रविवार, 20 मार्च 2016

२.१० गृहस्थ

यक्ष उवाच
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः।।१०.१।।

प्रवास में रहने वाले का मित्र कौन होता है ?
गृहस्थ व्यक्त्ति का मित्र कौन है ?
रोगी का मित्र कौन है ?
मृत्यु को प्राप्त होने वाले का मित्र कौन है ?

सार्थं: प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषं मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।।१०.२।।

प्रवास में संग रहने वाला ही मित्र है।
गृहस्थ व्यक्त्ति की मित्र स्त्री है।
रोगी का मित्र औषधि (दवा) है।
मरने वाले का मित्र दान है।

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