कष्ट पाता है , जिस प्रकार सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत होते हैं।
यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्षिणा।
आपदस्तस्य वर्धन्ते शुल्कपक्ष इवोडुराट् ।।४.२१.२।।
जो व्यक्त्ति स्वभाव से अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है उसकी आपत्तियाँ अर्थात् संकट उसी तरह बढ़ता रहता है , जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती रहती हैं।
अविजित्य यथात्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।४.२१.३।।
जो मनुष्य अपने आप पर विजय न प्राप्त करके अपने मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रिगण को अपने वशीभूत किये बिना ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सभी लोग त्याग देते हैं।
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्र्च न मोघं विजिगीषते ।।४.२१.४।।
सर्वप्रथम मनुष्य को अपने मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। तत्पश्र्चात् यदि वह मनुष्य अपने मंत्रियों एवं शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखता है , तो उसकी इच्छा व्यर्थ नहीं होती , अतः उसे सफलता मिलती है।
वश्येन्द्रियं जितात्मानं घृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ।।४.२१.५।।
जो राजा इन्द्रियों एवं मन को जीतने वाला होता है। अपराधियों के लिए दण्ड निश्र्चित करता है और जो जाँच - परखकर काम करता है , ऐसे धैर्यवान् राजा की लक्ष्मी सदैव सेवा करती है।
रथः शरीरं पुरुषस्य राजन्नात्मा नियतेन्द्रियाण्यस्य चाश्र्वाः।
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्र्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः।।४.२१.६।।
जिस मनुष्य का शरीर रथ के सदृश है , आत्मा सारथी है , एवं इन्द्रियां इस रथ के घोड़े के सदृश है। इस प्रकार इनको वश करके धैर्यवान् व्यक्त्ति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है , जिस प्रकार रथ में बैठा हुआ व्यक्त्ति अपने घोड़ों को नियंत्रण में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।
एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ।।४.२१.७।।
जिन पुरुषों की इन्द्रियां वश में नहीं रहतीं , वे पुरुष को उसी प्रकार नष्ट कर देती हैं , जिस प्रकार वश में न किये हुए घोड़े मार्ग में सारथी और रथ को नष्ट कर देते हैं।
अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ।।४.२१.८।।
जो व्यक्त्ति अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रखता है। वह अनर्थ को अर्थ और अर्थ को अनर्थ समझता है। वह अज्ञानी व्यक्त्ति बड़े दुःख को भी सुख मानता है।
धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः ।
श्री प्राणधनादारेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते ।।४.२१.९।।
जो व्यक्त्ति धर्म तथा अर्थ दोनों का परित्याग कर अपनी इन्द्रियों के वश में रहता है। उस व्यक्त्ति का जल्दी ही धन , वैभव , प्राण , स्त्री सब नष्ट हो जाता है।
अर्धानामीश्र्वरो यः स्यादिन्द्रियणामनीश्र्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्र्वर्यादैश्र्वर्याद् भ्रश्यते हि सः ।।४.२१.१०।।
जिस व्यक्त्ति के पास अपार धन है लेकिन उसकी इन्द्रियां उसके वश में नहीं हैं , तो उसका ऐश्र्वर्य नष्ट हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्त्ति धन सम्पत्ति पाकर अपने ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं रखता , वह अपने सभी ऐश्र्वर्यों से हाथ धो बैठता है।
आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः।
आत्मा ह्येवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।४.२१.११।।
प्रत्येक व्यक्त्ति को चाहिये कि वह अपने चित्त , बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखकर आत्मज्ञान का प्रयास करे ; क्योंकि व्यक्त्ति की आत्मा ही उसके लिये सबसे बड़ी मित्र है और सबसे बड़ी शत्रु भी आत्मा ही है।
यः पञ्चाभ्यन्तरांशत्रूनविजित्य मनोमयान्।
जिगीषति रिपूनन्यान् रिपवोऽभिभवन्ति तम् ।।४.२१.१२।।
जो राजा अपनी इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीते बिना ही अपने दूसरे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , तो शत्रु उसे पराजित कर देते हैं।
दृश्यन्ते हि महात्मानो बध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राजयविभ्रमैः।।४.२१.१३।।
अपनी इन्द्रियों को वश में न करने के कारण बड़े -बड़े साधू भी अपने कर्मों से तथा राजा भोग - विलास के बंधन में फंसे रहते हैं।
निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्चप्रयोजनान्
यो मोहान्न विगृह्णाति तमापद् ग्रसते नरम्।।४.२१.१४।।
शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध इन पाँच इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जो व्यक्त्ति मोह के कारण अपने वश में नहीं रखता , वह व्यक्त्ति सदा आपत्तियों से ग्रस्त रहता है।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव।।४.२१.१।।
वशीभूत न होने के कारण सांसारिक विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी तरह कष्ट पाता है , जिस प्रकार सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत होते हैं।
यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्षिणा।
आपदस्तस्य वर्धन्ते शुल्कपक्ष इवोडुराट् ।।४.२१.२।।
जो व्यक्त्ति स्वभाव से अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है उसकी आपत्तियाँ अर्थात् संकट उसी तरह बढ़ता रहता है , जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती रहती हैं।
अविजित्य यथात्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।४.२१.३।।
जो मनुष्य अपने आप पर विजय न प्राप्त करके अपने मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रिगण को अपने वशीभूत किये बिना ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सभी लोग त्याग देते हैं।
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्र्च न मोघं विजिगीषते ।।४.२१.४।।
सर्वप्रथम मनुष्य को अपने मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। तत्पश्र्चात् यदि वह मनुष्य अपने मंत्रियों एवं शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखता है , तो उसकी इच्छा व्यर्थ नहीं होती , अतः उसे सफलता मिलती है।
वश्येन्द्रियं जितात्मानं घृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ।।४.२१.५।।
जो राजा इन्द्रियों एवं मन को जीतने वाला होता है। अपराधियों के लिए दण्ड निश्र्चित करता है और जो जाँच - परखकर काम करता है , ऐसे धैर्यवान् राजा की लक्ष्मी सदैव सेवा करती है।
रथः शरीरं पुरुषस्य राजन्नात्मा नियतेन्द्रियाण्यस्य चाश्र्वाः।
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्र्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः।।४.२१.६।।
जिस मनुष्य का शरीर रथ के सदृश है , आत्मा सारथी है , एवं इन्द्रियां इस रथ के घोड़े के सदृश है। इस प्रकार इनको वश करके धैर्यवान् व्यक्त्ति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है , जिस प्रकार रथ में बैठा हुआ व्यक्त्ति अपने घोड़ों को नियंत्रण में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।
एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ।।४.२१.७।।
जिन पुरुषों की इन्द्रियां वश में नहीं रहतीं , वे पुरुष को उसी प्रकार नष्ट कर देती हैं , जिस प्रकार वश में न किये हुए घोड़े मार्ग में सारथी और रथ को नष्ट कर देते हैं।
अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ।।४.२१.८।।
जो व्यक्त्ति अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रखता है। वह अनर्थ को अर्थ और अर्थ को अनर्थ समझता है। वह अज्ञानी व्यक्त्ति बड़े दुःख को भी सुख मानता है।
धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः ।
श्री प्राणधनादारेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते ।।४.२१.९।।
जो व्यक्त्ति धर्म तथा अर्थ दोनों का परित्याग कर अपनी इन्द्रियों के वश में रहता है। उस व्यक्त्ति का जल्दी ही धन , वैभव , प्राण , स्त्री सब नष्ट हो जाता है।
अर्धानामीश्र्वरो यः स्यादिन्द्रियणामनीश्र्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्र्वर्यादैश्र्वर्याद् भ्रश्यते हि सः ।।४.२१.१०।।
जिस व्यक्त्ति के पास अपार धन है लेकिन उसकी इन्द्रियां उसके वश में नहीं हैं , तो उसका ऐश्र्वर्य नष्ट हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्त्ति धन सम्पत्ति पाकर अपने ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं रखता , वह अपने सभी ऐश्र्वर्यों से हाथ धो बैठता है।
आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः।
आत्मा ह्येवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।४.२१.११।।
प्रत्येक व्यक्त्ति को चाहिये कि वह अपने चित्त , बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखकर आत्मज्ञान का प्रयास करे ; क्योंकि व्यक्त्ति की आत्मा ही उसके लिये सबसे बड़ी मित्र है और सबसे बड़ी शत्रु भी आत्मा ही है।
यः पञ्चाभ्यन्तरांशत्रूनविजित्य मनोमयान्।
जिगीषति रिपूनन्यान् रिपवोऽभिभवन्ति तम् ।।४.२१.१२।।
जो राजा अपनी इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीते बिना ही अपने दूसरे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , तो शत्रु उसे पराजित कर देते हैं।
दृश्यन्ते हि महात्मानो बध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राजयविभ्रमैः।।४.२१.१३।।
अपनी इन्द्रियों को वश में न करने के कारण बड़े -बड़े साधू भी अपने कर्मों से तथा राजा भोग - विलास के बंधन में फंसे रहते हैं।
निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्चप्रयोजनान्
यो मोहान्न विगृह्णाति तमापद् ग्रसते नरम्।।४.२१.१४।।
शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध इन पाँच इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जो व्यक्त्ति मोह के कारण अपने वश में नहीं रखता , वह व्यक्त्ति सदा आपत्तियों से ग्रस्त रहता है।
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