गुरुवार, 31 मार्च 2016

३.३२ सर्वश्रेष्ठ पुरुष

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्या:।।३.३२.१।।

जो शांत हो गई शत्रुता की आग को दुबारा नहीं सुलगाता , घमंड नहीं करता है , अपनी हीनता का प्रदर्शन नहीं करता और मैं आपत्ति में हूँ , ऐसा विचार कर अनुचित काम नहीं करता , उस उत्तम आचरण वाले मनुष्य को आर्यजन सर्वश्रेष्ठ पुरुष की उपाधि देते हैं।

न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः।
दत्त्वा न पश्र्चात् कुरुतेऽनु तापं स कथ्यते सत्यपुरुषार्यशीलं।।३.३२.२।।

जो अपने सुखी होने पर अधिक प्रसन्न नहीं होता , दूसरों के दुःखी होने पर आनंदित नहीं होता , दान देने के बाद पछतावा नहीं करता। ऐसा पुरुष सज्जन और श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है।

३.३१ प्रिय मनुष्य

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं च पौरुषेणापि विकत्थतेन्यान्।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि।।३.३१।।

जो कभी उद्दण्ड वेष धारण नहीं करता , दूसरों के समक्ष अपने पराक्रम की डींग नहीं हांकता , क्रोध आने पर भी कठोर वचन नहीं बोलता है , ऐसे मनुष्य सभी के प्रिय होते हैं।

३.३० प्रशंसनीय मनुष्य

न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारतिः शंसति तत्त्वमेव।
न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः।।३.३०.१।।
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादुग्लभते प्रशंसाम्।।३.३०.२।। 

जो क्रोध या उत्तेजित होकर धर्म , अर्थ  तथा  काम  का  प्रारंभ नहीं करता है , जो पूछे जाने पर सदा सत्य ही बतलाता है , मित्र के लिये लड़ाई पसन्द नहीं करता है , आदर - सत्कार न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता , बुद्धि से काम लेता है , दूसरों के अवगुणों पर ध्यान नहीं देता , सब पर दया करता है , दुर्बल होते हुए किसी की जमानत नहीं देता , आवश्यकता से अधिक नहीं बोलता और झगड़ा सहन कर लेता है। ऐसा मनुष्य सभी का प्रशंसनीय होता है अर्थात् जहां जाता है , वहाँ उसकी प्रशंसा होती है।

३.२९ सुखी जीवन

अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।
दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्र्च सुखी सदैव।।३.२९।।

जो व्यक्त्ति बिना बात परदेस में नहीं रहता , पापीयों के साथ मेल - मेलाप नहीं रखता , दूसरी स्त्रियों के साथ नहीं रहता , पाखंड , चोरी , दूसरों की चुगली करने की आदत नहीं रखता और जो नशे का सेवन नहीं करता वह हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करता है।

३.२८ महापुरुष और शत्रु

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचिदुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सपत्नाः।।३.२८।।

जो महापुरुष आपत्ति आने पर दुःखी नहीं होता , अपितु सावधानीपूर्वक श्रम करता रहता है , समय पर कष्ट सहन कर लेता है , ऐसे महापुरुष से उसके शत्रु तो हार ही जाते हैं।

३.२७ धीर

सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चिद्युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम्।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः।।३.२७।।

जो किसी कमजोर असहाय का अपमान नहीं करता , हमेशा सावधानी और बुद्धि से शत्रु के साथ व्यवहार करता है , अपने से अधिक शक्त्तिशाली के संग युद्ध नहीं करना चाहता और वक्त्त आने पर अपना पराक्रम प्रदर्शित करता है , वही पुरुष धीर होता है।

३.२६ विश्र्वास और दण्ड

जानाति विश्र्वासयितुं मनुष्यान् विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम्।
जानाति मात्रां च तथा क्षमां च तं तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा।।३.२६।।

जो व्यक्त्तियों को विश्र्वास कराना जानता है , जो अपराधी है , उसे ही दण्ड देता है।  जो दण्ड की मात्रा और क्षमा का उपयोग जानता है।  ऐसे राजा की सेवा में सब प्रकार के धन और सम्पत्तियां न्यौछावर रहती हैं।

३.२५ काम तथा क्रोध का परित्याग

यः काममन्यू प्रजाहति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च।
विशेषविच्छुतवान् क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमणम्।।३.२५।।

जो राजा काम तथा क्रोध का परित्याग करता है , सुपात्र अर्थात् जरूरतमंद को धन देता है तथा विशेषज्ञ है , शास्त्रों का ज्ञाता है और अपने कर्त्तव्य को शीघ्र ही पूर्ण कर लेता है। ऐसे राजा को सभी नमस्कार करते हैं।

३.२४ दस प्रकार के लोग धर्म को न जानने वाले

दस धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्।
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः कुद्धो बुभुक्षितः।।३.२४.१.१।।
त्वरमांणश्र्च लुब्धश्र्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत् पण्डितः ।।३.२४.१.२।।

हे धृतराष्ट्र ! ये दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते।  ये इस प्रकार हैं - नशे में धुत व्यक्त्ति , असावधान व्यक्त्ति , पागल , यात्रा से थका हुआ , क्रोधी , भूख से व्याकुल , जल्दबाज , लोभ , भयभीत तथा कामवासना में लिप्त।  अतः विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वे इस दस प्रकार के लोगों के साथ आसक्त्ति न रखे।

३.२३ मनुष्य और ज्ञान, नौ तीन पाँच

नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान् यो वेद स परः कविः।।३.२३।।

जो विद्वान् पुरुष ( दो आँखें , दो  कान , दो नासाछिद्र , मुंह , मूत्रद्वार तथा मलद्वार ) नौ द्वार वाले ( वात , पित्त और कफरूपी ) तीन खम्भों वाले (शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्धरूपी ज्ञानेन्द्रियों ) पाँच साक्षी वाले आत्मा के निवास स्थान इस शरीररूपी घर को जानता है।  वह बहुत बड़ा ज्ञानी होता है।  

३.२२ आठ

अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः।
ब्राह्मनान्प्रथमंं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्र्च विरुध्यते।।३.२२.१.१।।

ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणाश्र्च जिघांसति।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति।।३.२२.१.२।।

नैनान्स्मरन्ति कृत्येषु याचितश्र्चाभ्यसूयति ।
एतान्दोषान्नरः प्राज्ञो बुध्येद् बुद्धवा विसर्जयेत्।।३.२२.१.३।।  

मनुष्य का विनाश करने वाले ये आठ कारण निम्नांकित हैं - वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, उनका विरोध करता है , ब्राह्मणों के धन का अपहरण कर लेता है , उनकी ह्त्या करना चाहता है , उनकी निंदा सुनकर आनंद की अनुभूति करता है , उनकी प्रशंसा सुनकर उनसे कुढ़ता रहता है , यज्ञ के समय उन्हें आमंत्रित नहीं करता है तथा कुछ मांगने पर उनमें दोष निकालता है।  बुद्धिमान व्यक्त्ति को इन बातों के परिणामों को जानकर इनका परित्याग कर देना चाहिये।

अष्टाविमनि हर्षस्य नवनीतानि भारत।
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि।।३.२२.२.१।।

समागमश्र्च सखिभिर्महांश्र्चैव धनागमः।
पुत्रेण च परिष्वङ्गः सन्निपातश्र्च मैथुने।।३.२२.२.२।।

समये च प्रियालापः स्वयूथेषु समुन्नतिः।
अभिप्रेतस्य लाभश्र्च पूजा च जनसंसदि।।३.२२.२.३।।

 मित्रों के साथ मेल - जोल , अत्यधिक धन की प्राप्ति , पुत्र का मोह , स्त्रियों के साथ समागम की प्रवृत्ति , मधुर समय पर वचन बोलना , अपने वर्ग के लोगों में ऐश्र्वर्य प्राप्त करना , मनचाही वस्तु प्राप्त करना और समाज में मान - सम्मान पाना , ये आठ वस्तुयें मनुष्य को आनंद देने के साथ - साथ सुख प्रदान करने वाली भी होती हैं।

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीप्यन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्र्चाबहुभाषिता  च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।३.२२.३.१।।

निम्नांकित आठ गुण ऐसे हैं जो मनुष्य को संसार में प्रसिद्धि दिलाते हैं।  वे इस प्रकार हैं - बुद्धिमानी , कुलीनता , इन्द्रियों को वश में करने की प्रवृत्ति , शास्त्रविद्या , पराक्रम , काम बोलना , सामर्थ्य के  अनुसार दान करना , तथा कृतज्ञता अर्थात् दूसरों के उपकारों का मान करना।  इससे मनुष्य स्वतः ही यश पाता है।

३.२१ सात

सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्र्वराः।।३.२१.१.१।।

स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम्।
महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ।।३.२१.१.२।।

स्त्री विषयक आसक्त्ति , जुआ , शिकार में लिप्त , मदिरापान , कठोर वचन , अत्यन्त कठोर दण्ड तथा धन का दुरूपयोग करना , ये सात दुःख प्रदान करने वाले दोष  को राजा को परित्याग कर देना चाहिये ; क्योंकि इसके रहने से अत्यधिक बलवान् राजा का भी विनाश हो जाता है।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

३.२० छः

षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता।।३.२०.१।।

जो पुरुष उन्नति करना चाहते हैं उन्हें इन छः दुर्गुणों (अधिक नींद , तन्द्रा , भय , क्रोध , आलस्य और जल्दी हो जाने वाले कार्यों में देर लगाने की आदत ) का त्याग कर देना चाहिये ; क्योंकि आलस को छोड़कर जो कठिन परिश्रम करता है ,  सफल हो पाता है।

षडिमानपुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अपवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।३.२०.२.१।।


अरक्षितारं राजानं भार्या चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।।३.२०.२.२।।

उपदेश न देने वाले आचार्य को , मन्त्रोच्चारण न करके हवन करने वाले को , रक्षा करने में असमर्थ राजा को , कठोर वचन बोलने वाली स्त्री , गाँव की इच्छा करने वाले ग्वाले और वन में रहने की इच्छा रखने वाले नाई ; इन छः का उसी  प्रकार त्याग कर देना चाहिये , जिस प्रकार समुद्र की सैर करने वाला व्यक्त्ति फटी हुई अर्थात् रिसने वाली नाव का त्याग कर देता है।

षडेव तु गुणाः पुसां न हातव्याः कदाचन्।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा घृतिः।।३.२०.३।।

व्यक्त्ति को कभी भी सत्य , दान , कर्मण्यता , दूसरों में दोष न निकालना , क्षमा और धैर्य , इन छः गुणों का परित्याग नहीं करना चाहिये ; क्योंकि वे गुण उनके रक्षक होते हैं।

अर्धागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्र्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.४।।

धन की प्राप्ति होते रहना , स्वस्थ रहना , मधुर वचन बोलने वाली और अपने अनुकूल रहने वाली स्त्री , पुत्र का आज्ञावादी होना और विद्या जिससे धन प्राप्त हो , ये छः बातें संसार में सुख प्रदान करने वाले बताये गये हैं।


षण्णामात्मानि नित्यानामैश्र्वर्य योऽधिगच्छति।
न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः।।३.२०.५।।

काम , क्रोध , लालच , मोह , मान  और घमण्ड , इन छः शत्रुओं को जो व्यक्त्ति जीत लेता है , वह जितेन्द्रिय पुरुष कहलाता है।  वह पापों में लिप्त नहीं होता है।  वह अनर्थ कैसे कर सकता है अर्थात् उनसे असमर्थ नहीं होता है।

षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः।।३.२०.६.१।।
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः।।३.२०.६.२।।

यह छः प्रकार के मनुष्य इन छः लोगों के सहारे अपनी आजीविका चलाते हैं।  वे इस प्रकार हैं - चोर आलसी लोगों के सहारे , चिकित्सक रोगियों के सहारे , वेश्या कामी पुरुषों से , पुरोहित यजमानों से , राजा आपस में झगड़ने वालों से तथा पंडित मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं।  सातवां कोई नहीं होता है।

षडिमानी विनश्यन्ति मुहूर्त्तमनवेक्षणात ।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्यावृषलसङ्गतिः।।३.२०.७।।

क्षण भर भी देख -रेख न करने से इन छः वस्तुओं का विनाश हो जाता है। पशु आदि गोधन , सेवा , खेती , पत्नी , विद्या और शूद्रों की संगती।

षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम्।
आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्र्च मातरम्।।३.२०.८.१।।
नारी विगतकामास्तु कृतार्थाश्र्च प्रयोजकम्।
नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्र्च चिकित्सकम्।।३.२०.८.२।।

ये छः व्यक्त्ति सदैव अपने ऊपर उपकार करने वाले का अनादर करते हैं - विद्या ग्रहण करने वाले अपने को पढ़ाने वाले आचार्य का , विवाह करने के बाद पुत्र अपनी माता का , कामवासना शांत हो जाने के बाद मनुष्य स्त्री का , काम निकल जाने के बाद अपने सहायक का , नदी पार करने के बाद व्यक्त्ति नाव का और रोगी व्यक्त्ति रोगमुक्त्त हो जाने पर अपने वैद्य का अनादर करते हैं।

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सभ्दिर्मनुष्यैः सह सम्प्रयोगः।
स्वप्रत्ययावृत्तिरभीतवासः षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.९।।

रोगमुक्त्त रहना , किसी से उधार न लेना , दूसरे देश में निवास करना , सज्जनों की संगती , अपने द्वारा कमाये गये धन से अपनी जीविका चलाना तथा भयभीत होकर रहना , ये इस संसार में मनुष्यों के छः सुख हैं , जिसे पाकर वह सुखपूर्वक रहता है।

ईर्षुर्घृणी न सन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी न षडेते नित्यदुःखिताः।।३.२०.१०।।   

ईर्ष्या करने वाले , घृणा करने वाला , संतुष्ट न रहने वाला , क्रोध से भरा हुआ , सदा शंका की दृष्टि रखने वाला तथा दूसरे के सहारे जीने वाला , ये छः प्रकार के मनुष्य इस संसार में सदैव दुःखी रहते हैं।

३.१९ पाँच

पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्या प्रयत्नतः।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्र्च भरतर्षभ।।३.१९.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! पिता , माता , अग्नि , आत्मा  तथा  गुरु - व्यक्त्ति को इन पाँचों अग्नियों की यत्नपूर्वक सेवा करनी चाहिये।

पञ्चैव पूजयल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्पितृन्मनुष्याश्र्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ।।३.१९.२।।

देवता , पितर , मनुष्य , सन्यासी तथा अतिथि इन पाँचों की पूजा करने वाला व्यक्त्ति संसार में शुद्ध यश प्राप्त करता है।

पञ्चत्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।
मित्राण्यमित्रा  मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः।।३.१९.३।।

हे राजन्।  आप जहां - जहां जायेंगे , वहाँ - वहाँ मित्र - शत्रु , उदासीन , आश्रय देने वाले और आश्रय पाने वाले व्यक्त्ति आपके पीछे लगे रहेंगे ; क्योंकि ये सदैव व्यक्त्ति के साथ रहते हैं।

पञ्चन्द्रियस्य मर्त्यस्यच्छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य सवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्।।३.१९.४।।

जिस प्रकार मशक में छेद हो जाने से पानी निकलता है और मशक खाली हो जाता है उसी प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले व्यक्त्ति की यदि एक भी इंद्रिय में दोष हो जाये तो उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।

३.१८ चार

चत्वारि राजा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात्।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कूर्यान्न दीर्घसूत्रैरभसैश्र्चारणैश्र्च।।३.१८.१।।

अल्प बुद्धि वाले , कार्य में देर लगाने वाले , विचार शून्य और स्तुति करने वाले लोगों के साथ राजा को बैठकर कभी सलाह नहीं लेना चाहिये , अपितु राजा को इन चारों महाबली का त्यागकर देना चाहिये।  विद्वान् पुरुष ऐसे व्यक्त्तियों को पहचान लें।

चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रीयाभिजुष्टस्य गृहस्थ धर्मे।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या।।३.१८.२।।

हे तात् ! जिस घर में अपने कुटुम्ब का वृद्ध मुसीबत में पड़ा हुआ , उच्च कुल का व्यक्त्ति , निर्धन मित्र तथा संतानहीन बहिन ये चारों रहते हैं।  उस  घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है ; क्योंकि बूढ़ा व्यक्त्ति बालकों को आचार -व्यवहार सिखाता है। निर्धन मित्र सदा हित की बात करता है और सन्तानहीन बहिन गृहस्थी के कार्यों को अच्छी प्रकार करती है।

चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पतिः।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे।।३.१८.३.१।।

हे महाराज ! इन्द्र के पूछने पर बृहस्पतिजी ने उनसे जिन चार बातों का शीघ्र फल देने वाला बताया है , उन्हें आप मुझसे सुनिये।

देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च श्रीमताम्।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम्।।३.१८.३.२।।

देवताओं का संकल्प , बुद्धिमानों का प्रभाव , विद्वानों की नम्रता तथा पाप करने वालों का विनाश।

चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुतमानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः।।३.१८.४।।  

चार कर्म मनुष्य को निर्भय  बनाता है और जब यह कार्य ठीक से सम्पन्न नहीं होते तो वह भयभीत हो जाता है। वे  कर्म हैं - आदरपूर्वक अग्निहोत्र , आदर के साथ मौन धारण का पालन , आदर के साथ विद्या ग्रहण तथा आदरपूर्वक किया गया यज्ञ का अनुष्ठान।

सोमवार, 28 मार्च 2016

३.१७ तीन

त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ्।
कनीयान्मध्यम् श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः।।३.१७.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि होने के लिये उत्तम , मध्यम  तथा अधम ये तीन प्रकार के उपाय वेदवेत्ताओं द्वारा कहे गये हैं। इनमे साम को उत्तम , दाम तथा भेद को मध्यम तथा युद्ध को अधम बताया गया है।

त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रीविधेष्वेव कर्मसु।।३.१७.२।।

हे राजन् ! तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं - उत्तम , मध्यम और अधम।  अतः ये जिस काम के योग्य हों , उन्हें वही काम देना चाहिये।  इससे विदुरजी यह समझाना चाहते हैं कि हे राजन् ! आप उपाय नहीं जानते ; क्योंकि आपने अधम अर्थात् शकुनि आदि मंत्रियों को उत्तम कर्म में लगा दिया है।

त्रय  एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा  सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।।३.१७.३।।

हे राजन् ! स्वामी के रहने पर ये तीन व्यक्त्ति धन के अधिकारी नहीं माने जाते , स्त्री , पुत्र  और दास। इनके पास जो कुछ भी होता है , वह उस स्वामी के ही तो होते हैं। वह उस स्वामी के आज्ञा से ही उस धन के मालिक बन सकते हैं , अपनी इच्छा से नहीं।

हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्र्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।३.१७.४।।

दूसरे के धन को छीनना , दूसरों की स्त्री के साथ दुष्कर्म करना तथा अच्छे मित्र को छोड़ना , ये तीनों ही दोष विनाश का कारण होते हैं।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।३.१७.५।।

मनुष्य की आत्मा को नष्ट करने वाले नरक के तीन द्वार होते हैं - काम , क्रोध  और लालच।  अतः मनुष्य को नरक के द्वार पर ले जाने वाले इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत।
शत्रोश्र्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम्।।३.१७.६।।

वरदान पाना , राज्य प्राप्त करना तथा पुत्र का जन्म होना - ये तीन बातें आनन्ददायी होती है।  शत्रु के कष्ट से  मुक्त्त हो जाने की खुशी इन तीनों के समतुल्य होती है।  अर्थात् शत्रु जितना कष्ट देते हैं।  इनसे मुक्त्ति पाने पर तीनों के बराबर आनन्द प्राप्त होता है।

भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम्।
त्रिनेतांछरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत्।।३.१७.७।।

भक्त्त , सेवक  और मैं आपका ही हूँ , ऐसा कहने वाले इन - तीन  प्रकार के शरणागत व्यक्त्तियों को श्रेष्ठ पुरुषों को विपत्ति आने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये।  

३.१६ दो

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्र्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्र्च प्रदानवान् ।।३.१६.१।।

दो प्रकार के मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त करते हैं।  पहला सामर्थ्य होते हुए भी क्षमाशील व्यक्त्ति और दूसरा धन न होते हुए भी दानी स्वभाव वाला।

न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे  प्रतिपत्तिश्र्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।३.१६.२।।

न्याय से प्राप्त किये गये धन के दो ही दुरुपयोग माने जाते हैं। एक तो अपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता नहीं है उसको देना और सुपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता है , उसे धन न देना।

द्वावम्भसि निवेष्टब्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।।३.१६.३।।

जो धनवान होते हुए भी दान न करे और जो निर्धन होते हुए भी कठोर परिश्रम न करे जिससे उसकी गरीबी दूर हो जाए।  इन दो प्रकार के पुरुषों के गले में भारी पत्थर बांधकर जल में डुबा देना चाहिये।

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिवाड्योगयुक्तश्र्च रणे चाभिमुखो हतः।।३.१६.४।।

ये दो प्रकार के मनुष्य सूर्यमण्डल को भेदकर मोक्ष प्राप्त करते हैं - पहला योगयुक्त्त सन्यासी तथा दूसरा संग्राम में लोहा लेने वाला वीर।  अर्थात् सन्यासी का कार्य योग साधना में लगे रहना है और वीर पुरुष को युद्ध में घबराना नहीं चाहिये।

३.१५ गृहस्थ और सन्यासी

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्र्च निरारम्भः कार्यवांश्र्चैव भिक्षुकः।।३.१५।।

दो ही लोग ऐसे हैं , जो अपने विपरीत कर्मों के कारण शोभा नहीं पाते हैं। उनमें से एक अकर्मण्य गृहस्थ तथा दूसरा कार्यों में लगा सन्यासी।  गृहस्थ यदि आलसी रहेगा तो वह गरीब रह जायेगा और दूसरा सन्यासी यदि कर्मों में लगा रहेगा तो सन्यासी बनने से क्या लाभ।  वह सब कुछ त्यागकर ही तो सन्यासी हुआ है।

३.१४ कांटों के समान

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ।
यश्र्चाधनः कामयाते यश्र्च कुप्यत्यनीश्र्वरह।।३.१४।। 

जो गरीब होकर भी बहुमूल्य वस्तु की कामना करता है और जो कमजोर होते हुए भी क्रोध करता है। ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान हैं अर्थात् ये अपने आप को बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।

३.१३ विश्र्वास

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणौ।
स्त्रियः कामितकामिन्यो लोकः पूजितपूजकः।।३.१३।।

जिस पुरुष को कोई स्त्री चाहती थी उस पुरुष को चाहने वाली स्त्रियां और दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरुष , ये दोनों पर विश्र्वास करने वाले होते हैं।  इनके पास अपनी बुद्धि नहीं होती है।

३.१२ आदर और सम्मान

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते।
अब्रुवन पुरुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयस्तथा।।३.१२।।   

जो पुरुष कठोर वचन नहीं बोलता है दुष्ट पुरुषों का आदर -सत्कार या संगति नहीं करता है।  इन दो कर्मों को करने वाले मनुष्य को ही आदर और सम्मान प्राप्त होता है।

३.११ धरती

द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो विलश्यानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।३.११।।

बिल में सोने वाले जन्तुओं को जिस प्रकार सांप खा जाता है , उसी प्रकार यह धरती भी शत्रु का विरोध न करने वाले राजा तथा अन्य देश में रहने वाले ब्राह्मण इन दोनों को खा जाती है अर्थात् वे दोनों नष्ट हो जाते हैं।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

३.१० क्षमा

एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः।।३.१०.१।।

जो लोग क्षमाशील होते हैं , उनमें एक ही दोष होता है , दूसरा कोई दोष नहीं होता है। वह दोष यह है कि ऐसे व्यक्त्ति को लोग असमर्थ और कमजोर समझने लगते हैं।

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।
क्षमगुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।।३.१०.२।।

किन्तु क्षमा को उनका दोष नहीं मानना चाहिये ; क्योंकि क्षमा तो सबसे बड़ा बल है। यह असमर्थ मनुष्यों का गुण है और शक्तिशाली मनुष्यों का आभूषण है।

क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शन्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः।।३.१०.३।।

इस संसार में क्षमा द्वारा सभी लोग वश में हो जाते हैं। जिस व्यक्त्ति के पास क्षमारूपी शक्त्ति होती है , वह व्यक्त्ति सब कुछ प्राप्त कर सकता है। दुष्ट व्यक्त्ति भी उसका अहित नहीं कर सकते हैं।

अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान्परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत्।।३.१०.४।।

जिस प्रकार आग किसी ऐसे जगह पर गिरे जहां पर एकमात्र तिनका न हो तो वह अपने आप बुझ जाती है। उसी प्रकार दुष्ट व्यक्त्ति भी किसी क्षमा भाव वाले मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है अर्थात् उनके सामने आने पर अपने आप शान्त हो जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य क्षमाशील नहीं है उनकी आत्मा दोषयुक्त्त हो जाती है।

एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा।।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।।३.१०.५।।

केवल धर्म ही महाकल्याणकारी होता है। एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है।  एक विद्या ही संतोष देने वाली और एकमात्र अहिंसा अर्थात् किसी से झगड़ा न करना ही सुख प्रदान करने वाली होती है।

३.९ साधन

एकमेवाद्वितीयं तद्यद्वाजन्नवबुध्यसे।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।।३.९।।

जैसे केवल नाव ही समुद्र पार करने का एकमात्र साधन है , उसी प्रकार सत्य ही स्वर्ग पाने का एकमात्र साधन है।  यह एक सबसे बड़ी सच्चाई है ; परन्तु आप उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

गुरुवार, 24 मार्च 2016

३.८ अकेले

एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्र्चार्थान्न चिन्तयेत्।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात्।।३.८।।

व्यक्त्ति को अकेले स्वादिष्ट पदार्थ नहीं खाना चाहिये। हो सकता है किसी ने उस व्यक्त्ति का अहित करने के उद्देश्य से उस खाने में विष मिला दिया हो।  अकेले ही किसी बात पर निर्णय नहीं लेना चाहिये अर्थात् सामूहिक रूप से निर्णय लेना चाहिये।  कभी भी अकेले रास्ते में नहीं जाना चाहिये और बहुत से लोग सो गये हों तो उनके बीच अकेले नहीं जागना चाहिये।  इससे व्यक्त्ति के अनिष्ट होने की संभावना रहती है।

३.७ योजनायें

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्र्च वध्यते।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः।।३.७।।

जहर और हथियार का प्रभाव सीमित है।  जहर केवल एक को ही मारता है और शस्त्र से भी केवल एक का ही विनाश होता है ; लेकिन राजा की गुप्त योजनाओं और विचारों का समय से पहले पता चलने से उस राजा , प्रजा और पूरे राष्ट्र का विनाश हो जाता है। अतः राजा को अपनी योजनायें छिपाकर रखनी चाहिये।

३.६ बुद्धि

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्त्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राराष्टं सराजकम्।।३.६.१।।

किसी धनुषधारी के द्वारा छोड़ा गया बाण संभव है कि वह उसके शत्रु को मार भी सकता है या नहीं भी मार सकता है।  लेकिन कोई बुद्धिमान व्यक्त्ति जब अपनी बुद्धि का प्रयोग किसी को नष्ट करने के लिये करता है , तो वह अवश्य ही उसका विनाश कर देता है।  फिर चाहे वह राजा या उसका राज्य ही क्यों न हो अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकता है।

एकया द्वे विनिश्र्चित्य त्रींश्र्चतुर्भिर्वशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव।।३.६.२।।     

हे राजन ! अपनी बुद्धि से क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका निश्र्चय करके साम , दाम , दण्ड और भेद से मित्र , शत्रु और उदासीन तीनों को वश में कर लीजिये। पाँचों इन्द्रियों को जीतकर छः गुणों ( संधि , विग्रह , यान , आसन , द्वैधीभाव और आश्रय ) को जानकर सात दुर्गुणों ( स्त्री , जुआ , शिकार , मद्यपान , कठोर वचन , कठोर दण्ड और अन्याय से धन का उपार्जन ) को त्यागकर सुखी हो जाईये। 

३.५ पाप और पापी

एकः पापानि कुरुते फलं भुक्त्ते महाजनः।
भोक्त्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।।३.५।।

पाप तो एक व्यक्त्ति अकेले ही करता है ; परन्तु उसके पाप का मौज बहुत से लोग उड़ाते हैं। जो लोग पाप की कमाई का मौज उड़ाते हैं , वे बच जाते हैं ; क्योंकि पाप करने वाला व्यक्त्ति ही सजा का भागी होता है।

३.४ निर्दयी और क्रूर

एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्र्च शोभनम्।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्य को नृशंसतरस्ततः।।३.४।।

जो व्यक्त्ति उत्तम भोजन को अकेले ही ग्रहण करता है।  अच्छे वस्त्रों को अकेले ही पहनता है।  इन वस्तुओं का प्रयोग अपने लोगों को भी नहीं करने देता है अर्थात् अपनी कोई वस्तु किसी के साथ नहीं बांटता है , उससे अधिक निर्दयी और क्रूर कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है।  

३.३ मुर्ख कौन होता है ?

विदुर उवाच
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अश्रुतश्र्च समुन्नद्धौ दरिद्रश्र्च महामनाः।
अर्थाश्र्चकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।।३.३.१।।

जो व्यक्त्ति विद्वान न होते हुए अभिमान करता ,  निर्धन होते हुए भी बड़े -बड़े स्वप्न देखता है तथा बिना कर्म किये ही धन की अभिलाषा रखता है।  ऐसे मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।

स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्र्च मूढः स उच्चते।।३.३.२।।

जो अपने कार्यों को छोड़कर दूसरों के कार्यों को पूर्ण करने में लगा रहता है , जो मित्रों के साथ असत्य आचरण करता है , वही मूर्ख कहलाता है।

अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.३।।

जो बुरे व्यक्त्तियों और बुरे वस्तुओं को चाहता है और अच्छी वस्तुओं और अच्छे लोगों को छोड़ देता है और जो अपने से बलशाली के साथ शत्रुता रखता है , उसे पंडित लोग मुर्ख कहते है।

अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्रेष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.४ ।।

 जो मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र बना लेता है और मित्रों को हानि पहुँचाता है।  जो सदैव दुष्कर्म ही करता है ; ऐसा व्यक्त्ति मूर्ख कहलाते हैं।

संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ।।३.३.५।।

हे भरतश्रेष्ठ ! जो व्यक्त्ति अपने कर्मों को व्यर्थ ही फैलाता है , सब जगह संदेह करता है , संशय से घिरा रहता है और शीघ्र होने वाले कामों को भी टाले रहता है और देर लगाता है ; ऐसे लोग मूर्ख कहलाते हैं।

श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि च चर्चति।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.६।।

जो अपने माता -पिता का आदर नहीं करता , उनका श्राद्ध नहीं करता है , देवताओं की अराधना नहीं करता है , जिसका अच्छा मित्र नहीं होता है , वह मूर्ख है।

अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्र्वस्ते विश्र्वसिति  मूढचेता नराधमः।।३.३.७।।

जो मूर्ख व्यक्त्ति होता है , वह बिना बुलाए ही पहुँच जाता है , बिना पूछे ही स्वयं बोल देता है और जो विश्र्वासपात्र नहीं है , उन पर भी विश्र्वास कर लेता है।

परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा।
यश्र्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः।।३.३.८।।

जो स्वयं दोषी होकर भी दूसरों पर दोष लगाता है और जो असमर्थ होते हुए भी समर्थ व्यक्त्ति पर व्यर्थ का क्रोध करता है , वह मनुष्य अत्यन्त मूर्ख कहलाता है।

आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।३.३.९।।

जो व्यक्त्ति अपने सामर्थ्य का अनुमान नहीं लगा पाता है और ऐसे कार्यों को पूर्ण करने की चाह रखता है , जो धार्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से कर पाना असंभव होता है।  ऐसे व्यक्तियों को पण्डित लोगों ने मूर्खों की उपाधि दी है।

अशिष्यं शस्ति यो राजन्यश्र्च शून्यमुपासते।
कदर्यं भजते यश्र्च तमाहुर्मुढचेतसम्।।३.३.१०।।

जो व्यक्त्ति अनाधिकारी को शिक्षा अर्थात् उपदेश देता है और ऐसे कार्यों को करता है जिसको करने से कोई लाभ अथवा उपयोग नहीं होता है और जो कृपण व्यक्त्ति का सहारा लेता है , उसे मूढ़ चित्त वाला कहा जाता है।  

बुधवार, 23 मार्च 2016

३.२ पण्डित कौन होता है ?

विदुर उवाच
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आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्थान्नपकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.१।।

१. जिन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। जो धर्मात्मा हैं और धर्म का पालन करते हैं।
२ . जिनमें दुःख झेलने की शक्त्ति है।
३ . जो धन के लोभ मे अपने मार्ग से नही भटकता।

ऐसे ही लोगों को पण्डित या विद्वान कहा जाता है।

निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम्।।३.२.२।।

१. जो सदैव अच्छे कर्मों को करता है तथा निन्दित बुरे कर्मों से दूर रहता है।
२. जो आस्तिक  और  श्रद्धालु है।
यही सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं।

क्रोधो हर्षश्र्च दर्पश्र्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान्नपकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.३।।

जो पुरूष क्रोध , हर्ष , लज्जा , उद्दंडता और अपने को पूज्य समझने के गर्व में होकर अपने रास्ते से नहीं भटकते , वही पंडित कहलाते हैं।

यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.४।।

जिसकी कर्तव्य सलाह और विचार विमर्श को दूसरे लोग नहीं जानते अपितु कार्य पूर्ण होने पर ही उन्हें उनकी योजना का पता चलता है , वही पण्डित कहलाते हैं।

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते।।३.२.५।। 

जिस पुरूष के कार्य में सर्दी - गर्मी , डर - अनुराग , करनी अथवा निर्धनता कोई भी बातें अड़चन नहीं डालती , यानि जिनके कारण वह पुरूष अपने कार्य से पीछे नहीं हटता , वही पण्डित कहलाता है।

यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते।
कामादर्थ वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते।।३.२.६।।

जो पुरूष सांसारिक होते हुए भी धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करता है और जो योग को छोड़कर पुरूषार्थ को ही चुनता है , वही पंडित कहलाता है।

यथाशक्त्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्त्ति च कुर्वते।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः।।३.२.७।।

जो विवेकपूर्ण बुद्धि वाले व्यक्त्ति अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करने की इच्छा रखते हैं  और समता के अनुसार ही कार्य करते भी है और किसी को तुच्छ समझकर निरादर नहीं करते , वही पण्डित है।

क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रेणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासम्पृष्टो व्युपयुक्त्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।।३.२.८।।

जो व्यक्त्ति किसी बात को देर तक सुनता है लेकिन जल्दी ही समझ जाता है और बात समझकर उस पर आचरण करता है। जब तक कोई उनसे न पूछे वह दूसरों के बारे में व्यर्थ की बात नहीं कहता।  यह स्वभाव पंडितों की मुख्य पहचान होती है।

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यान्ति नराः पण्डितबुद्धयः।।३.२.९।।

जो व्यक्त्ति दुर्लभ वस्तु के मिलने की इच्छा नहीं रखते , नष्ट हुयी वस्तु के बारे में सोचकर दुःख नहीं करते और विपत्ति में धैर्य नहीं खोते वही पंडित है।


निश्र्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति क्रर्मणः।
अवन्ध्यकालो  वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते।।३.२.१०।।

जो पहले निश्र्चय कर लेता है फिर कार्य आरम्भ करता है तथा बीच में नहीं छोड़ता व्यर्थ का समय नहीं गंवाता।  जिसने अपने मन को वश में कर लिया है , वही पण्डित है।

आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ।।३.२.११।।

हे भरतकुल -भूषण ! जो पुरूष श्रेष्ठ कार्यो को करने में रूचि रखते हैं अपने भलाई या हिट चाहने वाले की बुराई नहीं करते वे ही पंडित कहलाते हैं।

न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गांगो ह्नद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१२।।

जो आदर पाकर भी प्रसन्न नहीं होते हैं और अपमान होने पर दुःखी नहीं होते हैं ; अपितु गंगाजल के कुण्ड के समान जिसका चित्त सब परिस्थितियों में एक समान रहता है , वही पंडित कहलाता है।

तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम्।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते।।३.२.१३।।

जो सभी भौतिक पदार्थों की जानकारी रखता है, सब कामों को करने का तरीका जानता है और सब मनुष्यों की मुसीबतों को दूर करने का उपाय जानता है , सब प्राणियों को समझता है , वही पंडित कहा जाता है।

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशुग्रन्थस्य वक्त्ता च यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१४।।

जो व्यक्त्ति अपनी बात को अच्छे ढंग से दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता है तर्कशील और प्रतिभाशाली है , जो ग्रन्थ के तात्पर्य को जल्दी से समझा सकता हो , वही पंडित कहलाता है।

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रजा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नर्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत् सः।।३.२.१५।।

जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो सदा सही काम करता हो और कभी गलत मार्ग पर न चलता हो अर्थात् अपनी मर्यादा को न भूलकर उसी के अनुसार कार्य करता है , वही पंडित कहलाता है।

अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामैश्र्वर्यमेव वा।
विचरत्यसमुन्नद्धो यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१६।।

जो अत्यधिक धन , संपत्ति , यश , शक्त्ति तथा विद्या अर्जित करने के बाद भी तनिक गर्व महसूस नहीं करता , नम्रतापूर्वक व्यवहार करता है , वह पण्डित कहलाता है।

३.१ किसकी नींद उड़ जाती है ?

विदुर उवाच
अभियुक्त्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।
हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः।।१।।

विदुरजी ने कहा : महाराज ! इन व्यक्त्तियों की नींद उड़ जाती है -
१. जिसका किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो।
२. जो स्वयं दुर्बल हो।
३. जो साधनहीन हो।
४. जिसका सब कुछ हर लिया गया हो।
५. काम - वासनाओं में लिप्त हो तथा चोर भी हो।

ऐसे ही लोगों को रात में जागने का रोग लग जाता है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

२.३४ सर्वधनी

 यक्ष उवाच
व्याख्याता मे त्वया प्रश्ना यथातथ्यं परन्तप।
पुरुषं त्विदानीं व्याख्याहि यश्र्च सर्वधनी नरः।।२.३४.१।।

हे परम तपस्वी। मेरे प्रश्नों के उत्तर आपने सही - सही दे दिये ;किन्तु अब उस व्यक्त्ति की विवेचना कीजिये जो सर्वधनी कहा जाता है।

युधिष्ठिर उवाच
दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्येन कर्मणा।
यावत्स शब्दो भवति तावत्पुरुष उच्यते।।२.३४.२।।

पुण्यकर्म करने के पश्र्चात् जिस मनुष्य की कीर्ति का शब्द अर्थात् यश गाथा जिस समय तक आकाश एवं पृथ्वी में फैली रहती है , उस समय तक मनुष्य समझो जीवित रहता है तथा वही मनुष्य सर्वधनी भी कहा जाता है।

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदुःखे तथैव च।
अतीतानागते  चोभे स वै सर्वधनी नरः।।२.३४.३।।

जिस व्यक्त्ति के लिये शत्रु तथा मित्र एक समान हैं तथा सुख -दुःख भी एक जैसे हैं तथा भूत , भविष्य सब एक जैसा है , वही व्यक्त्ति सर्वधनी कहलाता है।

२.३३ प्रसन्नता , आश्र्चर्य ,मार्ग , वर्तमान

यक्ष उवाच
को मोदते किमाश्र्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका।
वद मे चतुरः प्रश्नान्मृता जीवन्तु बान्धवाः।।२.३३.१।।

कौंन है , जो प्रसन्न रहता है ?
आश्र्चर्य क्या है ?
मार्ग कौंन है ?
वर्तमान कौंन है ?
हे राजन् ! यदि आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो आपके चारों भ्राता पुनः जीवित हो जायेंगें।

युधिष्ठिर उवाच
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे।
अनुणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते।।२.३३.२।।

हे वारिचर (जलचर )।जो व्यक्त्ति अपने गृह में पाँचवें अथवा छठें दिन शाकपात खाकर जीवन चलाता है किन्तु किसी से उधार नहीं लेता एवं प्रवासी अर्थात् परदेस में रहने वाला नहीं है , वही व्यक्त्ति प्रसन्न रहता है। 

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थवरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।।२.३३.३।।

नित्य प्राणी धर्मराज के पास जाते हैं अर्थात् मृत्यु प्राप्त करते हैं जो शेष प्राणी जीवित हैं इनको देखकर भी अपने को स्थिर रहने की अभिलाषा रखते हैं अर्थात् वो सोचते हैं कि वे मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे तो फिर इससे अधिक एवं आश्र्चर्य कौन - सा हो सकता है ? यानि कोई नहीं है।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।।२.३३.४।।

तर्क निर्णय शून्य है यानि तर्क से कोई निर्णय नहीं होता एवं श्रुति परस्पर विरोधी तर्क अर्थवाद वाली है , उसमें भी अंतर है एवं ऋषि भी उनका विश्लेषण अपने ढंग से करते हैं , जो एक -दूसरे के विरूद्ध हैं। अतः धर्म का तत्त्व गुप्तभाव में स्थित है यानि उसे समझ पाना सरल नहीं है।  अतः अपने से बड़े वृद्ध लोग जिस धर्म के रास्ते से चलते आ रहे हैं वही सही रास्ता है।

अस्मिन्महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन।
मासर्तुदर्विपरिघट्टने भूतानि कालः पचतीति वार्ता।।२.३३.५।।

इस विशाल मोहरूपी कड़ाहे को सूर्य एवं आग से रात तथा दिन रूपी लकड़ी से कालरूप ईश्र्वर प्राणियों को इस कड़ाही में पकाता है तथा मोह और ऋतुरूपी कलछी से हिलाता रहता है यही वास्तविकता है।  

२.३२ व्यवहार

यक्ष उवाच
प्रियवचनवादी किं लभते विमृशितकार्यकरः किं लभते।
बहुमित्रकरः किं लभते धर्मे रतः किं लभते कथय।।२.३२.१।।

मधुर वाणी बोलने वाले को क्या लाभ मिलता है ?
सोच - विचार कर कर्म करने वाले को क्या मिलता है ?
ढेर सारे मित्र बनाने वाले को क्या लाभ मिलता है ?
धर्म में लगे रहने वाले मनुष्य को क्या मिलता है ?
 
युधिष्ठिर उवाच
प्रियवचनवादी प्रियो भवति विमृशितकार्यकरोऽधिकं जयति।
बहुमित्रकरः सुखं वसते यश्र्च धर्मरतः स गतिं लभते।।२.३२.२।।

मधुर वाणी बोलने वाला व्यक्त्ति समस्त लोगों का प्रिय होता है।
सब काम सोच-विचारकर करने वाले को अधिक लाभ प्राप्त होता है।
बहुत सारे मित्र बनाने वाला सुख से रहता है।
धर्म में लगे रहने वाला व्यक्त्ति उत्तम गति को प्राप्त होता है।  

२.३१ ब्राह्मणत्व

यक्ष उवाच
राजन्कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मण्यं केन भवति प्रबूह्येतत्सुनिश्र्चितम्।।२.३१.१।।

हे राजन् ! ब्राह्मणत्व किससे होता है - कुल से या आचरण से अथवा वेदों का अध्ययन करने से होता है या फिर वेदों का श्रवण करने से ब्राह्मणत्व होता है।  यह निश्र्चित रूप से मुझे बताइये।

युधिष्ठिर उवाच
श्रृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
करणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः।।२.३१.२।।

हे यक्ष ! हे तात ! तो सुनिये , न ही कुल के कारण ब्राह्मणत्व होता है और न ही वेदाध्ययन एवं वेदों को सुनने से ; परन्तु ब्राह्मणत्व का एक कारण स्वधर्माचरण ही है , इसमें कोई संशय नहीं है।

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।२.३१.३।।

मनुष्य को ही स्वधर्माचरण की रक्षा करनी चाहिये एवं ब्राह्मण को तो वशेषतया रक्षा करनी चाहिये ; क्योंकि जिसका चरित्र क्षीण नहीं है एवं जिसका आचरण क्षीण हो गया है , वह क्षीण है।

पठकाः पाठकाश्र्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान्स पण्डितः।।२.३१.४।।

हे यक्ष ! जो ब्राह्मण शास्त्र का अध्ययन कराने और करने वाले होते है एवं जो शास्त्र के शुभचिंतक हैं वे क्रिया से रहित होने से समस्त बुराईयों से युक्त्त एवं मूख्र कहे जाते हैं एवं जो ब्राह्मण क्रियान्वित हैं , वे पंडित कहे जाते हैं।

चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शुद्रादतिरिच्यते।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः।।२.३१.५।।

चारों वेदों का अध्ययन करने वाला ब्राह्मण यदि दुराचरण वाला है , तो वह शुद्र से भी अधिक गिरा हुआ है ; क्योंकि जो अग्निहोत्र करता है एवं इन्द्रियों को वश में रखता है , वह ब्राह्मण माना जाता है।  

२.३० नरक

यक्ष उवाच
अक्षयो नरकः केन प्राप्यते भरतर्षभ्।
एतन्मे पृच्छतः प्रश्नं तच्छीघ्रं वक्त्तुमर्हसि।।२.३०.१।।

हे भरत! किस काम को करने से व्यक्त्ति नरक के द्वार में जाता है।  मेरे इस प्रश्न का शीघ्रतापूर्वक उत्तर दीजिये।

युधिष्ठिर उवाच
ब्राह्मणं स्वयमाहूय याचमानमकिञ्जनम्।
पश्र्चान्नास्तीति यो ब्रूयात्सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.२।।

भिक्षा मांगने आए गरीब ब्राह्मण को स्वयं ही प्रथम कुछ देने हेतु बुलाए एवं बाद में देने से मना कर दे , तो वही अक्षय नरक में स्थान पाता है।

वेदेषु धर्मशास्त्रेषु मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
देवेषु पितृधर्मेषु सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.३।।

जो व्यक्त्ति वेदों , धर्मशास्त्रों , ईश्र्वर तथा पितृधर्म को मानने से मना कर देता है , वह व्यक्त्ति नरक में निवास करता है।

विद्यमाने धने लोभाद्दानभोगविवर्जितः।
पश्र्चान्नास्तीतियोब्रूयात्सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.४।।

लक्ष्मी समीप रहने पर भी जो व्यक्त्ति न ही किसी को दान करता है तथा न ही धन का उपयोग स्वयं करता है एवं दान करूँगा , इस प्रकार के वचन को कहकर बाद में इनकार कर देता है , वह अक्षय नरक में वास करता है।

२.२९ धर्म अर्थ काम का मिलन

यक्ष उवाच
धर्मश्र्चर्थश्र्च कामश्र्च परस्परविरोधिनः।
एषां नित्यविरुद्धानां कथमेकत्र संगम्।।२.२९.१।।

धर्म , अर्थ  तथा  काम ये दूसरे के विरोधी हैं, इन नित्य विरोधियों का एक स्थान पर मिलन अर्थात् संगम कैसे संभव है ?

युधिष्ठिर उवाच
सदा धर्मश्र्च भार्या च परस्परवशानुगौ।
तदा धर्मार्थकामानां त्रयाणामपि संगमः।।२.२९.१।।

जिस समय धर्म एवं स्त्री परस्पर एक -दूसरे के वशीभूत हो जाते हैं , उस समय धर्म , अर्थ एवं कामना का संगम होता है।

२.२८ माया

यक्ष उवाच
कोऽहंकार इति प्रोक्त्तः कश्र्च दम्भः प्रकीर्तितः।
किं तद्दैवं परं प्रोक्त्तं किं तत्पैशुन्यमुच्यते ।।२.२८.१।।

अहंकार क्या है ?
दम्भ क्या है ?
भाग्य क्या है तथा कहाँ है ?
चुगली ( पिशुनता ) किसे कहा जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
महाज्ञानमहंकारो दम्भो धर्मो ध्वजोच्छ्रयः।
दैवं दानफलं प्रोक्त्तं पैशुन्यं परदूषणम्।।२.२८.२।।

महाअज्ञान ही अभिमान है।
संसार में अपनी पूजा करवाने हेतु ही धर्म का दम्भ किया जाता है।
पिछले जन्म में किये गये दान का फल ही देव का भाग्य है।
दूसरों के कमजोरियों को बतलाना ही चुगली कहलाता है।

२.२७ ज्ञानी और मुर्ख

यक्ष उवाच
कः पण्डितः पुमांज्ञेयो नास्तिकः कश्र्च उच्यते।
को मूर्खः कश्र्च कामः स्यात्को मत्सर इति स्मृतः।।२.२७.१।।

ज्ञानी पुरुष कौंन होता है ?
ईश्र्वर को न मानने वाला पुरुष कौंन है ?
मुर्ख व्यक्त्ति कौंन होता है ?
काम कौंन है ? मत्सर (ईर्ष्या) कौंन है ?

धर्मज्ञः पण्डितो  ज्ञेयो नास्तिको मुर्ख उच्यते।
कामः संसारहेतुश्र्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः।।२.२७.२।।

धर्म का ज्ञान रखने वाला ही पंडित है।
ईश्र्वर को न मानने वाला ही मुर्ख कहा गया है।
संसार से वासना न खत्म होना ही काम है।
दूसरों की धन - संपत्ति देखकर अपने हृदय में आग उठाना ही मत्सर अर्थात् ईर्ष्या है।

२.२६ ऋषि और श्रेष्ठ

यक्ष उवाच
किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्त्तं किं च धैर्यमुदाहृतम्।
स्नानं च किं परं प्रोक्त्तं दानं च किमिहोच्यते।।२.२६.१।।

ऋषियों द्वारा कही हुई स्थिरता क्या है ?
उनके द्वारा कही गई धैर्यता कौन - सी है ?
स्नानों में श्रेष्ठ स्नान कौन - सा  है ?
दानों में सबसे बड़ा दान क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
स्वधर्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम्।।२.२६.२।।

अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है।
इन्द्रियों पर संयम रखना ही धैर्य है।
अपने मन के मलों को छोड़ना ही सबसे बड़ा स्नान है।
समस्त प्राणियों की रक्षा करना ही श्रेष्ठ दान है।

२.२५ माया

यक्ष उवाच
को मोहः प्रोच्यते राजन् कश्र्च मानः प्रकीर्तितः।
किमालस्यं च विज्ञेयं कश्र्च शोकः प्रकीर्तितः।।२.२५.१।।

हे राजन् ! मोह क्या है ?
अभिमान क्या है ?
आलस्य क्या है ?
शोक अर्थात् दुःख क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
मोहो हि धर्ममूढत्वं मानस्त्वात्माभिमानिता।
धर्मनिष्क्रियतालस्यं शोकस्त्वज्ञानमुच्यते।।२.२५.२।।

धर्म का अज्ञान ही मोह है।
अपने आपको सबसे उत्तम समझना ही मान है।
धर्माचरण न करना ही आलस्य है।
ज्ञान से रहित ही शोक है।

सोमवार, 21 मार्च 2016

२.२४ शत्रु और साधु

यक्ष उवाच
कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्र्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्र्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः।।२.२४.१।।

सबसे बड़ा शत्रु मनुष्यों का कौंन है ?
सबसे बड़ा रोग कौन - सा  है ?
साधु  किसे कहते हैं ?
असाधु किसको कहा जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुर्लोभो व्याधिरनन्तकः।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः।।२.२४.२।।

पुरुषों का परम शत्रु उनका क्रोध होता है।
मनुष्यों का लालच ही सबसे बड़ा रोग अर्थात् व्याधि है।
साधु वह है , जो समस्त प्राणियों हेतु हितकारी हो।
असाधु वह है , जो निर्दयी हो।

२.२३ जरुरी गुण

यक्ष उवाच
किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्र्च प्रकीर्तितः।
दया च का परा प्रोक्त्ता किं चार्जुवमुदाहृतम्।।२.२३.१।।

हे राजन् ! श्रेष्ठ ज्ञान क्या है ?
शम क्या है ?
श्रेष्ठ दया क्या है ?
आर्जव क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोधः शमश्र्चित्तप्रशान्तता।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता।।२.२३.२।।

उत्तम ज्ञान तत्वों का ज्ञान है।
मन की शांति ही शम है।
सब लोगों का सुख चाहना ही दया है।
समचित्तता अर्थात् समदर्शीपन ही सरलता है।

२.२२ तपस्वी

यक्ष उवाच
तपः किं लक्षणं प्रोक्त्तं को दमश्र्च प्रकीर्तितः।
क्षमा च का परा प्रोक्त्ता का च ह्निः परिकीर्तिता।।२.२२.१।।

तप का लक्षण क्या है ?
दम किसको कहते हैं ?
क्षमा किसे कहते हैं ?
लज्जा किसे कहते हैं ?

युधिष्ठिर उवाच
तपः स्वधर्मवर्तित्वं मनसो दमनं दमः।
क्षमा द्वन्द्वसहिष्णुत्वं ह्रीरकार्यनिवर्तनम्।।२.२२.२।।

अपने धर्म में स्थित रहना ही तप है।
अपने चित्त को विषयों से रोकना ही दम है।
सर्दी - गर्मी अर्थात् तेजी तुर्षा इत्यादि को सहन करना ही क्षमा कहलाता है।
जो कार्य नहीं करने योग्य है , उन्हें न करना ही लज्जा है।
 

२.२१ श्रेष्ठ

यक्ष उवाच
का दिक्किमुदकं प्रोक्त्तं किमन्नं किं च वै विषम्।
श्राद्धस्य कालमाख्याहि ततः पिब हरस्व च।।२.२१.१।।

दिशाओं में कौन - सी दिशा श्रेष्ठ है ?
जलों में श्रेष्ठ जल कौन - सा  है ?
विषों में प्रभावशाली विष कौन - सा है ?
अन्नों में श्रेष्ठ अन्न कौन - सा है ?
श्राद्ध करने का श्रेष्ठ फल कौन - सा  है ?
हे राजन् ! तुम मेरे इन प्रश्नों का उत्तर देकर जल ग्रहण करो तथा ले भी जाओ।

युधिष्ठिर उवाच
सन्तो दिग्जलमाकाशं गौरन्नं प्रार्थना विषम्।
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः कथं वा यक्ष मन्यसे।।२.२१.२।।

संत लोग उत्तम दिशा अर्थात् शुभमार्ग बताने वाले हैं।
बादल का जल सर्वश्रेष्ठ जल है।
उत्तम अन्न जीवन रूप गौ है।
याचना अर्थात् किसी से कुछ मांगना सबसे प्रभावशाली विष है।
श्राद्ध का उत्तम फल वह है , जब श्रेष्ठ ब्राह्मण मिले।
हे यक्ष! मैं तो ऐसा ही मानता हूँ , आप किस तरह मानते हैं , बताइये ?
 

२.२० मृत समान

यक्ष उवाच
मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत्।
श्राद्धं मृतं कथं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत्।।२.२०.१।।

कौन - सा पुरुष मरे हुए के समान होता है ?
कौन - सा देश मरे हुए की भांति होता है ?
नहीं किया हुआ इस तरह का श्राद्ध कौन - सा होता है ?
मृतक अर्थात् नहीं किया जैसा यज्ञ कौन - सा  है ?

युधिष्ठिर उवाच
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः।।२.२०.२।।

दरिद्र पुरुष मरे हुए की भांति होता है।
बिना राजा वाला देश मरे हुए की भांति होता है।
वेद पढ़ने वाले ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मरे हुए  की भांति होता  है।
दक्षिणा दिये  बिना किया गया यज्ञ मरे  हुए की भांति होता है।

२.१९ मनुष्य गुण

यक्ष उवाच
केनस्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति।।२.१९.१।।

क्या है जिससे व्यक्त्ति आच्छादित अर्थात् ढका रहता है ?
वह क्या है ,जिससे व्यक्त्ति प्रकाशित नहीं होता ?
मनुष्य अपने मित्रों को किस कारणवश छोड़ देता है ?
मनुष्य स्वर्ग में किस कारण नहीं जा पाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
अज्ञानेनावृत्तो लोकस्तमसा न प्रकाशते।
लोभात्त्यजति मित्राणि संगात्स्वर्गं न गच्छति।।२.१९.२।।

मनुष्य अज्ञान से ढका  रहता  है।
तमोगुण से मनुष्य प्रकाशमान् नहीं होता है।
मनुष्य अपने लालच के कारण मित्रों को छोड़ देता है।
कुसंगति के कारण मनुष्य स्वर्ग नहीं जा पाता है।

२.१८ दान

यक्ष उवाच
किमर्थं ब्राह्मणे दानं किमर्थं नटनर्तके।
किमर्थं चैव भृत्येषु किमर्थं चैव राजसु।।२.१८.१।।

ब्राह्मण को दान क्यों दिया जाता है ?
नट नर्तकों हेतु दान क्यों दिया जाता है ?
सेवकों को दान क्यों दिया जाता है ?
राजाओं को दान क्यों दिया जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
धर्मार्थं ब्राह्मणे दानं यशोऽर्थं नटनर्तके।
भृत्येषु भरणार्थं वै भवार्थं चैव राजसु।।२.१८.२।।

धर्म हेतु ब्राह्मणों को दान दिया जाता है।
नट नर्तकों को यश प्राप्त करने हेतु दान दिया जाता है।
सेवकों को दान उन्हें अपने पोषण करने हेतु दिया जाता है।
राजाओं को अपने प्रताप में वृद्धि करने हेतु दान दिया जाता है।

२.१७ त्याग

यक्ष उवाच
किं नु हित्वा न प्रियो भवित किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वार्थवान् भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत्।।२.१७.१।।

ऐसी क्या चीज़ है जिसे त्यागने से मनुष्य सब लोगों का प्रिय होता है ?
किसका त्याग करने से व्यक्त्ति दुःखी नहीं होता ?
किसका त्याग करने सेव्यक्त्ति अर्थवान् होता है ?
किसका त्याग करने से  व्यक्त्ति सुखपूर्वक रहता है ?

युधिष्ठिर उवाच
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति।
कामं हित्वार्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।२.१७.२।।

मनुष्य अपने गर्व (अहंकार) का त्याग करने से सब लोगों का प्रिय होता है।
मनुष्य को क्रोध का त्याग करने से शोक नहीं करना पड़ता है।
मनुष्य अपनी अभिलाषाओं का त्याग कर अर्थवान् हो जाता है।
लालच का त्याग कर मनुष्य सुखी हो जाता है।

२.१६ धर्म और व्यक्त्ति

यक्ष उवाच
कश्र्च धर्मः परो लोके कश्र्च धर्मः सदाफलः।
किं नियम्य न शोचन्ति कैश्र्च सन्धिर्न जीर्यते।।२.१६.१।।

लोक में उत्तम धर्म क्या है ?
सदैव फलदात्री धर्म क्या है ?
किस पर संयम रखकर व्यक्त्ति दुःख का अनुभव नहीं करता ?
किसके संग की गई मित्रता नहीं छूटती ?

युधिष्ठिर उवाच
आनृशंस्यं परो धर्मस्त्रयीधर्मः सदाफलः।
मनो यम्य न शोचन्ति सन्धिः सदिभर्न जीर्यते।।२.१६.२।।

लोकों में उत्तम धर्म सन्यास लेना है।
हमेशा फलदात्री धर्म यज्ञ है।
अपने मन पर संयम रखके व्यक्त्ति चिन्ता नहीं करता है।
सज्जन व्यक्त्तियों के साथ की गयी मित्रता कभी नहीं छूटती।

२.१५ श्रेष्ठ

यक्ष  उवाच
धन्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यात्किमुत्तमम्।
लाभानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्यात्किमुत्तमम्।।२.१५.१।।

धन्य लोगों में अत्यधिक श्रेष्ठ धन्य कौन होता है ?
धनों में श्रेष्ठ धन क्या है ?
लाभ में श्रेष्ठ लाभ क्या है ?
सुखों में श्रेष्ठ सुख  क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
धन्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।
लाभानां श्रेय आरोग्य सुखानां तुष्टिरुत्तमा।।२.१५.२।।

धन्य लोगों में वह मनुष्य श्रेष्ठ धन्य है , जिसमें दूसरों के उपकार करने की चतुराई है।
धनों में विद्या श्रेष्ठ धन होती है।
लाभों में रोग मुक्त्त रहना ही श्रेष्ठ लाभ है।
संतुष्ट रहना ही सुखों में सबसे बड़ा सुख है।




रविवार, 20 मार्च 2016

२.१४ मनुष्य

यक्ष उवाच
किंस्विदात्मा मनुष्यस्य किंस्विद्दैवकृतः सखा ।
उपज्जीवनं किंस्विदस्य किंस्विदस्य परायणम् ।।२.१४.१।।

मनुष्य की आत्मा कौन होता है ?
दैव का किया हुआ व्यक्त्ति का मित्र कौन होता है ?
व्यक्त्ति का उपजीवन कौन है ?
मनुष्य का पालनकर्त्ता कौन है ?

 युधिष्ठिर उवाच
पुत्र आत्मा मनुष्यस्य भार्या दैवकृतः सखा।
उपजीवनं च पर्जन्यो दानमस्य परायणम्।।२.१४.१।।

पुत्र ही मनुष्य की आत्मा होता है।
दैव का किया हुआ मनुष्य का मित्र नारी है।
मनुष्य का उपजीवन बादल होता है।
दान ही व्यक्त्ति का पालनकर्त्ता होता है।

२.१३ प्रमुख स्थान

यक्ष उवाच
किंस्विदेकपदं धर्म्यं किंस्विदेकपदं यशः।
किंस्विदेकपदं  स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम्।।२.१३.१।।

धर्म का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
यश का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
स्वर्ग का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?
सुख प्राप्त करने का प्रमुख स्थान कौन-सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
दाक्ष्यमेकपदं धर्म्यं दानमेकपदं यशः।
सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम्।।२.१३.२।।

धर्म का मुख्य स्थान दक्षता अर्थात् चतुरता है।
यश प्राप्ति का मुख्य द्वार दान है।
स्वर्ग प्राप्ति का मुख्य द्वार सत्य है।
सुख पाने का मुख्य स्थान शील है।

२.१२ संसार

यक्ष उवाच
किंस्विदेको विचरते जातः को जायते पुनः।
किंस्विद्धिमस्य भैषज्यं किंस्विदावपनं महत्।।२.१२.१।।

इस जगत में अकेला कौन विचरण करता है ?
जन्म लेने के बाद पुनः जन्म कौन लेता है ?
सर्दी की औषधि क्या है ?
सबसे बड़ा क्षेत्र कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
सूर्य एको विचरते चन्द्रमा जायते पुनः।
अग्निर्हिमस्य भैषज्यं भूमिरापवनं महत्।।२.१२.२।।

इस सम्पूर्ण जगत् में सूर्य ही अकेला विचरण करता है।
जन्म लेने के पश्र्चात् चन्द्रमा ही बढ़ता है अर्थात् घटता - बढ़ता है।
सर्दी की औषधि आग है।
बीजारोपण हेतु सबसे विशाल क्षेत्र धरती है।

२.११ धर्म और संसार

यक्ष उवाच
कोऽतिथिः सर्वभूतानां किंस्विद्धर्मं सनातनम्।
अमृतं किंस्विद्राजेन्द्र किंस्वित्सर्वमिदं जगत्।।२.११.१।।

सभी जीवों का मेहमान कौन है ?
प्राचीन काल का सनातन धर्म क्या है ?
अमृत क्या है ?
सम्पूर्ण संसार में कौन फैला हुआ है ?

युधिष्ठिर उवाच
अतिथिः सर्वभूतानामग्निः सोमो गवामृतम्।
सनातनोऽमृतो धर्मो वायुः सर्वमिदं जगत्।।२.११.२।।

सभी जीवों की अतिथि या पूजनीय अग्नि है।
गौ की रक्षा ही सनातन धर्म है।
गौ का दुग्ध ही अमृत है।
सम्पूर्ण संसार में हवा फैली हुई है।

२.१० गृहस्थ

यक्ष उवाच
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः।।१०.१।।

प्रवास में रहने वाले का मित्र कौन होता है ?
गृहस्थ व्यक्त्ति का मित्र कौन है ?
रोगी का मित्र कौन है ?
मृत्यु को प्राप्त होने वाले का मित्र कौन है ?

सार्थं: प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्य भिषं मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।।१०.२।।

प्रवास में संग रहने वाला ही मित्र है।
गृहस्थ व्यक्त्ति की मित्र स्त्री है।
रोगी का मित्र औषधि (दवा) है।
मरने वाले का मित्र दान है।

२.९ अनोखा

यक्ष उवाच
किंस्वित्सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चोपति।
कस्यस्विद्धदयं नास्ति किंस्विद्वेगेन वर्धते।।९.१।।

ऐसा कौन है , जो सोए हुए भी नेत्रों को बंद नहीं करता है ?
उत्पन्न होने वाला ऐसा कौन है , जो चलता नहीं ?
किसके हृदय नहीं होता है ?
अत्यधिक तेज गति से वृद्धि करने वाला कौन है ?

युधिष्ठिर उवाच
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति।
अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते।।९.२।।

सोया हुआ मत्स्य अपने नेत्रों को बंद नहीं करता।
जन्म लेने वाला यह ब्रह्माण्ड स्थिर है।
पत्थर का हृदय नहीं होता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि योगी के हृदय में मोह , शोक आदि नहीं होता।
तेज़ गति से बढ़ने वाली नदी होती है। अर्थात् सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त योगी का चित्त नदी के सदृश है।

२.८ सबसे उत्तम

यक्ष उवाच
किं स्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद्वहुतरं तृणात् ।।८.१।।

पृथ्वी से विशाल कौन होता है ?
आकाश से ऊँचा कौन होता है ?
पवन से अधिक तेज गति वाला कौन है ?
तृण से भी अधिक तुच्छ क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।।८.२।।

माता धरती से भी अत्यधिक विशाल है।
पिता आकाश से भी अधिक उच्च है।
चित्त पवन से भी अधिक तेज गति वाला है।
चिन्ता तृण से भी अधिक तुच्छ एवं निकृष्ट है।
  

२.७ समान प्राणि

यक्ष उवाच
इन्द्रियार्थाननुभवन्बुद्धिमांल्लोकपूजितः।
सम्मतः सर्वभूतानमुच्छ्वसन् को जीवति।।७.१।।

विषयों का उपभोग करने वाला बुद्धिमान कौन होता है ?
लोक द्वारा कौन है , जो पूजा करता है ?
संसार के सभी प्राणियों का प्रिय कौन होता है ?
 श्र्वास न रुकने पर भी मृत समान कौन होता है ?

युधिष्ठिर उवाच
देवतातिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्र्च यः।
न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्वसन्न स जीवति।।७.२।।

ईश्र्वर , घर आये मेहमान तथा सेवक , इन लोगों को तृप्त करने के उपरांत जो विषयों का उपभोग करता है , वही बुद्धिमान कहा जाता है।
जो पितरों को संतुष्ट करता है , लोकों द्वारा वही पूजित होता है अर्थात् उसी का आदर होता है।
जो संसार में समस्त प्राणियों को अपने सदृश देखता है , वही सम्पूर्ण लोगों का प्रिय होता है।
जो मनुष्य , ईश्र्वर , अतिथिगण , भृत्य , पितर , तथा आत्मा - इन पाँचों को संतुष्ट नहीं कर पाता , वह जीवित रहने पर भी मृतक के सदृश होता है।

२.६ श्रेष्ठफल

यक्ष उवाच
किंस्विदावपतां श्रेष्ठं किंस्विन्निर्वपतां वरम्।
किंस्वित्प्रतिष्ठमानानां किंस्वित्प्रसवतां वरम्।।६.१।।

देवताओं को संतुष्ट करने वाले के श्रेष्ठफल क्या है ?
पितरों को संतुष्ट करने वालों का फल क्या है ?
प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों का उत्तम फल क्या है ?
उत्तम संतान की इच्छा रखने वालों का उत्तम फल क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
वर्षाभावपतां श्रेष्ठं बीजं निर्वपतां वरम्।
गावः प्रतिष्ठमानानां पुत्रः प्रसवतां वरः।।६.२।।

देवताओं को संतुष्ट करने वालों हेतु श्रेष्ठ फल वृष्टि है।
पितरों को संतुष्ट करने वालों को बीज अर्थात् क्षेत्र , आरामदायक जीवन , संतति इत्यादि श्रेष्ठ फल है।
प्रतिष्ठा की कामना रखने वालों का श्रेष्ठ फल गाय है।
संतान चाहने वालों का श्रेष्ठ फल पुत्र है।

२.५ यज्ञ

यक्ष उवाच
किमेकं यज्ञियं साम किमेकं यज्ञियं यजुः।
का चैषां वृणुते यज्ञं कां यज्ञो नातिवर्तते।।५.१।।

यज्ञ सम्बन्धी सामवेद क्या है ?
यज्ञ सम्बन्धी यजुर्वेद क्या है ?
वेदों में यज्ञ को कौन स्वीकार करता है ?
यज्ञ का उल्लंघन करने से किसको प्रयोग में नहीं लाते ?

युधिष्ठिर उवाच
प्राणो वै यज्ञियं साम मनो वै यज्ञियं यजुः।
ऋगेका वृणुते यज्ञं यज्ञो नतिवर्तते।।५.२।।

एक प्राण है , जो यज्ञ संबंधी साम है।
मन ही यज्ञ संबंधी यजुर्वेद है।
एक ऋक् ही यज्ञ को स्वीकारता है।
यज्ञ ही उसको उल्लंघन करके प्रयोग में नहीं लाते हैं।



२.४ क्षत्रिय

यक्ष उवाच
किं क्षत्रियाणां देवत्वं कश्र्च धर्मः सतामिव।
कश्र्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव।।४.१।।

क्षत्रियों में देवत्व क्या है ?
उनका श्रेष्ठ धर्म कौन - सा है ?
उनका मानुष भाव क्या है ?
उनका असत् आचरण कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
इष्वणस्तेषां   देवत्वं यज्ञ एषां सतामिव।
भयं वै मानुषो भावः परित्यागोऽसतामिव।।४.२।।

क्षत्रियों का परम धर्म धनुर्विद्या ही है।
यज्ञ करना ही इनका श्रेष्ठ आचरण है।
भय ही उनका मानुष भाव है।
शरण में आए हुए को छोड़ देना ही इनका असत् आचरण है।


 

२.३ ब्राह्मण

यक्ष उवाच
किं ब्राह्मणानां देवत्वं कश्र्च धर्मः सतामिव।
कश्र्चैषां मानुषो भावः किमषामसतामिव।।३.१।।

ब्राह्मणों में देवत्व क्या है ?
उनका श्रेष्ठ धर्म कौन - सा है ?
उनका मानुष भाव क्या है ?
उनका असत् आचरण कौन - सा है ?

युधिष्ठिर उवाच
स्वाध्याय एषां देवत्वं तप एषां सतामिव।
मरणं मानुषो भावः परिवादोऽसतामिव।।३.२।।

वेदों का अध्ययन ब्राह्मणों का देवत्व है।
तप करना ही इनका सच्चा धर्म माना गया है।
मृत्यु को प्राप्त होना ही इनका मानुष भाव है।
बुराई निकालना ही इनका बुरा अर्थात् असत् आचरण है।

२.२ ब्राह्मण

यक्ष उवाच
केनस्विच्छ्रोत्रियो भवति केनस्विद्विन्दते महत्।
केनस्विद्विद्वतीयवान्भवति राजन्केनचबुद्धिमान् ।।२.१।।

क्या करने से ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है?
यह ब्रह्म को किस तरह प्राप्त होता है ?
वह वृत्ति में अन्य लोगों  सदृश किस प्रकार होता है ?
हे राजन् ! मनुष्य बुद्धिमान किस तरह होता है ?

युधिष्ठिर उवाच
श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत्।
वृत्या द्वितीयवान्भवति बुद्धिमान्वृद्धसेवया ।।२.२।।

वेद का अध्ययन करने से ब्राह्म्ण श्रोत्रिय कहा जाता है।
तप करने से ब्रह्म अर्थात्  परम परमात्मा को प्राप्त होता है।
धैर्य धारण करके दूसरों के सदृश होता है।
वृद्धों की सेवा करने से मनुष्य बुद्धिमान होता है।

२.१ सूर्य

यक्ष उवाच
किंस्विदादित्यमुन्नयति के च तस्याभितश्र्चराः।
कश्र्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्र्च प्रतितिष्ठति।।१.१।।

सूर्य को कौन उदय करता है?
इसके चारों ओर कौन है?
इसको अस्त कौन करता है?
यह सूर्य किसमें स्थित है ?

युधिष्ठिर उवाच
ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवस्तस्याभितश्र्चराः।
धर्मश्र्चस्तं नयति च सत्ये च प्रतिष्ठिति।।१.२।। 

राजा युधिष्ठिर ने कहा -

सूर्य के सदृश तेजस्वरूप वाले जीव को वेद उदय करता है। अर्थात् शरीर को अभिमान रूपी अज्ञान से छुड़ाकर वह उसे ब्रह्म स्वरूप करता है।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहते हैं ; क्योंकि शम तथा दम आदि के बिना वेदवेत्ता को भी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।

इसको अस्त करने वाला धर्म है। अर्थात् इस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म से प्राप्त किया जा सकता है।

यह सत्य में स्थित है। अर्थात् जो धर्म आत्मा में विद्यमान है , उस आत्मा को हृदयरूपी आकाश में धर्म ही प्राप्त कर सकता है , अर्थात सब में स्थिर जो ब्रह्म है , उसी के कारण आत्मा में प्रकाश विद्यमान रहता है।

सत्य 
यहाँ पर सूर्य सत्य को कहा गया है। मैं चाहता था कि लोग सत्य को सूर्य के रूप में देखे। सत्य ही जीवन देता है।  यह पूरा ब्रह्माण्ड एक माया है जिसको सत्य रूप देता है। सत्य वह है जिसपर मैंने विचार किया क्योंकि उसी का रूप है। आत्मा का कोई रूप नहीं होता। जब उसमे सत्य मिलता है तब उसे रूप प्राप्त होता है। सत्य ही ब्रह्माण्ड है चाहे वह सूक्ष्म हो या विराट।

इसके चारों ओर शम एवं दम रहता है। सत्य से शम और दम की उत्पत्ति होती है जो सत्य के मूल जीव को चारों ओर से ढके रहते हैं। सत्य से शम और दम को रूप मिलता है। शम और दम ब्रह्माण्ड को चलायमान रखते हैं। अगर सत्य वक्त्ता है तो जीव श्रोता। शम और दम इन दोनों के बीच सेतु का काम करते हैं।

जिसकी उत्पत्ति हुई उसका अंत भी होता है। जब कोई ब्रह्माण्ड धर्म के अनुरूप नहीं चलता तब उसके विनाश का समय समीप आ जाता है। धर्म नियम है। लेकिन नियम धर्म नहीं होता। जब ब्रह्माण्ड नहीं रहेगा तब सत्य का भी अंत हो जाएगा। सत्य धर्म का पुत्र है। धर्म तब भी रहता है जब कुछ नहीं है और तब भी जब सब कुछ है। जो धर्म को नहीं मानता  विनाश निश्र्चित है। जो धर्म के अनुरूप चलता है उसे सत्य प्राप्त होता है , ब्रह्माण्ड मिलता है और एक रूप प्राप्त होता है।  क्योंकि आत्मा का कोई रूप नहीं होता वह अमर है।

सत्य सत्य में स्थित है। जैसे एक कमरा होता है पर एक घर में  बहुत से और कमरे होते हैं उसी प्रकार धर्म भी सत्य का रूप है वह परम सत्य है।  सत्य के चारों ओर सत्य ही स्थित है। पर यह ब्रह्माण्ड रुपी सत्य से भी शूक्ष्म है।

यक्ष और युधिष्ठिर

आने वाले कुछ पोस्ट में मैं धर्मराज युधिष्ठिर और धर्म के बीच हुए वार्तालाप जो प्रश्नो के रूप में हैं उपस्तिथ करुँगा।

एतेन व्यवसायेन तत्तोयं व्यवगाढ़वान्।
गहमानश्र्च तत्तोयमन्तरिक्षात्सशुश्रुवे।।१।।

यक्ष उवाच
अहं बकः शैवालमत्स्यभक्षो नीता मया प्रेतवशं तवानुजाः।
त्वं पञ्चमो भविता राजपुत्र न चेत्प्रश्नान्पृच्छतो व्याकरोषि।।२।।

मा तात साहसं कार्षिर्मम पूर्वपरिग्रहः।
प्रश्नानुक्त्वातु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च।।३।।

युधिष्ठिर उवाच
रुद्राणां वा वसूनां वा मरुतां वा प्रधानभाक्।
पृच्छामि को भवान्देवो नैतच्छकुनिना कृतम्।।४।।

हिमवान्परियात्रश्र्च विन्ध्यो मलय एव च।
चत्वारः पर्वताः के पातिता भूरितेजसः।।५।।

अतीव ते महत्कर्म कृतं च बलिनां वर।
यान्न देवा न गन्धर्वा नासुराश्र्च न राक्षसाः।।६।।

विषहेरन्महायुद्धे कृतं ते तन्माहाद्भुतम्।
न ते जानामि यत्कार्यं नाभिजानामि कांक्षितम्।।७।।

कौतूहलं महज्जातं साध्वसं चागतं मम्।
येनाऽस्मयुद्विग्नहृदयः समुत्पन्निशिरोज्वरः।।८।।

 यक्ष उवाच
पृच्छामि भगवंस्तस्मात्को भवानिह तिष्ठति।
यक्षोऽहमस्मि भद्रं ते नास्मि पक्षी जलेचरः।।९।।

मयैते निहताः सर्वे भ्रातरस्ते महौजसः। 
ततस्तामशिवा श्रुत्वा वाचं स परुषाक्षराम्।।१०

यक्षस्य ब्रुवतो राजन्नुपक्रम्य तदा स्थितः। 
विरूपाक्षं महाकायं यक्षं तालसमुच्छ्रयम्।।११।।

ज्वलनार्कप्रतीकाशमधृष्यं पर्वतोपमम्। 
वृक्षमाश्रित्य तिष्ठन्तं ददर्श भरतर्षभः।।१२।।

  

बुधवार, 16 मार्च 2016

वैशम्पायन और जनमेजय

 जनमेजय उवाच

जब मैंने वेद और पुराण लिखे तब मै चाहता था कि लोग अपनी बुद्धि इस्तेमाल कर के सत्य को ढूढ़ेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।  कुछ लोगों की वजह से सत्य खो गया। इस ब्लॉग पर मैं उन सब बातों को उकेरुंगा जिनकी मैंने असल में व्याक्ख्या की थी।

वेदों और बहुत से ग्रंथों की उत्पत्ति मेक्सिको की माया सभ्यता के उद्गम स्थान पर हुई थी। जिसको मैंने व्यास के रूप में अवतरित होकर उसका विस्तार किया।  जब मैं व्यास के रूप में इनको बिना किसी से पूछे लिखा तो लोगों ने इसको एक चमत्कार माना। पर यह चमत्कार नहीं था।  मैं उनको अपने आप इसलिए लिख पाया क्योंकि मैंने ही उनकी रचना आज से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व मेक्सिको में लिखी थी।  मैंने वहीं पर पुराणों कि व्याक्ख्या की जो मेरे शिष्य ने किताबों के रूप में संग्रहित की।