यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।।४.५.१।।
जिस तरह भौंरा पुष्पों को बिना कष्ट पहुँचाये उनकी रक्षा करते हुए ही उन पुष्पों के शहद को ग्रहण करता है। उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा को बिना हानि पहुँचाये उनसे धन ले।
पुष्पंपुष्पं चिचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्।
मालाकार इवारामं न यथांगारकारकः ।।४.५.२।।
जैसे बगीचे का माली एक - एक पुष्प तोड़ता है , वृक्षों की जड़ों को नहीं काटता। उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ग्रहण करना चाहिये। कोयला बनाने वाले की भांति जड़ नहीं काटनी चाहिये अर्थात् प्रजा को नष्ट नहीं करना चाहिये।
तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।।४.५.१।।
जिस तरह भौंरा पुष्पों को बिना कष्ट पहुँचाये उनकी रक्षा करते हुए ही उन पुष्पों के शहद को ग्रहण करता है। उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा को बिना हानि पहुँचाये उनसे धन ले।
पुष्पंपुष्पं चिचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्।
मालाकार इवारामं न यथांगारकारकः ।।४.५.२।।
जैसे बगीचे का माली एक - एक पुष्प तोड़ता है , वृक्षों की जड़ों को नहीं काटता। उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ग्रहण करना चाहिये। कोयला बनाने वाले की भांति जड़ नहीं काटनी चाहिये अर्थात् प्रजा को नष्ट नहीं करना चाहिये।
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