रविवार, 20 मार्च 2016

२.१ सूर्य

यक्ष उवाच
किंस्विदादित्यमुन्नयति के च तस्याभितश्र्चराः।
कश्र्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्र्च प्रतितिष्ठति।।१.१।।

सूर्य को कौन उदय करता है?
इसके चारों ओर कौन है?
इसको अस्त कौन करता है?
यह सूर्य किसमें स्थित है ?

युधिष्ठिर उवाच
ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवस्तस्याभितश्र्चराः।
धर्मश्र्चस्तं नयति च सत्ये च प्रतिष्ठिति।।१.२।। 

राजा युधिष्ठिर ने कहा -

सूर्य के सदृश तेजस्वरूप वाले जीव को वेद उदय करता है। अर्थात् शरीर को अभिमान रूपी अज्ञान से छुड़ाकर वह उसे ब्रह्म स्वरूप करता है।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहते हैं ; क्योंकि शम तथा दम आदि के बिना वेदवेत्ता को भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।

इसको अस्त करने वाला धर्म है। अर्थात् इस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म से प्राप्त किया जा सकता है।

यह सत्य में स्थित है। अर्थात् जो धर्म आत्मा में विद्यमान है , उस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म ही प्राप्त कर सकता है , अर्थात सब में स्थिर जो ब्रह्म है , उसी के कारण आत्मा में प्रकाश विद्यमान रहता है।

सत्य 
यहाँ पर सूर्य सत्य को कहा गया है। मैं चाहता था कि लोग सत्य को सूर्य के रूप में देखे। सत्य ही जीवन देता है।  यह पूरा ब्रह्माण्ड एक माया है जिसको सत्य रूप देता है। सत्य वह है जिसपर मैंने विचार किया क्योंकि उसी का रूप है। आत्मा का कोई रूप नहीं होता। जब उसमे सत्य मिलता है तब उसे रूप प्राप्त होता है। सत्य ही ब्रह्माण्ड है चाहे वह सूक्ष्म हो या विराट।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहता है। सत्य से शम और दम की उत्पत्ति होती है जो सत्य के मूल जीव को चारों ओर से ढके रहते हैं। सत्य से शम और दम को रूप मिलता है। शम और दम ब्रह्माण्ड को चलायमान रखते हैं। अगर सत्य वक्त्ता है तो जीव श्रोता। शम और दम इन दोनों के बीच सेतु का काम करते हैं।

जिसकी उत्पत्ति हुई उसका अंत भी होता है। जब कोई ब्रह्माण्ड धर्म के अनुरूप नहीं चलता तब उसके विनाश का समय समीप आ जाता है। धर्म नियम है। लेकिन नियम धर्म नहीं होता। जब ब्रह्माण्ड नहीं रहेगा तब सत्य का भी अंत हो जाएगा। सत्य धर्म का पुत्र है। धर्म तब भी रहता है जब कुछ नहीं है और तब भी जब सब कुछ है। जो धर्म को नहीं मानता  विनाश निश्र्चित है। जो धर्म के अनुरूप चलता है उसे सत्य प्राप्त होता है , ब्रह्माण्ड मिलता है और एक रूप प्राप्त होता है।  क्योंकि आत्मा का कोई रूप नहीं होता वह अमर है।

सत्य सत्य में स्थित है। जैसे एक कमरा होता है पर एक घर में  बहुत से और कमरे होते हैं उसी प्रकार धर्म भी सत्य का रूप है वह परम सत्य है।  सत्य के चारों ओर सत्य ही स्थित है। पर यह ब्रह्माण्ड रुपी सत्य से भी शूक्ष्म है।

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