यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये।
कोशे जनपदे दण्डे न स राज्येऽवतिष्ठते।।४.२.१।।
जो राजा अपनी स्थिति , हानि - लाभ , विनाश , धनागार देश और दण्ड आदि के संबंध में नहीं जानता। ऐसा राजा अपने राज्य पर स्थिर नहीं रह सकता है।
यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति।
युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ।।४.२.२।।
जो राजा उपरोक्त्त कहे गये प्रमाणों को ठीक -ठाक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है। वही राजा राज्य प्राप्त करता है।
न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम्।
श्रिय ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम्।।४.२.३।।
राजा को चाहिये कि वह राज्य मिल जाने पर किसी से अनुचित व्यवहार न करे। नहीं तो जिस प्रकार व्यक्त्ति की सुन्दरता को बुढ़ापा नष्ट कर देती है। उसी प्रकार राजा की उद्दण्डता उसकी सम्पूर्ण लक्ष्मी का विनाश कर देती है।
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्र्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः।।४.२.४।।
जिसके प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं और जिसका क्रोध करना भी व्यर्थ हो ऐसे मनुष्य को प्रजा राजा बनाना उसी प्रकार नहीं चाहती है , जिस प्रकार एक स्त्री किसी नपुंसक को अपनाना नहीं चाहती है।
ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्तितं प्रजाः।।४.२.५।।
जो राजा अपनी प्रजा को सदैव प्रेमपूर्वक दृष्टि से देखता है। वह राजा यदि चुपचाप बैठा रहे कुछ न करे तो भी उसकी प्रजा उससे अनुराग रखती है।
कोशे जनपदे दण्डे न स राज्येऽवतिष्ठते।।४.२.१।।
जो राजा अपनी स्थिति , हानि - लाभ , विनाश , धनागार देश और दण्ड आदि के संबंध में नहीं जानता। ऐसा राजा अपने राज्य पर स्थिर नहीं रह सकता है।
यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति।
युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ।।४.२.२।।
जो राजा उपरोक्त्त कहे गये प्रमाणों को ठीक -ठाक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है। वही राजा राज्य प्राप्त करता है।
न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम्।
श्रिय ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम्।।४.२.३।।
राजा को चाहिये कि वह राज्य मिल जाने पर किसी से अनुचित व्यवहार न करे। नहीं तो जिस प्रकार व्यक्त्ति की सुन्दरता को बुढ़ापा नष्ट कर देती है। उसी प्रकार राजा की उद्दण्डता उसकी सम्पूर्ण लक्ष्मी का विनाश कर देती है।
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्र्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः।।४.२.४।।
जिसके प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं और जिसका क्रोध करना भी व्यर्थ हो ऐसे मनुष्य को प्रजा राजा बनाना उसी प्रकार नहीं चाहती है , जिस प्रकार एक स्त्री किसी नपुंसक को अपनाना नहीं चाहती है।
ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्तितं प्रजाः।।४.२.५।।
जो राजा अपनी प्रजा को सदैव प्रेमपूर्वक दृष्टि से देखता है। वह राजा यदि चुपचाप बैठा रहे कुछ न करे तो भी उसकी प्रजा उससे अनुराग रखती है।
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