शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

६.१२ बुद्धि तपस्या सेवा योग

बुद्धया भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत्।
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति।।६.१२।।

इस जगत् में मनुष्य बुद्धि से डर को दूर कर सकता है , तपस्या के द्वारा महत्त्व को प्राप्त कर सकता है , गुरुजनों की सेवा से ज्ञान तथा योग के द्वारा शक्त्ति प्राप्त कर सकता है।

६.११ इन्द्रियां

चलानि हीमानि षडिन्द्रियाणि तेषां यद्यद्वर्धते यत्र यत्र।
ततस्ततः स्रवते बुद्धिरस्य चिद्रोदकुम्भादिव नित्यमम्भः।।६.११।।  

मनुष्य की पाँचों इन्द्रियां एवं छठा मन बहुत ही चंचल होता है।  इनमें से जो इन्द्रियां जिस -जिस विषय की ओर बढ़ती है , उस - उस  जगह पर मनुष्य की बुद्धि उसी तरह नष्ट हो जाती है , जिस तरह फूटे घड़े से जल टपकता रहता है।   

६.१० धैर्यवान् पुरुष

पुनर्नरो म्रियते जायते च पुनर्नरो हीयते वर्धते च।
पुनर्नरो याचति याच्यते च पुनर्नरः शोचति शोच्यते च।।६.१०.१।।

मनुष्य बार - बार  मरता है  और बार - बार जन्म लेता है , कभी धन - सम्पत्ति बढ़ती है कभी खत्म हो जाती है। कभी वह स्वयं दूसरों से दीनता का प्रदर्शन करता है , तो कभी दूसरे लोग उसके समान दीन बन जाते हैं।  कभी वह दूसरों के लिये दुःखी होता है तथा कभी दूसरे लोग उसके लिये शोक करते हैं।

सुखं च दुःखं च भवाभवौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च। 
पर्यायशः सर्वमेते स्पृशन्ति तस्माध्दीरो न च हृष्येन्न शोचेत् ।।६.१०.२।।

सुख - दुःख , उत्पत्ति - विनाश , लाभ - हानि  एवं जीवन - मरण , हर व्यक्त्ति को बारी - बारी से इन स्थितियों से अवगत होना पड़ता है , अतः धैर्यवान् पुरुषों को इन सबके लिये प्रसन्नता एवं दुःख नहीं करना चाहिये।  

६.९ चिन्ता

सन्तापाद्भ्रश्यते रूपं सन्तापाद्भ्रश्यते बलम्।
सन्तापाद्भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद्व्याधिमृच्छति।।६.९.१।।

कष्ट सहने से रूप नष्ट हो जाता है , दुःखी रहने या चिन्ता करने से सामर्थ्य नष्ट हो जाता है , संताप से ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है तथा संताप या चिन्ता करने से पुरुष अनेक रोगों से घिर जाता है।

अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते।
अमित्राश्र्च प्रहृष्यन्ति मा स्म शोके मनः कृथाः।।६.९.२।।

यदि व्यक्त्ति चिन्ता में लगा रहता है , तो उसे मनचाही वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती , बल्कि चिन्ता करने से मनुष्य का शरीर खत्म हो जाता है।  ऐसा होने से उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है , इसलिये शोक नहीं करना चाहिये।

६.८ दुष्ट मनुष्य

चलचित्तमनात्मानमिन्द्रियाणां वशानुगम्।
अर्थाः समभिवर्तन्ते हन्साः शुष्कं सरो यथा।।६.८.१।।

अचानक क्रोध करना एवं बिना कारण प्रसन्न होना , दुष्ट लोगों का स्वभाव होता है।  ऐसे लोग सदैव बादल के समान अस्थिर रहते हैं , जो वायु के जरा से झोंके से इधर से उधर उड़ते रहते हैं।

अकस्मादेव कुप्यन्ति प्रसीदन्त्यनिमित्ततः।
शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिपल्वं यथा ।।६.८.२।। 

दुष्ट मनुष्य बादल की तरह अस्थिर होते हैं , वे बिना बात अचानक ही क्रोध करने लगते हैं और बिना कारण ही प्रसन्न हो जाते हैं , जिस प्रकार बादल हवा के जरा सा झोंका से इधर -उधर उड़ते रहते हैं।

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

६.७ मित्र

न तन्मित्रं यस्य कोपाद्विभेति यद्वा मित्रं शंकितेनोपचर्यम्।
यस्मिन्मित्रे पितरीवाश्र्वसीत तद्वै मित्रं संगतानीतराणि।।६.७.१।।

वह मित्र नहीं है जिसके क्रोध से भयभीत होना पड़े तथा संक्षिप्त होकर जिसकी सेवा की जाए। सच्चा मित्र वही है जिसके ऊपर पिता के सदृश विश्र्वास की जा सके , दूसरे मित्र तो सङ्गिमात्र होते हैं , सच्चे मित्र नहीं।

यः कश्र्चिदप्यसम्बद्धो मित्रभावेन वर्तते।
स एव बन्धुस्तन्मित्रं सा गतिस्तत्परायणम्।।६.७.२।।

जिस मित्र के साथ पहले से कोई संबंध न हो फिर भी वह मित्रता का आचरण करता है , वही बन्धु एवं मित्र है।  वही मित्र सहारा और आश्रय होता है। अर्थात् वही मित्र हमारा भला चाहने वाला है।

चलचित्तस्य वै पुंसो वृद्धाननुपसेवतः।
पारिप्लवमतेर्नित्यम ध्रुवो मित्रसंग्रहः।।६.७.३।।

जिस व्यक्त्ति का मन चंचल है , वृद्धों के प्रति सेवा भाव न रखता हो तथा बुद्धि स्थिर न रहती हो , ऐसा व्यक्त्ति मित्रों का संग्रह नहीं कर सकता अर्थात् उसे मित्र प्राप्त नहीं होते।

सत्कृताश्र्च कृतार्थाश्र्च मित्राणां न भवन्ति ये।
तान्मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान्नोपभुञ्जते।।६.७.४।।

जो व्यक्त्ति अपने मित्रों से सत्कार पाकर उनके द्वारा कार्य सिद्ध हो जाने पर भी उनके हिट के विषय में नहीं सोचते अर्थात् जो सदैव दूसरों का अहित ही चाहते हैं ऐसे कृतघ्न के मरने पर उनका मांस मांसाहारी पक्षी भी नहीं खाते हैं।

अर्चयेदेव मित्राणि सति वाऽसति वा धने।
नानर्थयन्प्रजानाति मित्राणां सारफल्गुताम् ।।६.७.५।।

किसी व्यक्त्ति के पास चाहे धन हो या धन न हो , लेकिन मित्रों का सत्कार तो उनको करना ही चाहिये एवं मित्रों से कभी भी कुछ मांगकर उनके सार -असार की परीक्षा नहीं लेनी चाहिये।

६.६ चार चीज़े और अतिथ्य

तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन्।।६.६.१।।

सज्जन मनुष्यों के गृह में चटाई या तृण का आसन , धरती , पानी प्रिय एवं सत्य वाणी -इन चार वस्तुओं की कभी कमी नहीं होती।

श्रद्धया परया राजन्नुपनीतानि सत्कृतिम्।
प्रवृत्तानि महाप्राज्ञ धर्मिणां पुण्यकर्मिणाम्।।६.६.२।।

हे महाबुद्धिमान् राजन् ! पुण्य कार्य करने वाले धर्मात्माओं के यहाँ ये चारों वस्तुऐं श्रद्धापूर्वक सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं।

शनिवार, 16 जुलाई 2016

६.५ कुल के प्रकार

तपो दमो ब्रह्म वित्तं वितानाः पुण्या विवाहाः सततान्नदानमम
येष्वेवैते सप्त गुणा वसन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि।।६.५.१।।

जिन मनुष्यों में तप , अर्थात् समाधि में संलग्न रहने, इन्द्रियों पर संयम रखने , वेदों का स्वयं अध्ययन करने, यज्ञ करने , पवित्र विवाह अर्थात् दूसरी स्त्री पर दृष्टि न रखने , हमेशा अन्नदान करने एवं सदाचार - ये सात गुण निहित होते हैं।  ऐसे पुरुष को उत्तम पुरुष कुल का पुरुष कहते हैं।

येषां न वृत्तं व्यथते न योनिश्र्चित्तप्रसादेन चरन्ति धर्मम्।
ये कीर्तिमिच्छन्ति कुले विशिष्टांत्यत्त्कानृतास्तानि महाकुलानि।।६.५. २।।

जिन व्यक्तियों का अच्छा आचरण कभी भी क्षीण नहीं होता , जो कभी अपने अवगुणों से माता - पिता  को दुःखी नहीं करता , जो हमेशा खुशी मन से धर्म का पालन करता है और जो सदा सत्य बोलता है और असत्य का साथ न देकर अपने वंश का सम्मान बढ़ाता है , वे पुरुष ही उत्तम कुल के हैं।

अनिज्यया कुविवाहैर्वेदस्योत्सादनेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति धर्मस्यातिक्रमेण च।।६.५.३।।

यज्ञ न करने से , निन्दा योग्य कुल में विवाह करने से , वेद , शास्त्र आदि का अपमान करने से एवं धर्म को तोड़ने से उत्तम कुल की महानता भी नष्ट हो जाती है और वह अधम कुल का हो जाता है।

देवद्रव्यविनाशेन ब्रह्मस्वहरणेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च ।।६.५.४।।

देवताओं की धन - सम्पदा को नष्ट करने , ब्राह्मणों के धन को छीनने एवं ब्राह्मणों की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले पुरुष उत्तम होते हुए भी अधम बन जाते हैं।

ब्राह्मणानां परिभवात्परिवादाच्च भारत।
कुलान्यकुलतां यान्ति न्यासापरहरणेन् च ।।६.५.५।।

हे राजन् ! जो पुरुषों ब्राह्मणों का अनादर करते हैं , निंदा करते हैं और उनकी धरोहर स्वरूप वस्तु का हरण कर लेते हैं।  ऐसे पुरुष उत्तम कुल के होने पर भी निन्दा के पात्र बन जाते हैं।

कुलानि समुपेतानि गोभिः पुरुषतोऽर्थतः।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्ततः।।६.५.६।।

यदि किसी कुल के पास गौ , अत्यधिक धन एवं सेवा के लिये बहुत से पुरुष सहायक हैं लेकिन सदाचार से रहित हैं अर्थात् उनका आचरण अच्छा नहीं है , तो ऐसे पुरुष की अच्छे कुल में गणना नहीं की जा सकती है।

वृत्तत्स्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः।।६.५.७।।

जिन कुलों के पास धन नहीं होता , लेकिन जो सदाचार अर्थात् अच्छे आचरण से सम्पन्न हैं तो धन न होते हुए भी उनकी गिनती उत्तम कुल में की जाती है और वे खूब उन्नति करते हैं।

वृत्तं यत्नेन संरक्षेद्वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।६.५.८।।

सदाचार की रक्षा मनुष्यों को यत्नपूर्वक करनी चाहिये।  ऐसा इसलिये कहा गया है ; क्योंकि मनुष्य का धन तो आता है और खत्म भी हो जाता है।  अतः धन सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता है।  लेकिन यदि वह सदाचार से भ्रष्ट हो गया तो वह मृतक के समान समझा जाता है अर्थात् उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है।

गोभिः   पशुभिरश्र्वैश्र्च  कृष्णा च सुसमृद्धया।
कुलानि  न प्ररोहन्ति यानि हीनानि वृत्ततः।।६.५.९।।

जो कुल सदाचार से क्षीण होते हैं वे यदि गाय , पशु , घोड़े और हरे - भरे खेतों से सम्पन्न हैं तो भी वे अपनी उन्नति नहीं कर सकते हैं।

मा नः कुले वैरकृत्कश्र्चिदस्तु राजामात्यो मा परस्वापहारी।
मित्रद्रोही नैष्कृतिकोऽनृती वा पूर्वाशी वा पितृदेवातिथिभ्यः।।६.५.१० ।।

उत्तम कुल वाले की इच्छा होती है कि हमारे कुल में कोई शत्रुतापूर्वक व्यवहार करने वाला न हो , दूसरों के धन का हरण करने वाला , राजा या मंत्री भी न हो , मित्र विद्रोही न हो , छल -कपटी , झूठा , पिता , देवता तथा मेहमानों से पूर्व भोजन करने वाला भी न हो।

सूक्ष्मोऽपि भारं नृपते स्यन्दनो वै शक्त्तो वोढुं न तथान्ये महीजाः।
एवं युक्त्ता भारसहा भवन्ति महाकुलीना न तथान्ये मनुष्याः।।६.५. ११।।

छोटा - सा काठ का रथ भी भार ढो सकता है किन्तु कभी विशाल वृक्षों में भी यह शक्त्ति विद्यमान नहीं होती।  उसी प्रकार उत्तम कुल में जन्म लेने वाले उत्साही पुरुष सब कुछ सहन कर सकते हैं , अन्य पुरुषों में यह सहनशक्त्ति नहीं होती।   

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

६.४ पुरुष के प्रकार

भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः।
सत्यवादी मृदुर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः।।६.४.१।।

जो सभी मनुष्य की कल्याण की कामना रखता हो , जो किसी के अहित का विचार तक मन में न लाता हो , जो सच बोलने वाला हो तथा जो अत्यन्त कोमल स्वभाव का हो , जो जितेन्द्रिय हो अर्थात् इन्द्रियों को जीतने वाला हो , वही मनुष्य को उत्तम पुरुष या श्रेष्ठ पुरुष कहा जाता है।

नानर्थकं सान्त्वयति प्रतिज्ञाय ददाति च।
रन्ध्रं परस्य जानाति यः स मध्यमपूरुषः।।६.४.२।।

जो व्यक्त्ति दूसरों को झूठा दिलासा नहीं देता है , यदि कुछ देने की प्रतिज्ञा लेता है , तो उसे दे देता है एवं जो दूसरों के अवगुणों को जानता है।  ऐसे व्यक्त्ति को मध्यम श्रेणी का मनुष्य कहा जाता है।

दुःशासनस्तूपहतोऽभिशस्तो नावर्तते मन्युवशात्कृतघ्नः।
न कस्यचिन्मित्रमथो दुरात्मा कलाश्र्चैता अधमस्येह पुंसः।।६.४.३।।

जिसका शासन बुरा हो , जिसमें अनेकों अवगुण भरे हों , जो अपने बुरे कर्मों द्वारा शापित हो , जो क्रोध में किसी का भी अहित करने से मुँह न मोड़े , यदि किसी ने उसकी रक्षा की तो भी वह उसके उपकारों को नहीं मानता , किसी से भी मित्रता नहीं करना चाहता है , ऐसा पुरुष बुरी आत्मा वाला होता है।  वह अधम श्रेणी का मनुष्य कहा जाता है।  अतः दुःशासन भी इन सब अवगुणों से युक्त्त अधम पुरुष है।

न श्रद्दधाति कल्याणं परेभ्योऽप्यात्मशंकितः।
निराकरोति मित्राणि यो वै सोऽधमपूरुषः।।६.४.४।।

जिस व्यक्त्ति को स्वयं पर विश्र्वास नहीं होता अर्थात् जो अपने ही ऊपर शंका करते हैं वे दूसरों द्वारा कल्याण किये जाने पर भी उनके ऊपर विश्र्वास नहीं करता , मित्रों को भी निंदक कार्यों को करके दूर रखता है अर्थात् उसके मित्र उसके बुरे कर्मों को देखकर उसका त्याग कर देते हैं।  ऐसे मनुष्य को अधम पुरुष कहते हैं।

उत्तमानेव सेवेत प्राप्तकाले तु मध्यमान्।
अधमांस्तु नसेवेत य इच्छेद्भूतिमात्मनः।।६.४.५।।

जो व्यक्त्ति अच्छे कर्मों द्वारा संसार में अपनी उन्नति करना चाहता है , तो वे व्यक्त्ति उत्तम पुरुष अर्थात् सज्जनों की सेवा करें।  यदि आवश्यकता पड़े तो मध्यम पुरुष की भी एक समय पर सेवा कर ले ; किन्तु अधम पुरुषों की कभी भी सेवा मत करें।

प्राप्नोति वै वित्तमसद्बलेन नित्योत्थानात्प्रज्ञया पौरुषेण।
न त्वेव सम्यग्लभते प्रशंसां न वृत्तमाप्नोति महाकुलानाम्।।६.४.६।।

दुर्जन व्यक्त्ति भले ही अपनी शक्त्ति निरंतर उद्योग , बुद्धि से एवं अपने परिश्रम से धन एकत्र कर सकता है , किन्तु उत्तम श्रेणी के पुरुषों के सम्मान और उनके अच्छे आचरण को वह कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है; क्योंकि दुर्जन व्यक्त्ति को कभी भी प्रशंसा नहीं होती है।

बुधवार, 13 जुलाई 2016

६.३ दुःख का अनुभव

यतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते।
निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि।।६.३.१।।

मनुष्य स्वयं को जिन - जिन विषयों से दूर हटाता है , उन - उन विषयों से वह मुक्त्त हो जाता है।  इस तरह यदि मनुष्य सभी प्रकार के विषयों का त्याग कर दे अर्थात् निवृत्त हो जाए तो तनिक भी दुःख का उसे अनुभव नहीं होगा।

न जीयते चानुजिगीषतेन्यान्नवैरकृच्चाप्रतिघातकश्र्च।
निन्दाप्रशंसासु समस्वभावो न शोचते हृष्यति नैवचा यम्  ।।६.३.२।।

जो न तो किसी से जीता जा सकता है एवं जो न ही दूसरों को जीतने की इच्छा करता है , जो न किसी के साथ वैर करता है , न ही दूसरों को कष्ट पहुँचाता है , जो प्रशंसा और निन्दा को एक समान समझता है , वह  न  तो दुःख होने पर दुःखी होता है और न ही सुखी होने पर प्रसन्न होता है।  

६.२ मनुष्य का स्वभाव

यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशसभ्युपैति।।६.२.१।।

जिस तरह वस्त्र को जिस रंग में रंगा जाए , वह वैसे ही रंग का हो जाता है , उसी प्रकार जो मनुष्य सज्जन , दुर्जन , तपस्वी या चोर की शरण में रहता है , वह भी उन्ही के रंग में रंग जाता है अर्थात् वह भी उन्हीं के स्वभाव जैसा हो जाता है।

यादृशैः सन्निविशते यादुशांश्र्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्चव भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ।।६.२.२।।

यह मनुष्य पर निर्भर है कि कैसा बनना चाहता है ; क्योंकि मनुष्य जिन लोगों की संगति में रहता है , जिन लोगों की सेवा करता है तथा स्वयं वह अपनी इच्छानुसार जैसा बनना चाहता है , वह मनुष्य वैसा ही हो जाता है।



शनिवार, 2 जुलाई 2016

६.१ वाणी

एतत्कार्यममराः संसृतं मे घृतिः शमः सत्यधर्मानुवृत्तिः।
ग्रन्थि विनीय हृदयस्य सर्वं प्रियाप्रिये चात्मसमं नयीत।।६.१.१।।

परमहंस ने कहा - हे देवताओं ! मैंने तो सुना है कि मनुष्य का कर्त्तव्य धैर्य रखना , चित्त को वश में करना और सत्यधर्म का पालन करना है।  अतः मनुष्यों को अपने हृदय की सभी गांठें खोलकर प्रिय और अप्रिय सभी को अपनी आत्मा के समान समझना चाहिये।

आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति।।६.१.२।।

किसी व्यक्त्ति से अप्रिय या गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दें ; क्योंकि अपमान को सहते हुए जो क्रोध रोका गया है , वही क्रोध गाली देने वाले को जला डालता है और उसका पुण्य भी सहने वाले को मिल जाता है।

मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून् रूक्षां वाचो निर्दहन्तीह पुंसाम्।
तस्माद्वाचमुषतीं रूक्षरूपां धर्मारामो नित्यशो वर्जयीत ।।६.१.३।।

इस संसार में कटु शब्द पुरुषों के हृदय को , हड्डियों को , प्राणों को जला देते हैं।  इसी कारण दूसरों को भस्म करने वाले कठोर शब्दों का धर्मानुरागियों को परित्याग कर देना चाहिये।

नाक्रोशी स्यान्नावमानी परस्य मित्रद्रोही नोत नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वाचं रूषतीं वर्जयीत।।६.१.४।।

किसी अन्य व्यक्त्ति को अपशब्द न कहें अर्थात् गाली न दें तथा न ही उसे अपमानित करें।  जो मित्र हैं उनसे वैर न करें , नीच पुरुषों की सेवा न करें , सदाचार का त्याग न करें और घमंडी न बनें , कटु वाणी और रूखी बातों का त्याग करना चाहिये।

अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान्।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वै वहन्तम् ।।६.१.५।।

जो मनुष्य अपनी रूखी बातों द्वारा दूसरों के हृदय को आघात पहुँचाता है , जिस मनुष्य का व्यवहार अति कठोर होता है तथा जो अपने ब्राह्मणों द्वारा दूसरों को कष्ट पहुँचाता है। ऐसे मनुष्यों को अपने आपको अति दरिद्र समझना चाहिये।  और ऐसा समझना चाहिये कि वह अपने मुख में दरिद्रता अथवा मृत्यु को बांध कर ढो रहे हैं।

परश्र्चेदेनमभिविध्येत् बाणैर्भृशं सुतीक्ष्णैरनलार्कदीप्तैः।
स विध्यमानोऽप्यति दह्यमानो विद्यात्कविः सुकृतं मे दधाति ।।६.१.६।।

यदि कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को आग और सूर्य के सदृश जला देने वाले तेज वाणीरूपी बाणों से अत्यन्त चोट पहुंचावे तो उस विद्वान् मनुष्य को चोट खाकर पीड़ा सहन करते हुए भी यह समझना चाहिये कि कठोर वाणी का प्रयोग करने वाला मनुष्य उसके पुण्यों को ही पुष्ट कर रहा है।

अतिवादं न प्रवदेन्न वादयेद्योऽनाहतः प्रतिहन्यान्न घाटयेत्।
हन्तुं चयो नेच्छति पापकं वै तस्मै देवाः स्पृह्यन्त्यागताय ।।६.१.७।।

जो मनुष्य न स्वयं किसी के बारे में बुरी बात कहता है तथा न ही दूसरों को कहलवाता है।  बिना मार खाये न ही स्वयं किसी को मारता है न ही दूसरों को मरवाता है। जो मनुष्य मार खाकर भी दूसरों को नहीं मारता ऐसे मनुष्यों का देवतागण भी आने की राह देखते हैं।

अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद्व्याहृतं तदिद्वतीयम्।
प्रियं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं धर्म्यं वदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ।।६.१.८।।

न बोलना बोलने की अपेक्षा अच्छा बताया गया है ; परंतु न बोलने से अच्छा है कि सत्य बोलो।  सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाए तो यह वाणी की तीसरी विशेषता है तथा यदि सत्य धर्म सम्मत हो तो वह वाणी की चौथी विशेषता है।

मंगलवार, 24 मई 2016

५.२१ चार प्रकार के कर्म

बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत।
तानि जंघाजघन्यानि भारतप्रत्यवराणि च ।।५.२१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! संसार में कर्म चार प्रकार के होते हैं।  बुद्धि का प्रयोग कर जो काम किये जाते हैं वे उत्तम होते हैं , शक्त्ति का प्रयोग कर किये जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के होते हैं , कपटपूर्वक किये जाने वाले कर्म अधम श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं  और जो कर्म बोझ समझकर यानि जबरदस्ती किये जाते हैं वे महान् अधम श्रेणी के माने जाते हैं।

५.२० संचय

सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।
शूरश्र्च कृतविद्यश्र्च यश्र्च जानाति सेवितुम्।।५.२०।।

शूरवीर , विद्वान् और सेवा धर्म के मर्म को जानने वाला , ये तीन तरह का मनुष्य धरती से सोने के समान सुन्दर पुष्पों का संचय करते हैं।

५.१९ शिक्षा

गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्।
अथ प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः।।५.१९।।

जो मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है , उसको ऐसा करने की शिक्षा देने वाले गुरु कहलाते हैं।  दुष्टता करने वाले शिक्षा देने वाले राजा होते हैं तथा गुप्त पाप करने की शिक्षा देने वाले सूर्य का पुत्र यमराज होता है।

५.१८ दोष

धनेनाधर्मलब्धेन यच्छ्रिद्रमपिधीयते।
असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते।।५.१८।।

जो मनुष्य अधर्म करके प्राप्त किये हुए धन से दोष को छिपाने का प्रयास करते हैं।  वह दोष छिपता नहीं ; अपितु छिपने की जगह नया दोष प्रकट हो जाता है।

५.१७ प्रशंसा

जीर्णमन्नं प्रशंससन्ति भार्यां च गतयौवनाम्।
शूरं विजितसंग्रामं गतपारं तपस्विनम्।।५.१७।।

जो सज्जन पुरुष होते हैं , वह भोजन के पच जाने पर अन्न की , निष्कलंक यौवन बीत जाने पर स्त्री की , युद्ध में विजय प्राप्त कर लेने के बाद वीर की तथा तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर तपस्वी की प्रशंसा करते हैं।

५.१६ सुख

अनसूयुः कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन्सदा।
न कृच्छ्रं महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।५.१६.१।।

जो मनुष्य दूसरों की बुराई नहीं करता , सभी कार्यों को शुद्ध बुद्धि का प्रयोग करके करता है।  ऐसा मनुष्य सदैव शुभ कर्मों को करते हुए महान् सुख प्राप्त करता है तथा सर्वत्र यश की प्राप्ति करता है।

प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यः स पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवाप्य धर्मार्थौ शक्रोति सुखमेधितुम्।।५.१६.२।।  

जो मनुष्य विद्वान् लोगों के संग रहता है , उसकी बुद्धि विकसित होती है तथा वही मनुष्य पण्डित कहलाता है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं वह धर्म एवं अर्थ द्वारा अपने सुखों की वृद्धि करते हैं।

५.१५ पाप कर्म और पुण्य कर्म

पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम्।
पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमत्यन्तश्नुते।।५.१५.१।।

पाप कीर्ति वाला (गलत कार्य करने वाला ) मनुष्य पाप करते हुए पापरूप फल को ही प्राप्त करता है तथा पुण्य - कर्म (अच्छा कार्य करने वाला ) मनुष्य पुण्य करते हुए पुण्य रूप फल को ही प्राप्त करता है।  इसलिये मनुष्य को गलत कार्य छोड़कर सदैव अच्छे कार्य करना चाहिये ताकि उसे अच्छे कार्य का फल भी मीठा प्राप्त हो।

तस्मात्पापं न कुर्वीत पुरुषः शंसितव्रतः।
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.२।।

इसलिये प्रशंसा प्राप्त यशवान् मनुष्य को पाप कभी नहीं करना चाहिये ; क्योंकि बार-बार पाप करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः।
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.३।।

जिस मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है , वह निरन्तर पाप कर्म ही करता रहता है।  इसी प्रकार बार - बार  पुण्य कर्म करने से बुद्धि का विकास होता है।

वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः।
पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यस्थानं स्म गच्छति।
तस्मात्पुण्यं निषेवेत पुरुषः सुसमाहितः।।५.१५.४।।

जिस मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है अर्थात् बुद्धि बढ़ती है , वह मनुष्य सदैव पुण्य कर्म करता है।  जिसके कारण वह यश प्राप्त करता है और पुण्य लोक की प्राप्ति करता है। इसलिये मनुष्य को सदैव सावधान होकर पुण्य कर्म करना चाहिये तथा पाप कर्म नहीं करना चाहिये।

५.१४ स्वर्ग प्राप्ति

सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलबलं धनम्।
शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः।।५.१४।।

सच बोलना , विनयशील होना , शास्त्रों का ज्ञान , विद्या , कुलीनता , शालीनता , बल , धन , शूरता - वीरता  तथा चमत्कारपूर्ण तरीके से बातें करना - यह दस स्वर्ग प्राप्ति के साधन हैं अर्थात् व्यक्त्ति को इनका अनुसरण करना चाहिये तभी वह स्वर्ग प्राप्त करेगा।

सोमवार, 23 मई 2016

५.१३ जरूरी बातें

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।५.१३।।

जिस सभा में बड़े - बूढ़े  न हों , वह सभा सभा नहीं।  जो वृद्ध व्यक्त्ति धर्म सम्बन्धी बातें न करें , वह वृद्ध नहीं।  वह धर्म नहीं जिसमें सत्य न हो तथा वह सत्य नहीं जिसमें छल - कपट  हो।

५.१२ धर्म के मार्ग

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा।
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः।।५.१२.१।।

यज्ञ करना , वेदाध्ययन , दान , तपस्या , सत्य , क्षमाशीलता , दयालुता और लोभ न होना अर्थात् संतोष - ये आठ धर्म के मार्ग कहे गये हैं।

तत्र पुर्वचतुर्वर्गो दम्भार्थमपि सेव्यते।
उत्तरश्र्च चतुर्वर्गो नामहात्मसु तिष्ठति।।५.१२.२।।

आठ प्रकार के धर्म के मार्ग होते हैं।  इनमें से पहले चार कर्म - यज्ञ करना , अध्ययन करना , ज्ञान और तप , इन चारों गुणों का पाखण्ड के लिये सेवन किया जा सकता है। लेकिन अंतिम चार कर्मा - सत्य , क्षमा , दया एवं लोभरहित होना , ये चारों गुण महात्माओं के पास ही होते हैं।  अतः जो सज्जन नहीं है उनमें नहीं रह सकते।

५.११ सज्जन के गुण

यज्ञो दानमध्ययनं तपश्र्च चत्वार्येतान्यन्ववेतानि सदिभः।
दमः सत्यमार्जवमानृशंस्य चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः।।५.११।। 

यज्ञ , दान , अध्ययन और तप , ये चार गुण सदैव सज्जनों से सम्बन्ध रखते हैं।  इन्द्रियों का दमन , सत्य , नम्र स्वभाव बनाये रखना और कोमलता , ये चार गुण ऐसे हैं जिनका अनुसरण सज्जन लोग करते हैं।

५.१० व्यक्त्ति की शोभा

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्र्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्त्ति कृतज्ञता च।।५.१०.१।।

बुद्धि , कुलीनता , इन्द्रियों को वश में रखना , शास्त्रों का अध्ययन , पराक्रम , कम बोलना , सामर्थ्य के अनुसार दान करना तथा दूसरों द्वारा किये गये उपकारों को मानना ये आठ गुण व्यक्त्ति की शोभा में वृद्धि करते हैं।

एतान्गुणांस्तात महानुभावानेको गुणः संश्रयते प्रसह्य।
राजा यदा सत्कुरुते मनुष्यं सर्वान् गुणानेष गुणो विभाति।।५.१०.२।।

हे तात् ! एक गुण ऐसा है , जो इन आठों गुणों से भी महत्त्वपूर्ण है।  वह बलपूर्वक इन सब गुणों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है।  वह गुण है - राज सम्मान।  जिस समय राजा किसी व्यक्त्ति का सत्कार करता है , तो राजा का यह एक ही गुण सभी गुणों से बढ़कर शोभायमान होता है।

५.९ लक्ष्मी

श्रीर्मंगलात्प्रभवति प्राग्ल्भ्यात्सम्प्रवर्धते।
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात्प्रतितिष्ठिति।।५.९।।

लक्ष्मी शुभ कर्मों से ही प्राप्त होती है , प्रगल्भता से उसमें वृद्धि होती है , चतुराई से वह अपनी जड़े जमा लेती हैं तथा धैर्य रखने से लक्ष्मी सुरक्षित रहती है।

५.८ नष्ट होना

जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः।।५.८।।

बुढ़ापा सुन्दरता को, आशा धैर्यता को , मृत्यु प्राणों को , निन्दा करने की आदत धर्म आचरण को , क्रोध लक्ष्मी अर्थात् धन को, अधर्म पुरुषों की सेवा अच्छे स्वभाव को, काम भावना लज्जा को नष्ट कर देती है ; लेकिन व्यक्त्ति का घमंड उसका सब कुछ नष्ट कर देता है।

गुरुवार, 19 मई 2016

५.७ पहचान

तृणोल्कया ज्ञायते जातरूपं वृत्तेन भद्रो व्यवहारेण साधुः।
शूरो भयेष्वर्थकृच्छ्रेषु धीरः कृच्छ्रेष्वापत्सु सुहृदशरचारयश्र्च।।५.७।।

जिस प्रकार जलती हुई आग से सोने का खरापन पहचाना जाता है , उसी तरह व्यक्त्ति के सदाचार से सत्पुरुष की पहचान होती है।  व्यवहार से साधुओं का भय उत्पन्न होने पर शूरवीर का , आर्थिक तंगी आने पर धैर्यवान की और आपत्ति आने पर ही मित्र और शत्रु की परीक्षा होती है।

गुरुवार, 5 मई 2016

५.६ ब्रह्म हत्यारे

अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी।
पर्वकारश्र्च सूची च मित्रधुक्पारदारिकः।।५.६.१।।
भ्रूणहा गुरुतल्पी च यश्र्च स्यात्पानपो द्विजः।
अतितीक्ष्णश्र्च काकश्र्च नास्तिको वेदनिन्दकः ।।५.६.२।।
सुवप्रग्रहणो व्रात्यः कीनाशश्र्चात्मावानपि।
रक्षेत्युक्त्तश्र्च  यो हिंस्यात्सर्वे ब्रह्महभिः समाः ।।५.६.३।।

घर में आग लगाने वाला , जहर देकर मारने वाला , जारज पुत्र अर्थात् पाप से उत्पन्न सन्तान की कमाई खाने वाला , सोमरस बेचने वाला , चुगली करने वाला , शस्त्र बेचने वाला , मित्र से शत्रुता रखने वाला , परस्त्री लंपट , गर्भहत्यारा , गुरु की स्त्री के साथ नाजायज़ सम्बन्ध रखने वाला , ब्राह्मण होकर मद्यपान करने वाला , तीक्ष्ण स्वभाव वाला , कौये के समान कांव - कांव करने वाला , ईश्र्वर को न मानने वाला , वेदों की निन्दा करने वाला , पतित , घूसखोर , निर्दयी , शक्त्ति रहते हुए भी प्राणियों के प्रार्थना करने पर भी जो हिंसा करता है - ये सभी मनुष्य ब्रह्म हत्यारे कहे जाते हैं।

५.५ श्रद्धा

मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं मानेनाधीतमुख मानयज्ञः।
एतानि चत्वार्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि।।५.५।।

हवन -यज्ञ , मौन धारण , स्वयं अध्ययन तथा यज्ञानुष्ठान ये चारों कर्म यदि श्रद्धापूर्वक किये जाए तो व्यक्त्ति के चित्त का डर खत्म हो जाता है।  लेकिन यदि यह ठीक से सम्पन्न न हो तो इनसे डर लगता है।

५.४ इन्हें गवाह मत बनाना

सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्वं शलाकधूर्तं च चिकित्सकं  च।
अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साक्ष्ये त्वधिकुर्वीत सप्त।।५.४।।

हाथ की रेखाओं को देखने वाला , चोरी किये गये धन से व्यापार करने वाला , जुआ खेलने वाला चिकित्सक , शत्रु , मित्र तथा नर्तक इन सातों को कदापि गवाह नहीं बनाना चाहिये।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

५.३ गलत रास्ते

मद्यापनं कलहं पूगवैरं भार्यापत्योरन्तरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रिपुंसयोर्विवादं वर्ज्यान्याहुर्यश्र्च पन्थाः प्रदुष्टः।।५.३।।

मदिरापान करना , कलह करना , समूह के साथ शत्रुता , पति - पत्नी में विरोध उत्पन्न करना , कुटुम्बजनों में भेद उत्पन्न करना , राजा से ईर्ष्या रखना , स्त्री और पुरुष में आपसी मतभेद करना आदि ये सब गलत रास्ते हैं।  मनुष्यों को इन सबका त्याग कर देना चाहिये।

५.२ गलत निर्णय और असत्य भाषण

या रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्षपराजितः।
यां च भाराभितप्तांगोदुर्विवक्ता स्म तां वसेत्।।५.२.१।।

सौतन के साथ पति के घर में रहने वाली स्त्री , जुए में हारे हुए जुआरी की और बोझा ढोने से थके हुए शरीर वाले व्यक्त्ति की रात्रि में जो दशा होती है , वही दशा गलत न्याय करने वाले को भी होती है।

नगरे प्रतिरुद्धः सन् बहिद्वारे बुभुक्षितः।
अमित्रान्भूयसः पश्येद्यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ।।५.२.२।।

जो गलत निर्णय देता है , वह नगर में बंद होकर भूख से व्याकुल होता हुआ , द्वार के बाहर बहुत से शत्रुओं को देखता है।

पञ्च पश्र्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते।
शतमश्र्वानृते हन्ति सहस्त्रं पृरुषानृते ।।५.२.३।।

पशु के लिये असत्य बोलने वाले पाँच पीढ़ियों को , गौ के लिये असत्य बोलने वाले दस पीढ़ियों की , घोड़े के लिए असत्य बोलने वाले सौ पीढ़ियों को और मनुष्य के लिये असत्य भाषण करने वाले मनुष्य एक हजार पीढ़ियों को नरक में धकेल देते हैं।

हन्ति जातानजातांश्र्च हिण्यार्थेऽनृतं वदन्।
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदेः ।।५.२.४।।  

सोने के लिये असत्य भाषण करने वाला , भूत और भविष्य सभी पीढ़ियों को नरक में धकेल देता है। धरती और नारी के लिये असत्य कहने वाला व्यक्त्ति तो अपना ही विनाश कर डालता है।  इसलिये आप पृथ्वी अथवा नारी के लिये कभी भी असत्य मत बोलना।

५.१ कोमलतपूर्वक व्यवहार

सर्वतीर्थोषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम्।
उभे त्वेते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते।।५.१।।

सब तीर्थों में स्नान तथा सभी प्राणियों के संग कोमलतापूर्वक व्यवहार करना - ये दोनों बातें एक समान है।  लेकिन कोमलतापूर्वक व्यवहार करने का महत्त्व तीर्थों में स्नान से अधिक श्रेष्ठ है।

४.३० बुद्धि और विनाश

यस्मैः देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम्।
बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽवाचीनानि पश्यति।।४.३०.१।।

देवतागण जिन व्यक्त्तियों को पराजय देते हैं , तो पराजय देने से पहले वह उसकी बुद्धि ही हर लेते हैं। बुद्धि चले जाने के कारण वह व्यक्त्ति नीच कर्मों पर ही अपनी दृष्टि रखता है।

बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते।
अनयो नयसंकाशो हृदयान्नापसर्पति।।४.३०.२।।

जब व्यक्त्ति का विनाश होने वाला होता है , तो उस व्यक्त्ति की बुद्धि मलिन हो जाती है।  फिर उस व्यक्त्ति के हृदय से न्याय की तरह लगने वाली अन्यायपूर्ण बातें भी उसके हृदय से बाहर नहीं निकलती हैं।


४.२९ कटु वचन

वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम्।।४.२९.१।।

वाणी पर पूरा संयम रखना अत्यन्त कठिन माना गया है।  लेकिन विशेष अर्थयुक्त्त तथा चमत्कारिक वाणी भी अधिक प्रयोग नहीं की जा सकती है।

अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते ।।४.२९.२।।

मीठे वचनों में कही गई बात कई प्रकार से कल्याणकारी होती है। लेकिन वही बात यदि कठोर वचनों में बोली जाए तो बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाती है।

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।।४.२९.३।।

जिस प्रकार कुल्हाड़ी से काटा गया पेड़ फिर हरा -भरा हो जाता है और बाणों से छेदा गया शरीर का घाव भी ठीक हो जाता है।  लेकिन कटु वचन बोलने से जो घाव होता है , वह कभी भी नहीं भरता है।

कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति  शरीरतः।
वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।।४.२९.४।।

बहुत कर्णि , नालीक तथा नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं लेकिन कटुवचनरूपी बाण को निकाला नहीं जा सकता ; क्योंकि वह हृदय के अन्दर धंस जाता है।

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेभ्यः ।।४.२९.५।।

कठोर वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के हृदय पर घात करते हैं , उनसे घायल व्यक्त्ति दिन -रात में फुलता रहता है।  अतः बुद्धिमान व्यक्त्ति को वाणीरूपी कठोर बाणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। 

४.२८ शक्ति

हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम्।
शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमा गुणवतां बलम्।।४.२८।।

दुर्जनों की शक्त्ति हिंसा अर्थात् झगड़ा है।  राजाओं की शक्त्ति उनकी दण्ड देने की प्रवृत्ति है स्त्रियों की शक्त्ति उनकी सेवा भाव है तथा गुणवान लोगों की शक्त्ति क्षमा है।

४.२७ कटु वचन और निन्दा

आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान्।
वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्चते।।४.२७।।

मुर्ख लोग विद्वानों को कठोर बातें बोलकर और उनकी बुराई कर उन्हें दुःख देते हैं। अतः कटु वचन और निन्दा करने वाला व्यक्त्ति सदा पाप का भागी होता है। जो इनको सहकर क्षमा कर देता है , वह पाप से मुक्त्त हो जाता है।

४.२६ दुर्जन और अधम पुरुष

अनसूयार्जवं शौचं सन्तोषं प्रियवादिता।
दमः सत्यमनायांसो न भवन्ति दुरात्मनाम्।।४.२६.१।।

दूसरों के गुणों में दोष न खोजना , कोमल हृदय , पवित्रता , संतोष , मधुर वाणी , इन्द्रियदमन , सत्य बोलना तथा स्थिरता , ये सभी गुण दुर्जनों में कभी नहीं होते हैं।

आत्मज्ञानमनायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
वाक् चैव गुप्ता दानं च नैतान्यन्त्येषु भारत।।४.२६.२।।

हे राजन् ! आत्मज्ञान, स्थिरता , धर्म - परायणता , सहनशीलता , वचन की रक्षा तथा दान आदि ये सभी गुण अधम पुरुषों में नहीं होते हैं।

४.२५ संगत

असंत्यागात्पापकृतामपापांस्तुल्यो  दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात्तस्मात्पापैः सह सन्धिं न कुर्यात्।।४.२५।।

पाप वाले कर्मों में लगे व्यक्त्ति को छोड़ देना चाहिये अर्थात् उनकी संगत नहीं करना चाहिये ; क्योंकि पापियों के संग रहने से अच्छा व्यक्त्ति भी उसी प्रकार दंड का भागी बनता है , जिस प्रकार गीली लकड़ियों के साथ सूखी लकड़ियां मिलकर जल जाती हैं।

४.२४ धर्म तथा अर्थ

समवेक्ष्येह धर्मार्थौ सम्भारान् योऽधिगच्छति ।
स वै सम्भृतसम्भारः सततं सुखमेधते।।४.२४।।

जो व्यक्त्ति इस संसार में धर्म तथा अर्थ दोनों पर भली -भांति विचार कर अपने साधनों को संग्रह करता है , तो वह साधन सामग्री से युक्त्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक रहता है।

४.२३ काम तथा क्रोध

क्षुदाक्षेणैव जालेन झषावपिहितावुरू।
कामश्र्च राजन् क्रोधश्र्च तौ प्रज्ञानं विलुम्पतः।।४.२३।।

हे राजन् ! जिस तरह छोटे - बड़े छिद्रों वाले जल में फँसी दो बड़ी -बड़ी मछलियां उस जाल को काटकर नष्ट कर डालती हैं।  ठीक उसी तरह व्यक्त्ति का काम तथा क्रोध उसके ज्ञान को लुप्त कर देते हैं।

४.२२ व्यक्ति और उसकी आत्मा

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मात्मना जितः।
स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपुः।।४.२२।।

जिस व्यक्त्ति ने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो उसकी आत्मा ही उस व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र है ; क्योंकि आत्मा ही व्यक्त्ति की सबसे बड़ी मित्र और शत्रु है। अर्थात् जिसने अपनी आत्मा को जीत लिया है , तो वह आत्मा मित्र है। इसके विपरीत जिसने अपनी आत्मा को नहीं जीता , तो वही उसकी सबसे बड़ी शत्रु बन जाती है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

४.२१ इन्द्रियाँ

इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव।।४.२१.१।।

वशीभूत न होने के कारण सांसारिक विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी तरह कष्ट पाता है , जिस प्रकार सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत होते हैं।

यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्षिणा।
आपदस्तस्य वर्धन्ते शुल्कपक्ष इवोडुराट् ।।४.२१.२।।

जो व्यक्त्ति स्वभाव से अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है उसकी आपत्तियाँ अर्थात् संकट उसी तरह बढ़ता रहता है , जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलायें बढ़ती रहती हैं।

अविजित्य यथात्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ।।४.२१.३।।

जो मनुष्य अपने आप पर विजय न  प्राप्त करके अपने मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रिगण को अपने वशीभूत किये बिना ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है , उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सभी लोग त्याग देते हैं।

आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्र्च न मोघं विजिगीषते ।।४.२१.४।।

सर्वप्रथम मनुष्य को अपने मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये।  तत्पश्र्चात् यदि वह मनुष्य अपने मंत्रियों एवं शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखता है , तो उसकी इच्छा व्यर्थ नहीं होती , अतः उसे सफलता मिलती है।

वश्येन्द्रियं जितात्मानं घृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ।।४.२१.५।।

जो राजा इन्द्रियों एवं मन को जीतने वाला होता है। अपराधियों के लिए दण्ड निश्र्चित करता है और जो जाँच - परखकर काम करता है , ऐसे धैर्यवान् राजा की लक्ष्मी सदैव सेवा करती है।

रथः शरीरं पुरुषस्य राजन्नात्मा नियतेन्द्रियाण्यस्य चाश्र्वाः।
तैरप्रमत्तः कुशली सदश्र्वैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः।।४.२१.६।।

जिस मनुष्य का शरीर रथ के सदृश है , आत्मा सारथी है , एवं इन्द्रियां इस रथ के घोड़े के सदृश है।  इस प्रकार इनको वश  करके धैर्यवान् व्यक्त्ति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है , जिस प्रकार रथ में बैठा हुआ व्यक्त्ति अपने घोड़ों को नियंत्रण में रखकर सुखपूर्वक यात्रा करता है।

एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ।।४.२१.७।।

जिन पुरुषों की इन्द्रियां वश में नहीं रहतीं , वे पुरुष को उसी प्रकार नष्ट कर देती हैं , जिस प्रकार वश में न किये हुए घोड़े मार्ग में सारथी और रथ को नष्ट कर देते हैं।

अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैर्बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ।।४.२१.८।।

जो व्यक्त्ति अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रखता है। वह अनर्थ को अर्थ और अर्थ को अनर्थ समझता है। वह अज्ञानी व्यक्त्ति बड़े दुःख को भी सुख मानता है।

धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः ।
श्री प्राणधनादारेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते ।।४.२१.९।।

जो व्यक्त्ति धर्म तथा अर्थ दोनों का परित्याग कर अपनी इन्द्रियों के वश में रहता है।  उस व्यक्त्ति का जल्दी ही धन , वैभव , प्राण , स्त्री सब नष्ट हो जाता है।

अर्धानामीश्र्वरो यः स्यादिन्द्रियणामनीश्र्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्र्वर्यादैश्र्वर्याद् भ्रश्यते हि सः ।।४.२१.१०।।

जिस व्यक्त्ति के पास अपार  धन है लेकिन उसकी इन्द्रियां उसके वश में नहीं हैं , तो उसका ऐश्र्वर्य नष्ट हो जाता है।  अर्थात् जो व्यक्त्ति धन सम्पत्ति पाकर अपने ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं रखता , वह  अपने सभी ऐश्र्वर्यों से हाथ धो बैठता है।

आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतैः।
आत्मा ह्येवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।४.२१.११।।

प्रत्येक व्यक्त्ति को चाहिये कि वह अपने चित्त , बुद्धि  तथा ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखकर आत्मज्ञान का प्रयास करे ; क्योंकि व्यक्त्ति की आत्मा ही उसके लिये सबसे बड़ी मित्र है और सबसे बड़ी शत्रु भी आत्मा ही है।

यः पञ्चाभ्यन्तरांशत्रूनविजित्य मनोमयान्।
जिगीषति रिपूनन्यान् रिपवोऽभिभवन्ति तम् ।।४.२१.१२।।

जो राजा अपनी इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीते बिना ही अपने दूसरे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है ,  तो शत्रु उसे पराजित कर देते हैं।

दृश्यन्ते हि महात्मानो बध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राजयविभ्रमैः।।४.२१.१३।।

अपनी इन्द्रियों को वश में न करने के कारण बड़े -बड़े साधू भी अपने कर्मों से तथा राजा भोग - विलास के बंधन में फंसे रहते हैं।

निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्चप्रयोजनान्
यो मोहान्न विगृह्णाति तमापद् ग्रसते नरम्।।४.२१.१४।।

शब्द , स्पर्श , रूप , रस  और गंध इन पाँच इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जो व्यक्त्ति मोह के कारण अपने वश में नहीं रखता , वह व्यक्त्ति सदा आपत्तियों से ग्रस्त रहता है।

४.२० ऐश्र्वर्य

ऐश्र्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः।
ऐश्र्वर्यमदमत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते।।४.२०।। 

वैसे तो शराब पीने का नशा भी नशा ही है।  लेकिन ऐश्र्वर्य अर्थात् धन - सम्पत्ति का जो मद होता है , वह सबसे बुरा होता है ; क्योंकि ऐश्र्वर्य के नशे में चूर व्यक्त्ति का जब तक अहित नहीं होता तब तक वह होश में नहीं आता है।

४.१९ अधम मध्यम उत्तम

अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद्भयम्।
उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात्परं भयम्।।४.१९।। 

अधम श्रेणी के मनुष्यों को अपनी जीविका अर्थात् पेट भरने का साधन न होने का डर रहता है , मध्यम वर्ग के मनुष्यों  को मर जाने का डर रहता है ; लेकिन उत्तम श्रेणी के जो लोग होते हैं , उन्हें अपमानित होने का बहुत डर रहता है ; क्योंकि उन्हें अपना सम्मान सबसे अधिक प्रिय होता है।

४.१८ धनवान और निर्धन

आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम्।
तैलोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ्।।४.१८.१।।

हे भारत श्रेष्ठ ! धनवान लोग का जो भोजन होता है उसमें मांस की अधिकता होती है। मध्यम वर्ग के लोगों के भोजन में गोरस यानि दूध , दही आदि की मात्रा अधिक होती है तथा निम्न वर्ग अर्थात् निर्धन लोगों के भोजन में तेल की अधिकता होती है अर्थात् उनका भोजन अत्यधिक तेल द्वारा बना होता है।

सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा।
क्षुत्स्वादुतां जनयति या चाढ्येषु सुदुर्लभा।।४.१८.२।।

निर्धन लोग हमेशा स्वादिष्ट भोजन खाते हैं ; क्योंकि उनकी भूख भोजन के स्वाद को बढ़ा देती है।  धनवानों के भोजन में उस स्वाद का अभाव होता है। अर्थात् भूख रहने पर भोजन जैसा भी खाया जाएगा , वह स्वादिष्ट ही लगेगा।  भूख न रहने पर अच्छा भोजन भी बिना स्वाद वाला होता है।

प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।
जीर्यत्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणां महीपते।।४.१८.३।।  

संसार में धनवान लोगों को भोजन करने की शक्त्ति नहीं होती , लेकिन निर्धन लोग पेट भरने के लिये काठ अर्थात् लकड़ी भी पचा जाते हैं। तात्पर्य यह है कि गरीब भूख मिटाने के लिये रूखा -सूखा भी खा लेता है।

४.१७ शील

जिता सभा वस्त्रवता मिष्टाशा गोमता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जीतम्।।४.१७.१।।

अच्छे वस्त्र धारण करने वाला अपने आकर्षण से सभा पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है।  जिसके पास गाय होती  है , वह मीठे स्वाद को जीत लेता है। सवारी से आने - जाने वाला रास्ते को जीत लेता है लेकिन शीलगुण वाला व्यक्त्ति इन सब पर अपना प्रभुत्व जमा लेता है।

शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ।।४.१७.२।।

मनुष्यों में शील गुण प्रधान है।  जिस व्यक्त्ति का यही गुण खत्म हो जाता है , तो उसका जीवन , लक्ष्मी और भाई - बन्धुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। अर्थात् शीलरहित मनुष्य का अपने परिवार वालों से भी कोई कार्य नहीं बनता है।

४.१६ सज्जन और दुर्जन

असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः क्वचित्कार्ये कदाचन्।
मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।।४.१६.१।।

कभी किसी कार्य में सज्जन लोग दुर्जनों की प्रार्थना करते हैं। सज्जनों द्वारा प्रार्थना कर देने पर वे दुष्ट लोग अपने आप को अवगुणों से युक्त्त होते हुए भी सज्जन समझने लगते हैं।

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः।
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।४.१६.२।।

ज्ञान प्राप्त करने वाले का सहारा सज्जन होते हैं और सज्जनों के भी सहारे गुणवान लोग ही हैं। दुर्जनों का भी कल्याण सज्जनों द्वारा ही होता है लेकिन दुर्जनों द्वारा सज्जनों का कल्याण कभी नहीं हो सकता है।

४.१५ मद

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः।।४.१५।।

एक मद (नशा ) विद्या है , दूसरा मद धन है , तीसरा मद ऊँचा कुल में जन्मा होने का  है।  घमंडी व्यक्त्तियों के लिये यह सब एक मद है लेकिन सज्जनों के लिये ये तीनों दम हैं अर्थात् सज्जन विद्वान् व्यक्त्ति इन सबका अभिमान नहीं करते।

४.१४ कार्य का सिद्ध होना

अकार्यकरणाद् भीतः कर्याणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्च येन मद्येन्न तत्पिबेत्।।४.१४।।

ऐसा कार्य जो न करने योग्य है , उसे करने से तथा जो करने योग्य कार्य है , उसे त्यागने से कार्य सिद्ध होने से पूर्व ही अन्त अर्थात् सलाह के प्रकट हो जाने से डरते रहना चाहिये एवं जिस पेय पदार्थ को पीने से नशा चढ़े ऐसा पेय पदार्थ नहीं पीना चाहिये।

४.१३ ईर्ष्या

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः।।४.१३।।

जो मनुष्य दूसरों के धन , रंग -रूप , बल , कुल , सुख , सौभाग्य एवं सम्मान इत्यादि के कारण उनसे ईर्ष्या का भाव रखता है।  उसके लिये यह ईर्ष्यारूपी रोग है , जो कभी समाप्त नहीं होता।

४.१२ सदाचार

न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणामिति मे मतिः।
अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।४.१२।।

मेरा विचार ऐसा है कि सदाचारहीन मनुष्य का उच्च कुल का होने पर भी मान्य नहीं होता ; क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य आचाररहित हैं लेकिन उसका जन्म ऊँचे कुल में हुआ है तब भी वह सम्मानित नहीं होता तथा जो मनुष्य सदाचारी हैं , उनका जन्म यदि नीच कुल में भी हुआ तब भी वह सम्मानित किया जाता है।

४.११ आप और बलवान

भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।
अथ या सुदुहा राजन्नैव तां वितुदन्त्यपि।।४.११.१।।

जो गाय कठिनाई से दुहने देती है अर्थात् जिससे दूध निकालना कठिन होता है , वह बहुत कष्ट पाती है।  उसे दुहने के दूसरे रास्ते अपनाये जाते  हैं। लेकिन जो आसानी से दूध देती है , उसे कोई भी कष्ट नहीं पहुँचाता है।

यदतप्तं प्रणमति न तत्सन्तापयन्त्यपि।
यच्च स्वयं नतं दारु न तत्सन्नमयन्त्यपि ।।४.११.२।।

जो धातु बिना आग में तपाये ही मुड़ जाती है , उसे कोई भी नहीं तपाता है।  जो लकड़ी स्वयं झुकी हुई होती है।  उसे कोई भी झुकाने का प्रयास नहीं करता है।

एतयोपमया धीरः सन्नमेत बलीयसे।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ।।४.११.३।।

उपरोक्त्त कथन के अनुसार बुद्धिमान पुरुष को अपने से अधिक बलशाली के समक्ष झुक जाना चाहिये।  जो मनुष्य ऐसा करता है , समझो वह देवराज इंद्र को नमस्कार करता है।

४.१० लोगों के गुण

गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः।
चारैः पश्यन्ति राजानश्र्चक्षुभ्र्यामितरे जनाः।।४.१०।।

गौ आदि पशु गंध से , ब्राह्मण लोग अपने ज्ञान से , राजा अपने जासूसों द्वारा तथा दूसरे साधारण मनुष्य अपने नेत्रों से देखा करते हैं।

४.१२ रक्षा

पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मणा वेदबान्धवाः।।४.१२.१।।

पशुओं की रक्षा बादल करते हैं अर्थात् वह बरसकर उनके लिये भोजन पैदा करते हैं।  राजाओं की रक्षा उनके मंत्री करते हैं , स्त्रियों के रक्षक उनके पति होते हैं , और ब्राह्मणों के बांधव वेद हैं ; क्योंकि वेदों का ज्ञान उनका रक्षक होता है। उसी के सहारे वह जीवित रहते हैं।

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।४.१२.२।।

सत्य वचन से धर्म की रक्षा होती है। अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है। नहीं तो व्यक्त्ति सब कुछ भूल जाता है।  साफ - सफाई से सुन्दर रूप की रक्षा होती है तथा सदाचार से कुल की रक्षा होती है।

मानेन रक्ष्यते धान्यमश्र्वान् रक्षत्यनुक्रमः।
अभीक्ष्णदर्शनं गाश्र्च स्त्रियो रक्ष्याः कुचैलतः ।।४.१२.३।।

तौल से खर्च करने से धान्य की रक्षा होती है।  फेरने से घोड़ों की रक्षा होती है।  बार -बार देख -रेख करते रहने से गायों की रक्षा होती है और मैले कपड़ों से स्त्रियों की रक्षा होती है ; क्योंकि कपड़े मैले रहने से उन पर कोई बुरी दृष्टि नहीं डालता है।

४.९ मतलब की बात

अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिजल्पतः।
सर्वतः सारमादद्यादश्मभ्य इव काञ्चनम्।।४.९.१।।

निरर्थक बोलने वाले पागल और बच्चे की बात में यदि कोई मतलब की बात पता चले तो उसे उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिये , जिस प्रकार पत्थरों में से सोना ग्रहण किया जाता है।

सुव्याहृतानि सूक्तानि सुकृतानि ततस्ततः।
सञ्चिन्वनधीर आसीत् शिलाहारी शीलं यथा ।।४.९.२।। 

जिस तरह खेत के कट जाने पर अन्न बीनने वाला एक-एक दाना चुन लेता है , उसी तरह मनुष्यों को अच्छी बातों , सूक्त्तियों तथा सत्कर्मों को संग्रह करना चाहिये।

४.८ राजा और उसका विनाश

यस्मात्त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव।
सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते।।४.८.१।।

जिस तरह शिकारी से हिरन भयभीत रहता है , उसी तरह जिस राजा से उसकी प्रजा डरी हुई रहती है।  वह समुद्र की भांति फैला हुआ राज्य पाकर भी प्रजाजनों द्वारा त्याग दिया जाता है।

पितृ पैतामहं राज्यं प्राप्तवान्स्वेन कर्मणा।
वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ।।४.८.२।।

अन्याय से युक्त्त कार्यों को करने वाले राजा अपने बाप - दादाओं से प्राप्त राज्य को उसी प्रकार नष्ट कर देता है।  जिस प्रकार हवा बादलों को उड़ाकर नष्ट कर देती है।

अथ सन्त्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः।
प्रतिसंवेष्टते भूमिरग्नौ चर्माहित यथा ।।४.८.३।।

जो राजा धर्म का त्यागकर अधर्म का अनुस्ठान करता है , तो उसका राज्य उसी प्रकार नष्ट हो जाता है , जिस प्रकार आग में डाले हुए चमड़े का नाश हो जाता है।

य एव यत्नः क्रियते परराष्ट्रविमर्दने।
स एव यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने।।४.८.४।।

जो प्रयत्न राजा अपने शत्रु का विनाश करने के लिये करता  है।  उसे वही प्रयत्न अपने राज्य की रक्षा करने के लिये भी करना चाहिये।

४.७ प्रजा की प्रसन्नता और राजा का ऐश्र्वर्य

चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुविर्धम् ।
प्रसादयति यो लोकं तं लोकोऽनुप्रसीदति।।४.७.१।।

जो राजा अपनी नेत्र , मन , बोली तथा कर्म इन सबसे प्रजा को प्रसन्न रखता है।  प्रजा ऐसे राजा से ही प्रसन्न रहती है।

धर्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्र्चरितमादितः।
वसुधा वसुसम्पूर्णां वर्धते भूतिवर्धनी।।४.७.२।।

परंपरापूर्वक सज्जनों द्वारा किये गये धर्म के अनुसार कार्य करने वाले राजा का राज्य धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति प्राप्त करता है तथा उसके ऐश्र्वर्य में भी वृद्धि होती है।

धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत्।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ।।४.७.३।।

राजा को धर्म से ही राज्य प्राप्ति करना चाहिये तथा धर्म से ही उस राज्य की सुरक्षा भी करनी चाहिये ; क्योंकि धर्म से जो लक्ष्मी राजा को प्राप्त होती है , उसे न राजा छोड़ती है और न वह लक्ष्मी राजा को छोड़ती है।

४.६ राजा का विनाश

सुपुष्पितः स्यादफलः फलितः स्याददुरारुहः।
अपक्वः पक्वसंकाशो न तु शिर्येत कर्हिचित्।।४.६।।

जिस तरह एक वृक्ष भली प्रकार फूलने पर भी फल से खाली हो , फल युक्त्त रहने पर भी उस पर चढ़ा न जा सके , कच्चा फल होने पर भी पके फल की तरह लगे।  उसी तरह राजा को भी अधिक प्रसन्न होने पर भी लुटाने वाला नहीं होना चाहिये।  यदि अधिक देने वाला हो तो भी पहुंच से बाहर होना चाहिये और कम बलशाली होने पर भी शक्त्तिसम्पन्न की तरह अपने को प्रकट करना चाहिये।  ऐसा करने से उस राजा का विनाश कभी नहीं होता है।

४.५ किसी से कुछ लेना

यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।।४.५.१।।

जिस तरह भौंरा पुष्पों को बिना कष्ट पहुँचाये उनकी रक्षा करते हुए ही उन पुष्पों के शहद को ग्रहण करता है।  उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा को बिना हानि पहुँचाये उनसे धन ले।

पुष्पंपुष्पं चिचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्।
मालाकार इवारामं न यथांगारकारकः ।।४.५.२।।

जैसे बगीचे का माली एक - एक पुष्प तोड़ता है , वृक्षों की जड़ों को नहीं काटता।  उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ग्रहण करना चाहिये।  कोयला बनाने वाले की भांति जड़ नहीं काटनी चाहिये अर्थात् प्रजा को नष्ट नहीं करना चाहिये।

४.४ फल

वनस्पतेरपक्वानि  फलानि प्रचिनोति यः।
स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति।।४.४.१।।

जो मनुष्य वृक्षों से कच्चे फलों को तोड़ लेता है , उसे उन फलों से वास्तविक रस तो मिलता नहीं , बल्कि उन वृक्षों का बीज अवश्य नष्ट हो जाता है।

यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलम्।
फलाद्रसं स लभते बीजाच्चैव फलं पुनः ।।४.४.२।।

जो व्यक्त्ति पेड़ से फल को पकने के बाद तोड़ता है , उसे उस फल का वास्तविक रस भी प्राप्त होता है और बीज से पुनः फल की प्राप्ति भी करता है।

४.३ लोभ और परिणाम

भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो बडिशमायसम्।
लोभभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते।।४.३.१।।

मछली अच्छी चारे से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभवश पकड़कर खा जाती है।  उससे मिलने वाले परिणामों के बारे में नहीं सोचती है।

यक्ष्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत्तदाद्यं भूमिमिच्छता ।।४.३.२।।

अतः अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुषों को वही वस्तु ग्रहण करनी चाहिये जो उसके योग्य हो।  जो उससे ग्रहण की जा सके , जो ग्रहण करने के बाद पच सके तथा पचने के बाद जो हितकारी भी हो।

४.२ राजा और राज्य

यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये।
कोशे जनपदे दण्डे न स राज्येऽवतिष्ठते।।४.२.१।।

जो राजा अपनी स्थिति , हानि - लाभ , विनाश , धनागार देश और दण्ड आदि के संबंध में नहीं जानता।  ऐसा राजा अपने राज्य पर स्थिर नहीं रह सकता है।

यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति।
युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ।।४.२.२।।

जो राजा उपरोक्त्त कहे गये प्रमाणों को ठीक -ठाक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है।  वही राजा राज्य प्राप्त करता है।

न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम्।
श्रिय ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम्।।४.२.३।।

राजा को चाहिये कि वह राज्य मिल जाने पर किसी से अनुचित व्यवहार न करे।  नहीं तो जिस प्रकार व्यक्त्ति की सुन्दरता को बुढ़ापा नष्ट कर देती है।  उसी प्रकार राजा की उद्दण्डता उसकी सम्पूर्ण लक्ष्मी का विनाश कर देती है।

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्र्चापि निरर्थकः।
न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः।।४.२.४।।

जिसके प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं और जिसका क्रोध करना भी व्यर्थ हो ऐसे मनुष्य को प्रजा राजा बनाना उसी प्रकार नहीं चाहती है , जिस प्रकार एक स्त्री किसी नपुंसक को अपनाना नहीं चाहती है।

ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्तितं प्रजाः।।४.२.५।।

जो राजा अपनी प्रजा को सदैव प्रेमपूर्वक दृष्टि  से देखता है।  वह राजा यदि चुपचाप बैठा रहे कुछ न करे तो भी उसकी प्रजा उससे अनुराग रखती है।

४.१ कार्य और कर्म

तथैव योगविहितं यत्तु कर्म न सिध्यति।
उपाययुक्तं मेघावी न तत्र ग्लपयेन्मनः।।४.१.१।।

अच्छे उपायों का प्रयोग करके और सावधानीपूर्वक कार्य करने से भी जिस कार्य में सफलता न मिले उसके लिये मन में ग्लानि नहीं रखनी चाहिये।

अनुबन्धानपेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वति न वेगेन समाचरेत् ।।४.१.२।।

किसी उद्देश्य से करने वाले कर्मों में पहले उद्देश्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। अच्छी प्रकार सोच - विचारकर कार्य का आरंभ करना चाहिये।  जल्दबाजी में कोई कार्य आरंभ नहीं करना चाहिये।

अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकं चैव कर्मणाम्।
उत्थानमात्मनश्र्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ।।४.१.३।।

धैर्यवान पुरुषों को चाहिये कि वह कार्य आरंभ करने से पहले अपने प्रायोजन उसके परिणाम तथा उससे मिलने वाली उन्नति पर विचार कर लें फिर कार्य आरंभ करे अथवा न करें।

किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ।।४.१.४।।

मनुष्य को कर्मों को करने से पहले उसके परिणामों पर अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि उस कार्य से उसे हानि होगी या लाभ होगा। ऐसा विचार कर तब कार्य आरंभ करना चाहिये।

अनारभ्या भवनत्यर्थाः केचिन्नित्यं तथाऽगताः।
कुतः पुरुषकारो हि भवेद्येषु निरर्थकः।।४.१.५।।

कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य होते हैं , जो प्रतिदिन न मिलने के कारण आरंभ करने योग्य नहीं होते हैं। ऐसे कार्यों के लिये किया गया परिश्रम व्यर्थ चला जाता है।  अतः ऐसे कार्यों को नहीं करना चाहिये।

कांश्र्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लघुमूलान्महाफलान्।
क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ।।४.१.६।।

जिन कार्यों को करने में प्रयत्न कम करना पड़ता है और फल अधिक प्राप्त होता है।  बुद्धिमान व्यक्त्ति ऐसे कार्यों में बाधा नहीं आने देते और शीघ्र ही उन्हें प्रारंभ कर देते हैं।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

३.४० लज्जा

य आत्मनापत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत्।
अनन्ततेजाः  सुमनाः समाहितः स तेजसा सूर्य इवावभासते।।३.४०।।

जो स्वयं लज्जालु है , वह सब लोगों में श्रेष्ठ समझा जाता है।  वह अपने तेज , शुद्ध हृदय  और एकाग्रता से युक्त्त होने के कारण सूर्य की कांति के भांति सुशोभित होता है।

३.३९ यश

यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः।
अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः।।३.३९।।

जो मनुष्य सभी लोगों को शांति प्रदान करने वाले कार्यों को करता है , सत्य बोलता है , कोमल हृदय वाला है , दूसरों का आदर करता है , शुद्ध विचार वाला होता है , वह अच्छी खान से निकले हुए और चमकते हुए रत्न के समान अपनी जाति वालों में यश प्राप्त करता है।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

३.३८ कार्य और बाधा

चिकीर्षितं विप्रकृत च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित्।
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्र्चिदर्थः।।३.३८।।

 जिसकी अपनी इच्छा के अनुकूल तथा दूसरों की इच्छा के विरूद्ध कार्य को दूसरे लोग नहीं जान पाते , अपनी बातों को गुप्त रखने और मनचाहे कार्य का सुचारू रूप से संपादन होने के कारण उनके कार्य में बाधा नहीं आ पाती है। 

३.३७ पुरुष और अनर्थ

मितं भुक्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः संस्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनर्थाः।।३.३७।।

जो अपने आश्रित लोगों को बांटकर खुद थोड़ा ही भोजन ग्रहण करता है , अत्यधिक परिश्रम करके भी थोड़ा ही विश्राम करता है ,  यदि शत्रु मांगे तो उसे भी धन दे देता है , ऐसे पुरुषों का कभी अनर्थ नहीं होता है अर्थात् उसको सारे अनर्थ छोड़ देते हैं।

३.३६ श्रेष्ठ तथा विद्वान पुरुष

समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथां च।
गुणैर्विशिष्टांश्र्च पुरो दधाति विपश्र्चितस्यस्य नयाः सुनीताः।।३.३६।।

जो अपने समान लोगों के साथ विवाह , मित्रता , व्यवहार और बातचीत करता है , अपने से हीन पुरुषों के साथ संबंध नहीं रखता और गुणों में सदा बढ़ - चढ़े पुरुषों को आगे रखता है , यह श्रेष्ठ तथा विद्वान पुरुषों का आचरण है।

रविवार, 17 अप्रैल 2016

३.३५ मनुष्य और उन्नति

दानं होमं दैवतं मंगलानि प्रायश्र्चित्तान् विविधांल्लोकवादान्।
एतानि यः कुरुते नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति।।३.३५।। 

जो व्यक्त्ति दान , होम , देवपूजन , माङ्गलिक कार्य , प्रायश्र्चित तथा नाना प्रकार के लौकिक आचार योग्य कार्यों को करता है।  देवता भी उस व्यक्त्ति के उन्नति की इच्छा करते हैं।

३.३४ श्रेष्ठ मनुष्य

दम्भं मोहं मत्सरं पापकृत्यं राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम्।
मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनैश्र्चापि वादं यः प्रज्ञावान् वर्जयेत्स प्रधानः।।३.३४।। 

जो व्यक्त्ति दम्भ , विषयों में मोह , ईर्ष्या , पापयुक्त्त काम , राजा से बैर , दूसरे लोगों की निन्दा , समूह से वैर - भाव , पागलपन , मतवालापन और दुर्जनों के साथ शत्रुता छोड़ देता है , ऐसा मनुष्य श्रेष्ठ होता है।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

३.३३ उत्तम और अधम का ज्ञान

देशाचारान्समयान् जातिधर्मान् बुभूषते यः स परावरज्ञः।
स यत्र तत्राभिगतः सदैव महाजनस्याधिपत्यं करोति।।३.३३।।

जो व्यक्त्ति देश के व्यवहार , लोगों के आचरण और जाति - धर्म को जानने की इच्छा करता है , उसे उत्तम और अधम का ज्ञान हो जाता है , वह जहां भी जाता है , विशाल जनसमूह पर हमेशा अपना अधिकार स्थापित कर लेता है।

गुरुवार, 31 मार्च 2016

३.३२ सर्वश्रेष्ठ पुरुष

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्या:।।३.३२.१।।

जो शांत हो गई शत्रुता की आग को दुबारा नहीं सुलगाता , घमंड नहीं करता है , अपनी हीनता का प्रदर्शन नहीं करता और मैं आपत्ति में हूँ , ऐसा विचार कर अनुचित काम नहीं करता , उस उत्तम आचरण वाले मनुष्य को आर्यजन सर्वश्रेष्ठ पुरुष की उपाधि देते हैं।

न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः।
दत्त्वा न पश्र्चात् कुरुतेऽनु तापं स कथ्यते सत्यपुरुषार्यशीलं।।३.३२.२।।

जो अपने सुखी होने पर अधिक प्रसन्न नहीं होता , दूसरों के दुःखी होने पर आनंदित नहीं होता , दान देने के बाद पछतावा नहीं करता। ऐसा पुरुष सज्जन और श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है।

३.३१ प्रिय मनुष्य

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं च पौरुषेणापि विकत्थतेन्यान्।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किञ्चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि।।३.३१।।

जो कभी उद्दण्ड वेष धारण नहीं करता , दूसरों के समक्ष अपने पराक्रम की डींग नहीं हांकता , क्रोध आने पर भी कठोर वचन नहीं बोलता है , ऐसे मनुष्य सभी के प्रिय होते हैं।

३.३० प्रशंसनीय मनुष्य

न संरम्भेणारभते त्रिवर्गमाकारतिः शंसति तत्त्वमेव।
न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः।।३.३०.१।।
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति।
नात्याह किञ्चित् क्षमते विवादं सर्वत्र तादुग्लभते प्रशंसाम्।।३.३०.२।। 

जो क्रोध या उत्तेजित होकर धर्म , अर्थ  तथा  काम  का  प्रारंभ नहीं करता है , जो पूछे जाने पर सदा सत्य ही बतलाता है , मित्र के लिये लड़ाई पसन्द नहीं करता है , आदर - सत्कार न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता , बुद्धि से काम लेता है , दूसरों के अवगुणों पर ध्यान नहीं देता , सब पर दया करता है , दुर्बल होते हुए किसी की जमानत नहीं देता , आवश्यकता से अधिक नहीं बोलता और झगड़ा सहन कर लेता है। ऐसा मनुष्य सभी का प्रशंसनीय होता है अर्थात् जहां जाता है , वहाँ उसकी प्रशंसा होती है।

३.२९ सुखी जीवन

अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।
दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्र्च सुखी सदैव।।३.२९।।

जो व्यक्त्ति बिना बात परदेस में नहीं रहता , पापीयों के साथ मेल - मेलाप नहीं रखता , दूसरी स्त्रियों के साथ नहीं रहता , पाखंड , चोरी , दूसरों की चुगली करने की आदत नहीं रखता और जो नशे का सेवन नहीं करता वह हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करता है।

३.२८ महापुरुष और शत्रु

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचिदुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सपत्नाः।।३.२८।।

जो महापुरुष आपत्ति आने पर दुःखी नहीं होता , अपितु सावधानीपूर्वक श्रम करता रहता है , समय पर कष्ट सहन कर लेता है , ऐसे महापुरुष से उसके शत्रु तो हार ही जाते हैं।

३.२७ धीर

सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चिद्युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम्।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः।।३.२७।।

जो किसी कमजोर असहाय का अपमान नहीं करता , हमेशा सावधानी और बुद्धि से शत्रु के साथ व्यवहार करता है , अपने से अधिक शक्त्तिशाली के संग युद्ध नहीं करना चाहता और वक्त्त आने पर अपना पराक्रम प्रदर्शित करता है , वही पुरुष धीर होता है।

३.२६ विश्र्वास और दण्ड

जानाति विश्र्वासयितुं मनुष्यान् विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम्।
जानाति मात्रां च तथा क्षमां च तं तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा।।३.२६।।

जो व्यक्त्तियों को विश्र्वास कराना जानता है , जो अपराधी है , उसे ही दण्ड देता है।  जो दण्ड की मात्रा और क्षमा का उपयोग जानता है।  ऐसे राजा की सेवा में सब प्रकार के धन और सम्पत्तियां न्यौछावर रहती हैं।

३.२५ काम तथा क्रोध का परित्याग

यः काममन्यू प्रजाहति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च।
विशेषविच्छुतवान् क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमणम्।।३.२५।।

जो राजा काम तथा क्रोध का परित्याग करता है , सुपात्र अर्थात् जरूरतमंद को धन देता है तथा विशेषज्ञ है , शास्त्रों का ज्ञाता है और अपने कर्त्तव्य को शीघ्र ही पूर्ण कर लेता है। ऐसे राजा को सभी नमस्कार करते हैं।

३.२४ दस प्रकार के लोग धर्म को न जानने वाले

दस धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्।
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः कुद्धो बुभुक्षितः।।३.२४.१.१।।
त्वरमांणश्र्च लुब्धश्र्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत् पण्डितः ।।३.२४.१.२।।

हे धृतराष्ट्र ! ये दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते।  ये इस प्रकार हैं - नशे में धुत व्यक्त्ति , असावधान व्यक्त्ति , पागल , यात्रा से थका हुआ , क्रोधी , भूख से व्याकुल , जल्दबाज , लोभ , भयभीत तथा कामवासना में लिप्त।  अतः विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वे इस दस प्रकार के लोगों के साथ आसक्त्ति न रखे।

३.२३ मनुष्य और ज्ञान, नौ तीन पाँच

नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान् यो वेद स परः कविः।।३.२३।।

जो विद्वान् पुरुष ( दो आँखें , दो  कान , दो नासाछिद्र , मुंह , मूत्रद्वार तथा मलद्वार ) नौ द्वार वाले ( वात , पित्त और कफरूपी ) तीन खम्भों वाले (शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्धरूपी ज्ञानेन्द्रियों ) पाँच साक्षी वाले आत्मा के निवास स्थान इस शरीररूपी घर को जानता है।  वह बहुत बड़ा ज्ञानी होता है।  

३.२२ आठ

अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः।
ब्राह्मनान्प्रथमंं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्र्च विरुध्यते।।३.२२.१.१।।

ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणाश्र्च जिघांसति।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति।।३.२२.१.२।।

नैनान्स्मरन्ति कृत्येषु याचितश्र्चाभ्यसूयति ।
एतान्दोषान्नरः प्राज्ञो बुध्येद् बुद्धवा विसर्जयेत्।।३.२२.१.३।।  

मनुष्य का विनाश करने वाले ये आठ कारण निम्नांकित हैं - वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, उनका विरोध करता है , ब्राह्मणों के धन का अपहरण कर लेता है , उनकी ह्त्या करना चाहता है , उनकी निंदा सुनकर आनंद की अनुभूति करता है , उनकी प्रशंसा सुनकर उनसे कुढ़ता रहता है , यज्ञ के समय उन्हें आमंत्रित नहीं करता है तथा कुछ मांगने पर उनमें दोष निकालता है।  बुद्धिमान व्यक्त्ति को इन बातों के परिणामों को जानकर इनका परित्याग कर देना चाहिये।

अष्टाविमनि हर्षस्य नवनीतानि भारत।
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि।।३.२२.२.१।।

समागमश्र्च सखिभिर्महांश्र्चैव धनागमः।
पुत्रेण च परिष्वङ्गः सन्निपातश्र्च मैथुने।।३.२२.२.२।।

समये च प्रियालापः स्वयूथेषु समुन्नतिः।
अभिप्रेतस्य लाभश्र्च पूजा च जनसंसदि।।३.२२.२.३।।

 मित्रों के साथ मेल - जोल , अत्यधिक धन की प्राप्ति , पुत्र का मोह , स्त्रियों के साथ समागम की प्रवृत्ति , मधुर समय पर वचन बोलना , अपने वर्ग के लोगों में ऐश्र्वर्य प्राप्त करना , मनचाही वस्तु प्राप्त करना और समाज में मान - सम्मान पाना , ये आठ वस्तुयें मनुष्य को आनंद देने के साथ - साथ सुख प्रदान करने वाली भी होती हैं।

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीप्यन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्र्चाबहुभाषिता  च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।३.२२.३.१।।

निम्नांकित आठ गुण ऐसे हैं जो मनुष्य को संसार में प्रसिद्धि दिलाते हैं।  वे इस प्रकार हैं - बुद्धिमानी , कुलीनता , इन्द्रियों को वश में करने की प्रवृत्ति , शास्त्रविद्या , पराक्रम , काम बोलना , सामर्थ्य के  अनुसार दान करना , तथा कृतज्ञता अर्थात् दूसरों के उपकारों का मान करना।  इससे मनुष्य स्वतः ही यश पाता है।

३.२१ सात

सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्र्वराः।।३.२१.१.१।।

स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम्।
महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ।।३.२१.१.२।।

स्त्री विषयक आसक्त्ति , जुआ , शिकार में लिप्त , मदिरापान , कठोर वचन , अत्यन्त कठोर दण्ड तथा धन का दुरूपयोग करना , ये सात दुःख प्रदान करने वाले दोष  को राजा को परित्याग कर देना चाहिये ; क्योंकि इसके रहने से अत्यधिक बलवान् राजा का भी विनाश हो जाता है।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

३.२० छः

षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता।।३.२०.१।।

जो पुरुष उन्नति करना चाहते हैं उन्हें इन छः दुर्गुणों (अधिक नींद , तन्द्रा , भय , क्रोध , आलस्य और जल्दी हो जाने वाले कार्यों में देर लगाने की आदत ) का त्याग कर देना चाहिये ; क्योंकि आलस को छोड़कर जो कठिन परिश्रम करता है ,  सफल हो पाता है।

षडिमानपुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अपवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।३.२०.२.१।।


अरक्षितारं राजानं भार्या चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।।३.२०.२.२।।

उपदेश न देने वाले आचार्य को , मन्त्रोच्चारण न करके हवन करने वाले को , रक्षा करने में असमर्थ राजा को , कठोर वचन बोलने वाली स्त्री , गाँव की इच्छा करने वाले ग्वाले और वन में रहने की इच्छा रखने वाले नाई ; इन छः का उसी  प्रकार त्याग कर देना चाहिये , जिस प्रकार समुद्र की सैर करने वाला व्यक्त्ति फटी हुई अर्थात् रिसने वाली नाव का त्याग कर देता है।

षडेव तु गुणाः पुसां न हातव्याः कदाचन्।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा घृतिः।।३.२०.३।।

व्यक्त्ति को कभी भी सत्य , दान , कर्मण्यता , दूसरों में दोष न निकालना , क्षमा और धैर्य , इन छः गुणों का परित्याग नहीं करना चाहिये ; क्योंकि वे गुण उनके रक्षक होते हैं।

अर्धागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्र्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.४।।

धन की प्राप्ति होते रहना , स्वस्थ रहना , मधुर वचन बोलने वाली और अपने अनुकूल रहने वाली स्त्री , पुत्र का आज्ञावादी होना और विद्या जिससे धन प्राप्त हो , ये छः बातें संसार में सुख प्रदान करने वाले बताये गये हैं।


षण्णामात्मानि नित्यानामैश्र्वर्य योऽधिगच्छति।
न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः।।३.२०.५।।

काम , क्रोध , लालच , मोह , मान  और घमण्ड , इन छः शत्रुओं को जो व्यक्त्ति जीत लेता है , वह जितेन्द्रिय पुरुष कहलाता है।  वह पापों में लिप्त नहीं होता है।  वह अनर्थ कैसे कर सकता है अर्थात् उनसे असमर्थ नहीं होता है।

षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः।।३.२०.६.१।।
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः।।३.२०.६.२।।

यह छः प्रकार के मनुष्य इन छः लोगों के सहारे अपनी आजीविका चलाते हैं।  वे इस प्रकार हैं - चोर आलसी लोगों के सहारे , चिकित्सक रोगियों के सहारे , वेश्या कामी पुरुषों से , पुरोहित यजमानों से , राजा आपस में झगड़ने वालों से तथा पंडित मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं।  सातवां कोई नहीं होता है।

षडिमानी विनश्यन्ति मुहूर्त्तमनवेक्षणात ।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्यावृषलसङ्गतिः।।३.२०.७।।

क्षण भर भी देख -रेख न करने से इन छः वस्तुओं का विनाश हो जाता है। पशु आदि गोधन , सेवा , खेती , पत्नी , विद्या और शूद्रों की संगती।

षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम्।
आचार्यं शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्र्च मातरम्।।३.२०.८.१।।
नारी विगतकामास्तु कृतार्थाश्र्च प्रयोजकम्।
नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्र्च चिकित्सकम्।।३.२०.८.२।।

ये छः व्यक्त्ति सदैव अपने ऊपर उपकार करने वाले का अनादर करते हैं - विद्या ग्रहण करने वाले अपने को पढ़ाने वाले आचार्य का , विवाह करने के बाद पुत्र अपनी माता का , कामवासना शांत हो जाने के बाद मनुष्य स्त्री का , काम निकल जाने के बाद अपने सहायक का , नदी पार करने के बाद व्यक्त्ति नाव का और रोगी व्यक्त्ति रोगमुक्त्त हो जाने पर अपने वैद्य का अनादर करते हैं।

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सभ्दिर्मनुष्यैः सह सम्प्रयोगः।
स्वप्रत्ययावृत्तिरभीतवासः षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।३.२०.९।।

रोगमुक्त्त रहना , किसी से उधार न लेना , दूसरे देश में निवास करना , सज्जनों की संगती , अपने द्वारा कमाये गये धन से अपनी जीविका चलाना तथा भयभीत होकर रहना , ये इस संसार में मनुष्यों के छः सुख हैं , जिसे पाकर वह सुखपूर्वक रहता है।

ईर्षुर्घृणी न सन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी न षडेते नित्यदुःखिताः।।३.२०.१०।।   

ईर्ष्या करने वाले , घृणा करने वाला , संतुष्ट न रहने वाला , क्रोध से भरा हुआ , सदा शंका की दृष्टि रखने वाला तथा दूसरे के सहारे जीने वाला , ये छः प्रकार के मनुष्य इस संसार में सदैव दुःखी रहते हैं।

३.१९ पाँच

पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्या प्रयत्नतः।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्र्च भरतर्षभ।।३.१९.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! पिता , माता , अग्नि , आत्मा  तथा  गुरु - व्यक्त्ति को इन पाँचों अग्नियों की यत्नपूर्वक सेवा करनी चाहिये।

पञ्चैव पूजयल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्पितृन्मनुष्याश्र्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ।।३.१९.२।।

देवता , पितर , मनुष्य , सन्यासी तथा अतिथि इन पाँचों की पूजा करने वाला व्यक्त्ति संसार में शुद्ध यश प्राप्त करता है।

पञ्चत्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि।
मित्राण्यमित्रा  मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः।।३.१९.३।।

हे राजन्।  आप जहां - जहां जायेंगे , वहाँ - वहाँ मित्र - शत्रु , उदासीन , आश्रय देने वाले और आश्रय पाने वाले व्यक्त्ति आपके पीछे लगे रहेंगे ; क्योंकि ये सदैव व्यक्त्ति के साथ रहते हैं।

पञ्चन्द्रियस्य मर्त्यस्यच्छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य सवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्।।३.१९.४।।

जिस प्रकार मशक में छेद हो जाने से पानी निकलता है और मशक खाली हो जाता है उसी प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले व्यक्त्ति की यदि एक भी इंद्रिय में दोष हो जाये तो उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।

३.१८ चार

चत्वारि राजा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात्।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कूर्यान्न दीर्घसूत्रैरभसैश्र्चारणैश्र्च।।३.१८.१।।

अल्प बुद्धि वाले , कार्य में देर लगाने वाले , विचार शून्य और स्तुति करने वाले लोगों के साथ राजा को बैठकर कभी सलाह नहीं लेना चाहिये , अपितु राजा को इन चारों महाबली का त्यागकर देना चाहिये।  विद्वान् पुरुष ऐसे व्यक्त्तियों को पहचान लें।

चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रीयाभिजुष्टस्य गृहस्थ धर्मे।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या।।३.१८.२।।

हे तात् ! जिस घर में अपने कुटुम्ब का वृद्ध मुसीबत में पड़ा हुआ , उच्च कुल का व्यक्त्ति , निर्धन मित्र तथा संतानहीन बहिन ये चारों रहते हैं।  उस  घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है ; क्योंकि बूढ़ा व्यक्त्ति बालकों को आचार -व्यवहार सिखाता है। निर्धन मित्र सदा हित की बात करता है और सन्तानहीन बहिन गृहस्थी के कार्यों को अच्छी प्रकार करती है।

चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पतिः।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे।।३.१८.३.१।।

हे महाराज ! इन्द्र के पूछने पर बृहस्पतिजी ने उनसे जिन चार बातों का शीघ्र फल देने वाला बताया है , उन्हें आप मुझसे सुनिये।

देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च श्रीमताम्।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम्।।३.१८.३.२।।

देवताओं का संकल्प , बुद्धिमानों का प्रभाव , विद्वानों की नम्रता तथा पाप करने वालों का विनाश।

चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुतमानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः।।३.१८.४।।  

चार कर्म मनुष्य को निर्भय  बनाता है और जब यह कार्य ठीक से सम्पन्न नहीं होते तो वह भयभीत हो जाता है। वे  कर्म हैं - आदरपूर्वक अग्निहोत्र , आदर के साथ मौन धारण का पालन , आदर के साथ विद्या ग्रहण तथा आदरपूर्वक किया गया यज्ञ का अनुष्ठान।

सोमवार, 28 मार्च 2016

३.१७ तीन

त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ्।
कनीयान्मध्यम् श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः।।३.१७.१।।

हे भरत श्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि होने के लिये उत्तम , मध्यम  तथा अधम ये तीन प्रकार के उपाय वेदवेत्ताओं द्वारा कहे गये हैं। इनमे साम को उत्तम , दाम तथा भेद को मध्यम तथा युद्ध को अधम बताया गया है।

त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रीविधेष्वेव कर्मसु।।३.१७.२।।

हे राजन् ! तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं - उत्तम , मध्यम और अधम।  अतः ये जिस काम के योग्य हों , उन्हें वही काम देना चाहिये।  इससे विदुरजी यह समझाना चाहते हैं कि हे राजन् ! आप उपाय नहीं जानते ; क्योंकि आपने अधम अर्थात् शकुनि आदि मंत्रियों को उत्तम कर्म में लगा दिया है।

त्रय  एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा  सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।।३.१७.३।।

हे राजन् ! स्वामी के रहने पर ये तीन व्यक्त्ति धन के अधिकारी नहीं माने जाते , स्त्री , पुत्र  और दास। इनके पास जो कुछ भी होता है , वह उस स्वामी के ही तो होते हैं। वह उस स्वामी के आज्ञा से ही उस धन के मालिक बन सकते हैं , अपनी इच्छा से नहीं।

हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्।
सुहृदश्र्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।३.१७.४।।

दूसरे के धन को छीनना , दूसरों की स्त्री के साथ दुष्कर्म करना तथा अच्छे मित्र को छोड़ना , ये तीनों ही दोष विनाश का कारण होते हैं।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।३.१७.५।।

मनुष्य की आत्मा को नष्ट करने वाले नरक के तीन द्वार होते हैं - काम , क्रोध  और लालच।  अतः मनुष्य को नरक के द्वार पर ले जाने वाले इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत।
शत्रोश्र्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम्।।३.१७.६।।

वरदान पाना , राज्य प्राप्त करना तथा पुत्र का जन्म होना - ये तीन बातें आनन्ददायी होती है।  शत्रु के कष्ट से  मुक्त्त हो जाने की खुशी इन तीनों के समतुल्य होती है।  अर्थात् शत्रु जितना कष्ट देते हैं।  इनसे मुक्त्ति पाने पर तीनों के बराबर आनन्द प्राप्त होता है।

भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम्।
त्रिनेतांछरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत्।।३.१७.७।।

भक्त्त , सेवक  और मैं आपका ही हूँ , ऐसा कहने वाले इन - तीन  प्रकार के शरणागत व्यक्त्तियों को श्रेष्ठ पुरुषों को विपत्ति आने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये।  

३.१६ दो

द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्र्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्र्च प्रदानवान् ।।३.१६.१।।

दो प्रकार के मनुष्य स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त करते हैं।  पहला सामर्थ्य होते हुए भी क्षमाशील व्यक्त्ति और दूसरा धन न होते हुए भी दानी स्वभाव वाला।

न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे  प्रतिपत्तिश्र्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।३.१६.२।।

न्याय से प्राप्त किये गये धन के दो ही दुरुपयोग माने जाते हैं। एक तो अपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता नहीं है उसको देना और सुपात्र अर्थात् जिसको आवश्यकता है , उसे धन न देना।

द्वावम्भसि निवेष्टब्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।।३.१६.३।।

जो धनवान होते हुए भी दान न करे और जो निर्धन होते हुए भी कठोर परिश्रम न करे जिससे उसकी गरीबी दूर हो जाए।  इन दो प्रकार के पुरुषों के गले में भारी पत्थर बांधकर जल में डुबा देना चाहिये।

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिवाड्योगयुक्तश्र्च रणे चाभिमुखो हतः।।३.१६.४।।

ये दो प्रकार के मनुष्य सूर्यमण्डल को भेदकर मोक्ष प्राप्त करते हैं - पहला योगयुक्त्त सन्यासी तथा दूसरा संग्राम में लोहा लेने वाला वीर।  अर्थात् सन्यासी का कार्य योग साधना में लगे रहना है और वीर पुरुष को युद्ध में घबराना नहीं चाहिये।

३.१५ गृहस्थ और सन्यासी

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्र्च निरारम्भः कार्यवांश्र्चैव भिक्षुकः।।३.१५।।

दो ही लोग ऐसे हैं , जो अपने विपरीत कर्मों के कारण शोभा नहीं पाते हैं। उनमें से एक अकर्मण्य गृहस्थ तथा दूसरा कार्यों में लगा सन्यासी।  गृहस्थ यदि आलसी रहेगा तो वह गरीब रह जायेगा और दूसरा सन्यासी यदि कर्मों में लगा रहेगा तो सन्यासी बनने से क्या लाभ।  वह सब कुछ त्यागकर ही तो सन्यासी हुआ है।

३.१४ कांटों के समान

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ।
यश्र्चाधनः कामयाते यश्र्च कुप्यत्यनीश्र्वरह।।३.१४।। 

जो गरीब होकर भी बहुमूल्य वस्तु की कामना करता है और जो कमजोर होते हुए भी क्रोध करता है। ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले कांटों के समान हैं अर्थात् ये अपने आप को बहुत कष्ट पहुँचाते हैं।

३.१३ विश्र्वास

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणौ।
स्त्रियः कामितकामिन्यो लोकः पूजितपूजकः।।३.१३।।

जिस पुरुष को कोई स्त्री चाहती थी उस पुरुष को चाहने वाली स्त्रियां और दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरुष , ये दोनों पर विश्र्वास करने वाले होते हैं।  इनके पास अपनी बुद्धि नहीं होती है।

३.१२ आदर और सम्मान

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते।
अब्रुवन पुरुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयस्तथा।।३.१२।।   

जो पुरुष कठोर वचन नहीं बोलता है दुष्ट पुरुषों का आदर -सत्कार या संगति नहीं करता है।  इन दो कर्मों को करने वाले मनुष्य को ही आदर और सम्मान प्राप्त होता है।

३.११ धरती

द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो विलश्यानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।।३.११।।

बिल में सोने वाले जन्तुओं को जिस प्रकार सांप खा जाता है , उसी प्रकार यह धरती भी शत्रु का विरोध न करने वाले राजा तथा अन्य देश में रहने वाले ब्राह्मण इन दोनों को खा जाती है अर्थात् वे दोनों नष्ट हो जाते हैं।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

३.१० क्षमा

एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः।।३.१०.१।।

जो लोग क्षमाशील होते हैं , उनमें एक ही दोष होता है , दूसरा कोई दोष नहीं होता है। वह दोष यह है कि ऐसे व्यक्त्ति को लोग असमर्थ और कमजोर समझने लगते हैं।

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्।
क्षमगुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।।३.१०.२।।

किन्तु क्षमा को उनका दोष नहीं मानना चाहिये ; क्योंकि क्षमा तो सबसे बड़ा बल है। यह असमर्थ मनुष्यों का गुण है और शक्तिशाली मनुष्यों का आभूषण है।

क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शन्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः।।३.१०.३।।

इस संसार में क्षमा द्वारा सभी लोग वश में हो जाते हैं। जिस व्यक्त्ति के पास क्षमारूपी शक्त्ति होती है , वह व्यक्त्ति सब कुछ प्राप्त कर सकता है। दुष्ट व्यक्त्ति भी उसका अहित नहीं कर सकते हैं।

अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान्परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत्।।३.१०.४।।

जिस प्रकार आग किसी ऐसे जगह पर गिरे जहां पर एकमात्र तिनका न हो तो वह अपने आप बुझ जाती है। उसी प्रकार दुष्ट व्यक्त्ति भी किसी क्षमा भाव वाले मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है अर्थात् उनके सामने आने पर अपने आप शान्त हो जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य क्षमाशील नहीं है उनकी आत्मा दोषयुक्त्त हो जाती है।

एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा।।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।।३.१०.५।।

केवल धर्म ही महाकल्याणकारी होता है। एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है।  एक विद्या ही संतोष देने वाली और एकमात्र अहिंसा अर्थात् किसी से झगड़ा न करना ही सुख प्रदान करने वाली होती है।

३.९ साधन

एकमेवाद्वितीयं तद्यद्वाजन्नवबुध्यसे।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।।३.९।।

जैसे केवल नाव ही समुद्र पार करने का एकमात्र साधन है , उसी प्रकार सत्य ही स्वर्ग पाने का एकमात्र साधन है।  यह एक सबसे बड़ी सच्चाई है ; परन्तु आप उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

गुरुवार, 24 मार्च 2016

३.८ अकेले

एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्र्चार्थान्न चिन्तयेत्।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात्।।३.८।।

व्यक्त्ति को अकेले स्वादिष्ट पदार्थ नहीं खाना चाहिये। हो सकता है किसी ने उस व्यक्त्ति का अहित करने के उद्देश्य से उस खाने में विष मिला दिया हो।  अकेले ही किसी बात पर निर्णय नहीं लेना चाहिये अर्थात् सामूहिक रूप से निर्णय लेना चाहिये।  कभी भी अकेले रास्ते में नहीं जाना चाहिये और बहुत से लोग सो गये हों तो उनके बीच अकेले नहीं जागना चाहिये।  इससे व्यक्त्ति के अनिष्ट होने की संभावना रहती है।

३.७ योजनायें

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्र्च वध्यते।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः।।३.७।।

जहर और हथियार का प्रभाव सीमित है।  जहर केवल एक को ही मारता है और शस्त्र से भी केवल एक का ही विनाश होता है ; लेकिन राजा की गुप्त योजनाओं और विचारों का समय से पहले पता चलने से उस राजा , प्रजा और पूरे राष्ट्र का विनाश हो जाता है। अतः राजा को अपनी योजनायें छिपाकर रखनी चाहिये।

३.६ बुद्धि

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्त्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राराष्टं सराजकम्।।३.६.१।।

किसी धनुषधारी के द्वारा छोड़ा गया बाण संभव है कि वह उसके शत्रु को मार भी सकता है या नहीं भी मार सकता है।  लेकिन कोई बुद्धिमान व्यक्त्ति जब अपनी बुद्धि का प्रयोग किसी को नष्ट करने के लिये करता है , तो वह अवश्य ही उसका विनाश कर देता है।  फिर चाहे वह राजा या उसका राज्य ही क्यों न हो अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकता है।

एकया द्वे विनिश्र्चित्य त्रींश्र्चतुर्भिर्वशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव।।३.६.२।।     

हे राजन ! अपनी बुद्धि से क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका निश्र्चय करके साम , दाम , दण्ड और भेद से मित्र , शत्रु और उदासीन तीनों को वश में कर लीजिये। पाँचों इन्द्रियों को जीतकर छः गुणों ( संधि , विग्रह , यान , आसन , द्वैधीभाव और आश्रय ) को जानकर सात दुर्गुणों ( स्त्री , जुआ , शिकार , मद्यपान , कठोर वचन , कठोर दण्ड और अन्याय से धन का उपार्जन ) को त्यागकर सुखी हो जाईये। 

३.५ पाप और पापी

एकः पापानि कुरुते फलं भुक्त्ते महाजनः।
भोक्त्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते।।३.५।।

पाप तो एक व्यक्त्ति अकेले ही करता है ; परन्तु उसके पाप का मौज बहुत से लोग उड़ाते हैं। जो लोग पाप की कमाई का मौज उड़ाते हैं , वे बच जाते हैं ; क्योंकि पाप करने वाला व्यक्त्ति ही सजा का भागी होता है।

३.४ निर्दयी और क्रूर

एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्र्च शोभनम्।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्य को नृशंसतरस्ततः।।३.४।।

जो व्यक्त्ति उत्तम भोजन को अकेले ही ग्रहण करता है।  अच्छे वस्त्रों को अकेले ही पहनता है।  इन वस्तुओं का प्रयोग अपने लोगों को भी नहीं करने देता है अर्थात् अपनी कोई वस्तु किसी के साथ नहीं बांटता है , उससे अधिक निर्दयी और क्रूर कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है।  

३.३ मुर्ख कौन होता है ?

विदुर उवाच
"
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अश्रुतश्र्च समुन्नद्धौ दरिद्रश्र्च महामनाः।
अर्थाश्र्चकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः।।३.३.१।।

जो व्यक्त्ति विद्वान न होते हुए अभिमान करता ,  निर्धन होते हुए भी बड़े -बड़े स्वप्न देखता है तथा बिना कर्म किये ही धन की अभिलाषा रखता है।  ऐसे मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।

स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्र्च मूढः स उच्चते।।३.३.२।।

जो अपने कार्यों को छोड़कर दूसरों के कार्यों को पूर्ण करने में लगा रहता है , जो मित्रों के साथ असत्य आचरण करता है , वही मूर्ख कहलाता है।

अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.३।।

जो बुरे व्यक्त्तियों और बुरे वस्तुओं को चाहता है और अच्छी वस्तुओं और अच्छे लोगों को छोड़ देता है और जो अपने से बलशाली के साथ शत्रुता रखता है , उसे पंडित लोग मुर्ख कहते है।

अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्रेष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.४ ।।

 जो मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र बना लेता है और मित्रों को हानि पहुँचाता है।  जो सदैव दुष्कर्म ही करता है ; ऐसा व्यक्त्ति मूर्ख कहलाते हैं।

संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ।।३.३.५।।

हे भरतश्रेष्ठ ! जो व्यक्त्ति अपने कर्मों को व्यर्थ ही फैलाता है , सब जगह संदेह करता है , संशय से घिरा रहता है और शीघ्र होने वाले कामों को भी टाले रहता है और देर लगाता है ; ऐसे लोग मूर्ख कहलाते हैं।

श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि च चर्चति।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम्।।३.३.६।।

जो अपने माता -पिता का आदर नहीं करता , उनका श्राद्ध नहीं करता है , देवताओं की अराधना नहीं करता है , जिसका अच्छा मित्र नहीं होता है , वह मूर्ख है।

अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्र्वस्ते विश्र्वसिति  मूढचेता नराधमः।।३.३.७।।

जो मूर्ख व्यक्त्ति होता है , वह बिना बुलाए ही पहुँच जाता है , बिना पूछे ही स्वयं बोल देता है और जो विश्र्वासपात्र नहीं है , उन पर भी विश्र्वास कर लेता है।

परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा।
यश्र्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः।।३.३.८।।

जो स्वयं दोषी होकर भी दूसरों पर दोष लगाता है और जो असमर्थ होते हुए भी समर्थ व्यक्त्ति पर व्यर्थ का क्रोध करता है , वह मनुष्य अत्यन्त मूर्ख कहलाता है।

आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढबुद्धिरिहोच्यते।।३.३.९।।

जो व्यक्त्ति अपने सामर्थ्य का अनुमान नहीं लगा पाता है और ऐसे कार्यों को पूर्ण करने की चाह रखता है , जो धार्मिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से कर पाना असंभव होता है।  ऐसे व्यक्तियों को पण्डित लोगों ने मूर्खों की उपाधि दी है।

अशिष्यं शस्ति यो राजन्यश्र्च शून्यमुपासते।
कदर्यं भजते यश्र्च तमाहुर्मुढचेतसम्।।३.३.१०।।

जो व्यक्त्ति अनाधिकारी को शिक्षा अर्थात् उपदेश देता है और ऐसे कार्यों को करता है जिसको करने से कोई लाभ अथवा उपयोग नहीं होता है और जो कृपण व्यक्त्ति का सहारा लेता है , उसे मूढ़ चित्त वाला कहा जाता है।  

बुधवार, 23 मार्च 2016

३.२ पण्डित कौन होता है ?

विदुर उवाच
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आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्थान्नपकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.१।।

१. जिन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है। जो धर्मात्मा हैं और धर्म का पालन करते हैं।
२ . जिनमें दुःख झेलने की शक्त्ति है।
३ . जो धन के लोभ मे अपने मार्ग से नही भटकता।

ऐसे ही लोगों को पण्डित या विद्वान कहा जाता है।

निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम्।।३.२.२।।

१. जो सदैव अच्छे कर्मों को करता है तथा निन्दित बुरे कर्मों से दूर रहता है।
२. जो आस्तिक  और  श्रद्धालु है।
यही सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं।

क्रोधो हर्षश्र्च दर्पश्र्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान्नपकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.३।।

जो पुरूष क्रोध , हर्ष , लज्जा , उद्दंडता और अपने को पूज्य समझने के गर्व में होकर अपने रास्ते से नहीं भटकते , वही पंडित कहलाते हैं।

यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते।।३.२.४।।

जिसकी कर्तव्य सलाह और विचार विमर्श को दूसरे लोग नहीं जानते अपितु कार्य पूर्ण होने पर ही उन्हें उनकी योजना का पता चलता है , वही पण्डित कहलाते हैं।

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते।।३.२.५।। 

जिस पुरूष के कार्य में सर्दी - गर्मी , डर - अनुराग , करनी अथवा निर्धनता कोई भी बातें अड़चन नहीं डालती , यानि जिनके कारण वह पुरूष अपने कार्य से पीछे नहीं हटता , वही पण्डित कहलाता है।

यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते।
कामादर्थ वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते।।३.२.६।।

जो पुरूष सांसारिक होते हुए भी धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करता है और जो योग को छोड़कर पुरूषार्थ को ही चुनता है , वही पंडित कहलाता है।

यथाशक्त्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्त्ति च कुर्वते।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः।।३.२.७।।

जो विवेकपूर्ण बुद्धि वाले व्यक्त्ति अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करने की इच्छा रखते हैं  और समता के अनुसार ही कार्य करते भी है और किसी को तुच्छ समझकर निरादर नहीं करते , वही पण्डित है।

क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रेणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासम्पृष्टो व्युपयुक्त्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।।३.२.८।।

जो व्यक्त्ति किसी बात को देर तक सुनता है लेकिन जल्दी ही समझ जाता है और बात समझकर उस पर आचरण करता है। जब तक कोई उनसे न पूछे वह दूसरों के बारे में व्यर्थ की बात नहीं कहता।  यह स्वभाव पंडितों की मुख्य पहचान होती है।

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यान्ति नराः पण्डितबुद्धयः।।३.२.९।।

जो व्यक्त्ति दुर्लभ वस्तु के मिलने की इच्छा नहीं रखते , नष्ट हुयी वस्तु के बारे में सोचकर दुःख नहीं करते और विपत्ति में धैर्य नहीं खोते वही पंडित है।


निश्र्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति क्रर्मणः।
अवन्ध्यकालो  वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते।।३.२.१०।।

जो पहले निश्र्चय कर लेता है फिर कार्य आरम्भ करता है तथा बीच में नहीं छोड़ता व्यर्थ का समय नहीं गंवाता।  जिसने अपने मन को वश में कर लिया है , वही पण्डित है।

आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ।।३.२.११।।

हे भरतकुल -भूषण ! जो पुरूष श्रेष्ठ कार्यो को करने में रूचि रखते हैं अपने भलाई या हिट चाहने वाले की बुराई नहीं करते वे ही पंडित कहलाते हैं।

न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गांगो ह्नद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१२।।

जो आदर पाकर भी प्रसन्न नहीं होते हैं और अपमान होने पर दुःखी नहीं होते हैं ; अपितु गंगाजल के कुण्ड के समान जिसका चित्त सब परिस्थितियों में एक समान रहता है , वही पंडित कहलाता है।

तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम्।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते।।३.२.१३।।

जो सभी भौतिक पदार्थों की जानकारी रखता है, सब कामों को करने का तरीका जानता है और सब मनुष्यों की मुसीबतों को दूर करने का उपाय जानता है , सब प्राणियों को समझता है , वही पंडित कहा जाता है।

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशुग्रन्थस्य वक्त्ता च यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१४।।

जो व्यक्त्ति अपनी बात को अच्छे ढंग से दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता है तर्कशील और प्रतिभाशाली है , जो ग्रन्थ के तात्पर्य को जल्दी से समझा सकता हो , वही पंडित कहलाता है।

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रजा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नर्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत् सः।।३.२.१५।।

जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो सदा सही काम करता हो और कभी गलत मार्ग पर न चलता हो अर्थात् अपनी मर्यादा को न भूलकर उसी के अनुसार कार्य करता है , वही पंडित कहलाता है।

अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामैश्र्वर्यमेव वा।
विचरत्यसमुन्नद्धो यः स पण्डित उच्यते।।३.२.१६।।

जो अत्यधिक धन , संपत्ति , यश , शक्त्ति तथा विद्या अर्जित करने के बाद भी तनिक गर्व महसूस नहीं करता , नम्रतापूर्वक व्यवहार करता है , वह पण्डित कहलाता है।

३.१ किसकी नींद उड़ जाती है ?

विदुर उवाच
अभियुक्त्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।
हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः।।१।।

विदुरजी ने कहा : महाराज ! इन व्यक्त्तियों की नींद उड़ जाती है -
१. जिसका किसी बलवान के साथ विरोध हो गया हो।
२. जो स्वयं दुर्बल हो।
३. जो साधनहीन हो।
४. जिसका सब कुछ हर लिया गया हो।
५. काम - वासनाओं में लिप्त हो तथा चोर भी हो।

ऐसे ही लोगों को रात में जागने का रोग लग जाता है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

२.३४ सर्वधनी

 यक्ष उवाच
व्याख्याता मे त्वया प्रश्ना यथातथ्यं परन्तप।
पुरुषं त्विदानीं व्याख्याहि यश्र्च सर्वधनी नरः।।२.३४.१।।

हे परम तपस्वी। मेरे प्रश्नों के उत्तर आपने सही - सही दे दिये ;किन्तु अब उस व्यक्त्ति की विवेचना कीजिये जो सर्वधनी कहा जाता है।

युधिष्ठिर उवाच
दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्येन कर्मणा।
यावत्स शब्दो भवति तावत्पुरुष उच्यते।।२.३४.२।।

पुण्यकर्म करने के पश्र्चात् जिस मनुष्य की कीर्ति का शब्द अर्थात् यश गाथा जिस समय तक आकाश एवं पृथ्वी में फैली रहती है , उस समय तक मनुष्य समझो जीवित रहता है तथा वही मनुष्य सर्वधनी भी कहा जाता है।

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदुःखे तथैव च।
अतीतानागते  चोभे स वै सर्वधनी नरः।।२.३४.३।।

जिस व्यक्त्ति के लिये शत्रु तथा मित्र एक समान हैं तथा सुख -दुःख भी एक जैसे हैं तथा भूत , भविष्य सब एक जैसा है , वही व्यक्त्ति सर्वधनी कहलाता है।

२.३३ प्रसन्नता , आश्र्चर्य ,मार्ग , वर्तमान

यक्ष उवाच
को मोदते किमाश्र्चर्यं कः पन्थाः का च वार्तिका।
वद मे चतुरः प्रश्नान्मृता जीवन्तु बान्धवाः।।२.३३.१।।

कौंन है , जो प्रसन्न रहता है ?
आश्र्चर्य क्या है ?
मार्ग कौंन है ?
वर्तमान कौंन है ?
हे राजन् ! यदि आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो आपके चारों भ्राता पुनः जीवित हो जायेंगें।

युधिष्ठिर उवाच
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति स्वे गृहे।
अनुणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते।।२.३३.२।।

हे वारिचर (जलचर )।जो व्यक्त्ति अपने गृह में पाँचवें अथवा छठें दिन शाकपात खाकर जीवन चलाता है किन्तु किसी से उधार नहीं लेता एवं प्रवासी अर्थात् परदेस में रहने वाला नहीं है , वही व्यक्त्ति प्रसन्न रहता है। 

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थवरमिच्छन्ति किमाश्र्चर्यमतः परम्।।२.३३.३।।

नित्य प्राणी धर्मराज के पास जाते हैं अर्थात् मृत्यु प्राप्त करते हैं जो शेष प्राणी जीवित हैं इनको देखकर भी अपने को स्थिर रहने की अभिलाषा रखते हैं अर्थात् वो सोचते हैं कि वे मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे तो फिर इससे अधिक एवं आश्र्चर्य कौन - सा हो सकता है ? यानि कोई नहीं है।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।।२.३३.४।।

तर्क निर्णय शून्य है यानि तर्क से कोई निर्णय नहीं होता एवं श्रुति परस्पर विरोधी तर्क अर्थवाद वाली है , उसमें भी अंतर है एवं ऋषि भी उनका विश्लेषण अपने ढंग से करते हैं , जो एक -दूसरे के विरूद्ध हैं। अतः धर्म का तत्त्व गुप्तभाव में स्थित है यानि उसे समझ पाना सरल नहीं है।  अतः अपने से बड़े वृद्ध लोग जिस धर्म के रास्ते से चलते आ रहे हैं वही सही रास्ता है।

अस्मिन्महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन।
मासर्तुदर्विपरिघट्टने भूतानि कालः पचतीति वार्ता।।२.३३.५।।

इस विशाल मोहरूपी कड़ाहे को सूर्य एवं आग से रात तथा दिन रूपी लकड़ी से कालरूप ईश्र्वर प्राणियों को इस कड़ाही में पकाता है तथा मोह और ऋतुरूपी कलछी से हिलाता रहता है यही वास्तविकता है।  

२.३२ व्यवहार

यक्ष उवाच
प्रियवचनवादी किं लभते विमृशितकार्यकरः किं लभते।
बहुमित्रकरः किं लभते धर्मे रतः किं लभते कथय।।२.३२.१।।

मधुर वाणी बोलने वाले को क्या लाभ मिलता है ?
सोच - विचार कर कर्म करने वाले को क्या मिलता है ?
ढेर सारे मित्र बनाने वाले को क्या लाभ मिलता है ?
धर्म में लगे रहने वाले मनुष्य को क्या मिलता है ?
 
युधिष्ठिर उवाच
प्रियवचनवादी प्रियो भवति विमृशितकार्यकरोऽधिकं जयति।
बहुमित्रकरः सुखं वसते यश्र्च धर्मरतः स गतिं लभते।।२.३२.२।।

मधुर वाणी बोलने वाला व्यक्त्ति समस्त लोगों का प्रिय होता है।
सब काम सोच-विचारकर करने वाले को अधिक लाभ प्राप्त होता है।
बहुत सारे मित्र बनाने वाला सुख से रहता है।
धर्म में लगे रहने वाला व्यक्त्ति उत्तम गति को प्राप्त होता है।  

२.३१ ब्राह्मणत्व

यक्ष उवाच
राजन्कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा।
ब्राह्मण्यं केन भवति प्रबूह्येतत्सुनिश्र्चितम्।।२.३१.१।।

हे राजन् ! ब्राह्मणत्व किससे होता है - कुल से या आचरण से अथवा वेदों का अध्ययन करने से होता है या फिर वेदों का श्रवण करने से ब्राह्मणत्व होता है।  यह निश्र्चित रूप से मुझे बताइये।

युधिष्ठिर उवाच
श्रृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
करणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः।।२.३१.२।।

हे यक्ष ! हे तात ! तो सुनिये , न ही कुल के कारण ब्राह्मणत्व होता है और न ही वेदाध्ययन एवं वेदों को सुनने से ; परन्तु ब्राह्मणत्व का एक कारण स्वधर्माचरण ही है , इसमें कोई संशय नहीं है।

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।२.३१.३।।

मनुष्य को ही स्वधर्माचरण की रक्षा करनी चाहिये एवं ब्राह्मण को तो वशेषतया रक्षा करनी चाहिये ; क्योंकि जिसका चरित्र क्षीण नहीं है एवं जिसका आचरण क्षीण हो गया है , वह क्षीण है।

पठकाः पाठकाश्र्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः।
सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान्स पण्डितः।।२.३१.४।।

हे यक्ष ! जो ब्राह्मण शास्त्र का अध्ययन कराने और करने वाले होते है एवं जो शास्त्र के शुभचिंतक हैं वे क्रिया से रहित होने से समस्त बुराईयों से युक्त्त एवं मूख्र कहे जाते हैं एवं जो ब्राह्मण क्रियान्वित हैं , वे पंडित कहे जाते हैं।

चतुर्वेदोऽपि दुर्वृत्तः स शुद्रादतिरिच्यते।
योऽग्निहोत्रपरो दान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः।।२.३१.५।।

चारों वेदों का अध्ययन करने वाला ब्राह्मण यदि दुराचरण वाला है , तो वह शुद्र से भी अधिक गिरा हुआ है ; क्योंकि जो अग्निहोत्र करता है एवं इन्द्रियों को वश में रखता है , वह ब्राह्मण माना जाता है।  

२.३० नरक

यक्ष उवाच
अक्षयो नरकः केन प्राप्यते भरतर्षभ्।
एतन्मे पृच्छतः प्रश्नं तच्छीघ्रं वक्त्तुमर्हसि।।२.३०.१।।

हे भरत! किस काम को करने से व्यक्त्ति नरक के द्वार में जाता है।  मेरे इस प्रश्न का शीघ्रतापूर्वक उत्तर दीजिये।

युधिष्ठिर उवाच
ब्राह्मणं स्वयमाहूय याचमानमकिञ्जनम्।
पश्र्चान्नास्तीति यो ब्रूयात्सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.२।।

भिक्षा मांगने आए गरीब ब्राह्मण को स्वयं ही प्रथम कुछ देने हेतु बुलाए एवं बाद में देने से मना कर दे , तो वही अक्षय नरक में स्थान पाता है।

वेदेषु धर्मशास्त्रेषु मिथ्या यो वै द्विजातिषु।
देवेषु पितृधर्मेषु सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.३।।

जो व्यक्त्ति वेदों , धर्मशास्त्रों , ईश्र्वर तथा पितृधर्म को मानने से मना कर देता है , वह व्यक्त्ति नरक में निवास करता है।

विद्यमाने धने लोभाद्दानभोगविवर्जितः।
पश्र्चान्नास्तीतियोब्रूयात्सोऽक्षयं नरकं व्रजेत्।।२.३०.४।।

लक्ष्मी समीप रहने पर भी जो व्यक्त्ति न ही किसी को दान करता है तथा न ही धन का उपयोग स्वयं करता है एवं दान करूँगा , इस प्रकार के वचन को कहकर बाद में इनकार कर देता है , वह अक्षय नरक में वास करता है।

२.२९ धर्म अर्थ काम का मिलन

यक्ष उवाच
धर्मश्र्चर्थश्र्च कामश्र्च परस्परविरोधिनः।
एषां नित्यविरुद्धानां कथमेकत्र संगम्।।२.२९.१।।

धर्म , अर्थ  तथा  काम ये दूसरे के विरोधी हैं, इन नित्य विरोधियों का एक स्थान पर मिलन अर्थात् संगम कैसे संभव है ?

युधिष्ठिर उवाच
सदा धर्मश्र्च भार्या च परस्परवशानुगौ।
तदा धर्मार्थकामानां त्रयाणामपि संगमः।।२.२९.१।।

जिस समय धर्म एवं स्त्री परस्पर एक -दूसरे के वशीभूत हो जाते हैं , उस समय धर्म , अर्थ एवं कामना का संगम होता है।

२.२८ माया

यक्ष उवाच
कोऽहंकार इति प्रोक्त्तः कश्र्च दम्भः प्रकीर्तितः।
किं तद्दैवं परं प्रोक्त्तं किं तत्पैशुन्यमुच्यते ।।२.२८.१।।

अहंकार क्या है ?
दम्भ क्या है ?
भाग्य क्या है तथा कहाँ है ?
चुगली ( पिशुनता ) किसे कहा जाता है ?

युधिष्ठिर उवाच
महाज्ञानमहंकारो दम्भो धर्मो ध्वजोच्छ्रयः।
दैवं दानफलं प्रोक्त्तं पैशुन्यं परदूषणम्।।२.२८.२।।

महाअज्ञान ही अभिमान है।
संसार में अपनी पूजा करवाने हेतु ही धर्म का दम्भ किया जाता है।
पिछले जन्म में किये गये दान का फल ही देव का भाग्य है।
दूसरों के कमजोरियों को बतलाना ही चुगली कहलाता है।

२.२७ ज्ञानी और मुर्ख

यक्ष उवाच
कः पण्डितः पुमांज्ञेयो नास्तिकः कश्र्च उच्यते।
को मूर्खः कश्र्च कामः स्यात्को मत्सर इति स्मृतः।।२.२७.१।।

ज्ञानी पुरुष कौंन होता है ?
ईश्र्वर को न मानने वाला पुरुष कौंन है ?
मुर्ख व्यक्त्ति कौंन होता है ?
काम कौंन है ? मत्सर (ईर्ष्या) कौंन है ?

धर्मज्ञः पण्डितो  ज्ञेयो नास्तिको मुर्ख उच्यते।
कामः संसारहेतुश्र्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः।।२.२७.२।।

धर्म का ज्ञान रखने वाला ही पंडित है।
ईश्र्वर को न मानने वाला ही मुर्ख कहा गया है।
संसार से वासना न खत्म होना ही काम है।
दूसरों की धन - संपत्ति देखकर अपने हृदय में आग उठाना ही मत्सर अर्थात् ईर्ष्या है।

२.२६ ऋषि और श्रेष्ठ

यक्ष उवाच
किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्त्तं किं च धैर्यमुदाहृतम्।
स्नानं च किं परं प्रोक्त्तं दानं च किमिहोच्यते।।२.२६.१।।

ऋषियों द्वारा कही हुई स्थिरता क्या है ?
उनके द्वारा कही गई धैर्यता कौन - सी है ?
स्नानों में श्रेष्ठ स्नान कौन - सा  है ?
दानों में सबसे बड़ा दान क्या है ?

युधिष्ठिर उवाच
स्वधर्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम्।।२.२६.२।।

अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है।
इन्द्रियों पर संयम रखना ही धैर्य है।
अपने मन के मलों को छोड़ना ही सबसे बड़ा स्नान है।
समस्त प्राणियों की रक्षा करना ही श्रेष्ठ दान है।