गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.१३ ईर्ष्या

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः।।४.१३।।

जो मनुष्य दूसरों के धन , रंग -रूप , बल , कुल , सुख , सौभाग्य एवं सम्मान इत्यादि के कारण उनसे ईर्ष्या का भाव रखता है।  उसके लिये यह ईर्ष्यारूपी रोग है , जो कभी समाप्त नहीं होता।

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