गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.६ राजा का विनाश

सुपुष्पितः स्यादफलः फलितः स्याददुरारुहः।
अपक्वः पक्वसंकाशो न तु शिर्येत कर्हिचित्।।४.६।।

जिस तरह एक वृक्ष भली प्रकार फूलने पर भी फल से खाली हो , फल युक्त्त रहने पर भी उस पर चढ़ा न जा सके , कच्चा फल होने पर भी पके फल की तरह लगे।  उसी तरह राजा को भी अधिक प्रसन्न होने पर भी लुटाने वाला नहीं होना चाहिये।  यदि अधिक देने वाला हो तो भी पहुंच से बाहर होना चाहिये और कम बलशाली होने पर भी शक्त्तिसम्पन्न की तरह अपने को प्रकट करना चाहिये।  ऐसा करने से उस राजा का विनाश कभी नहीं होता है।

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