तथैव योगविहितं यत्तु कर्म न सिध्यति।
उपाययुक्तं मेघावी न तत्र ग्लपयेन्मनः।।४.१.१।।
अच्छे उपायों का प्रयोग करके और सावधानीपूर्वक कार्य करने से भी जिस कार्य में सफलता न मिले उसके लिये मन में ग्लानि नहीं रखनी चाहिये।
अनुबन्धानपेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वति न वेगेन समाचरेत् ।।४.१.२।।
किसी उद्देश्य से करने वाले कर्मों में पहले उद्देश्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। अच्छी प्रकार सोच - विचारकर कार्य का आरंभ करना चाहिये। जल्दबाजी में कोई कार्य आरंभ नहीं करना चाहिये।
अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकं चैव कर्मणाम्।
उत्थानमात्मनश्र्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ।।४.१.३।।
धैर्यवान पुरुषों को चाहिये कि वह कार्य आरंभ करने से पहले अपने प्रायोजन उसके परिणाम तथा उससे मिलने वाली उन्नति पर विचार कर लें फिर कार्य आरंभ करे अथवा न करें।
किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ।।४.१.४।।
मनुष्य को कर्मों को करने से पहले उसके परिणामों पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि उस कार्य से उसे हानि होगी या लाभ होगा। ऐसा विचार कर तब कार्य आरंभ करना चाहिये।
अनारभ्या भवनत्यर्थाः केचिन्नित्यं तथाऽगताः।
कुतः पुरुषकारो हि भवेद्येषु निरर्थकः।।४.१.५।।
कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य होते हैं , जो प्रतिदिन न मिलने के कारण आरंभ करने योग्य नहीं होते हैं। ऐसे कार्यों के लिये किया गया परिश्रम व्यर्थ चला जाता है। अतः ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिये।
कांश्र्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्।
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ।।४.१.६।।
जिन कार्यों को करने में प्रयत्न कम करना पड़ता है और फल अधिक प्राप्त होता है। बुद्धिमान व्यक्त्ति ऐसे कार्यों में बाधा नहीं आने देते और शीघ्र ही उन्हें प्रारंभ कर देते हैं।
उपाययुक्तं मेघावी न तत्र ग्लपयेन्मनः।।४.१.१।।
अच्छे उपायों का प्रयोग करके और सावधानीपूर्वक कार्य करने से भी जिस कार्य में सफलता न मिले उसके लिये मन में ग्लानि नहीं रखनी चाहिये।
अनुबन्धानपेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वति न वेगेन समाचरेत् ।।४.१.२।।
किसी उद्देश्य से करने वाले कर्मों में पहले उद्देश्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। अच्छी प्रकार सोच - विचारकर कार्य का आरंभ करना चाहिये। जल्दबाजी में कोई कार्य आरंभ नहीं करना चाहिये।
अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकं चैव कर्मणाम्।
उत्थानमात्मनश्र्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ।।४.१.३।।
धैर्यवान पुरुषों को चाहिये कि वह कार्य आरंभ करने से पहले अपने प्रायोजन उसके परिणाम तथा उससे मिलने वाली उन्नति पर विचार कर लें फिर कार्य आरंभ करे अथवा न करें।
किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ।।४.१.४।।
मनुष्य को कर्मों को करने से पहले उसके परिणामों पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि उस कार्य से उसे हानि होगी या लाभ होगा। ऐसा विचार कर तब कार्य आरंभ करना चाहिये।
अनारभ्या भवनत्यर्थाः केचिन्नित्यं तथाऽगताः।
कुतः पुरुषकारो हि भवेद्येषु निरर्थकः।।४.१.५।।
कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य होते हैं , जो प्रतिदिन न मिलने के कारण आरंभ करने योग्य नहीं होते हैं। ऐसे कार्यों के लिये किया गया परिश्रम व्यर्थ चला जाता है। अतः ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिये।
कांश्र्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्।
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ।।४.१.६।।
जिन कार्यों को करने में प्रयत्न कम करना पड़ता है और फल अधिक प्राप्त होता है। बुद्धिमान व्यक्त्ति ऐसे कार्यों में बाधा नहीं आने देते और शीघ्र ही उन्हें प्रारंभ कर देते हैं।
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