गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.१४ कार्य का सिद्ध होना

अकार्यकरणाद् भीतः कर्याणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन मद्येन्न तत्पिबेत्।।४.१४।।

ऐसा कार्य जो न करने योग्य है , उसे करने से तथा जो करने योग्य कार्य है , उसे त्यागने से कार्य सिद्ध होने से पूर्व ही अन्त अर्थात् सलाह के प्रकट हो जाने से डरते रहना चाहिये एवं जिस पेय पदार्थ को पीने से नशा चढ़े ऐसा पेय पदार्थ नहीं पीना चाहिये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें