गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.७ प्रजा की प्रसन्नता और राजा का ऐश्र्वर्य

चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुविर्धम् ।
प्रसादयति यो लोकं तं लोकोऽनुप्रसीदति।।४.७.१।।

जो राजा अपनी नेत्र , मन , बोली तथा कर्म इन सबसे प्रजा को प्रसन्न रखता है।  प्रजा ऐसे राजा से ही प्रसन्न रहती है।

धर्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्र्चरितमादितः।
वसुधा वसुसम्पूर्णां वर्धते भूतिवर्धनी।।४.७.२।।

परंपरापूर्वक सज्जनों द्वारा किये गये धर्म के अनुसार कार्य करने वाले राजा का राज्य धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति प्राप्त करता है तथा उसके ऐश्र्वर्य में भी वृद्धि होती है।

धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत्।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ।।४.७.३।।

राजा को धर्म से ही राज्य प्राप्ति करना चाहिये तथा धर्म से ही उस राज्य की सुरक्षा भी करनी चाहिये ; क्योंकि धर्म से जो लक्ष्मी राजा को प्राप्त होती है , उसे न राजा छोड़ती है और न वह लक्ष्मी राजा को छोड़ती है।

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