गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.१६ सज्जन और दुर्जन

असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः क्वचित्कार्ये कदाचन्।
मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।।४.१६.१।।

कभी किसी कार्य में सज्जन लोग दुर्जनों की प्रार्थना करते हैं। सज्जनों द्वारा प्रार्थना कर देने पर वे दुष्ट लोग अपने आप को अवगुणों से युक्त्त होते हुए भी सज्जन समझने लगते हैं।

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः।
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।४.१६.२।।

ज्ञान प्राप्त करने वाले का सहारा सज्जन होते हैं और सज्जनों के भी सहारे गुणवान लोग ही हैं। दुर्जनों का भी कल्याण सज्जनों द्वारा ही होता है लेकिन दुर्जनों द्वारा सज्जनों का कल्याण कभी नहीं हो सकता है।

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